इसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।।१।। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजऋषियों ने जाना परंतु है अर्जुन वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लोप हो गया था।।२।। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।।३।। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण चंद्र महाराज के वचन सुनकर अर्जुन ने पूछा हे भगवन् ! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था यह मैं कैसे जानूं?।।४।।
इस पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं परंतु हे परमतप ! उन सब को तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।।५।। मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदस्य नहीं है मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योग माया से प्रगट होता हूं।।६।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात प्रकट करता हूं।।७।।
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग- युग में प्रकट होता हूं।।८।। इसलिए हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।।९।।
हे अर्जुन ! पहले भी राग भय और क्रोध से रहित अनन्य भाव से मेरे में स्थिति वाले मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।।१०।। क्योंकि हे अर्जुन ! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं, इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।।११।। जो मेरे को तत्वों से नहीं जानते हैं वे पुरुष इस मनुष्य लोक मे कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती इसलिए तू मेरे को ही सब प्रकार से भज।।१२।।
हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।।१३।। क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृह नहीं है इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।।१४।।
तथा पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।।१५।। परंतु कर्म क्या है और अकर्म क्या है? ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा कि जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार बंधन से छूट जाएगा।।१६।।
कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।।१७।। जो पुरुष कर्म में अर्थात अहंकार रहित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात वास्तव में उनका न होनापन देखें और जो पुरुष कर्म में अर्थात अज्ञानी पुरुषों द्वारा किए हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थात त्याग रूप क्रिया को देखे वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।।१८।।
हे अर्जुन ! जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान रूप अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानी जन भी पंडित कहते हैं।।१९।। जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त है वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तव्य अभिमान को त्याग कर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है जीत लिया है अंतः करण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने ऐसा आशा रहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता है।।२१।।
अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाववाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।।२२।।
क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले यज्ञ के लिए आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।।२३।।
यज्ञ के लिए आचरण करने वाले पुरुषों में से कोई तो इस भाव से यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात स्त्रुवादिक भी ब्रह्म है और हवि अर्थात हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है इसलिए ब्रह्म रूप कर्म में समाधिस्थ हुए पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।।२४।।
और दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपवास ते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानी जन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।।२५।।
अन्य योगी जन श्रोतादिक सब इंद्रियों को संयम अर्थात स्वाधीनता रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोक कर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक विषयों को इंद्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्म रूप करते हैं।।२६।।
दूसरे योगी जन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टा को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई, परमात्मा में स्थिति रूप योग अग्नि में हवन करते हैं।।२७।।
दूसरे कई पुरुष ईश्वर अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं वैसे ही कई पुरुष ँँ स्वधर्म पालनरूप तपयज्ञ को करने वाले हैं और कई अष्टांगयोग रूप यज्ञ को करने वाले हैं और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान यज्ञ के करने वाले हैं।।२८।।
दूसरे योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं वैसे ही अन्य योगी जन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपन की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।।२९।। दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, इस प्रकार यज्ञ द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका ऐसे यह सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।।३०।। हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञों के परिणामस्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मृत्युलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा।।३१।।
ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं उन सब को शरीर मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्म योग द्वारा संसार बंधन से मुक्त हो जाएगा।।३२।।
हे अर्जुन ! सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञान रूप यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।३३।।
इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान वे मर्म को जानने वाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।।३४।।
कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा और है अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतन रूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को दिखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा।।३५।। यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञान रूप नौका द्वारा निसंदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।।३६।।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म मे कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।।३७।। इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।।३८।।
हे अर्जुन ! जितेंद्रिय तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।।३९।।
हे अर्जुन ! भागवत विषय को ना जानने वाला तथा श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है उनमें भी संशय युक्त पुरुष के लिए तो न सुख है न यह लोक हैं न परलोक है अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।।४०।।
हे धनंजय ! समत्व बुद्धि रूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके ऐसे परमात्मा परायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।।४१।।
इससे हे भरतवंशी अर्जुन ! तू समत्वबुद्धि रूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए, हृदय में स्थित इस अपने संशय को ज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।।४२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "ज्ञानकर्मसंन्यासयोग" नामक चौथा अध्याय।।४।।