गुरुवार, 25 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पांचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूं, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पूरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था वह वेद पाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच गान में मन लगाया। गीत नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और  उसी से उसका राज भवन में प्रवेश हो गया अब वह राजा के साथ रहने लगा और पराई स्त्रियों को बुला बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से कुछ उच्छृंखल होकर वह एकांत में राजा से दूसरों के दोष बताने लगा। पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ बिहार करने की इच्छा से उन्हीं की खोज में घूमा करती थी। उसने पति को अपने मार्ग का कंटक समझ कर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काट कर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया। प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुंचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगंदर रोग से अपने सुंदर शरीर को त्याग कर को नर्क भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई । एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से उधर उधर फुदक रही थी इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नको से फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलिया ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्व जन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गए। वहां अपने पूर्वकृत पापकर्म याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे - भगवन ! हम दोनों ने पूर्व जन्म में अत्यंत घृणित पाप संचय किया है फिर हमें मनोवांछित लोकों में भेजने का क्या कारण है? बताइए।
यमराज ने कहा - गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकांतसेवी, ममता रहित, शांत, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे। प्रतिदिन गीता के पांचवें अध्याय का जप करना उनका सदा का नियम था। पांचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे उन्हें महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गए हो। अतः अब तुम दोनों मनोवांछित लोकों को जाओ क्योंकि गीता के पांचवें अध्याय के माहत्म्य  से तुम दोनों शुद्ध हो गए हो श्री भगवान कहते हैं - सब के प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाएं जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर बैकुंठधाम को चले गए।

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