गरुड़ ने कहा- हे उपेंद्र! आप मुझे उन नरको का स्वरूप और भेद बताये, जिनमे जाकर पापीजन अत्यधिक दुःख भोगते है।
श्रीभगवान ने कहा- हे अरुण के छोटे भाई
गरुड़! नरक तो हजारों है। सभी को विस्तृत रूप में बताना सम्भव नही है। अतः मैं आपको मुख्य मुख्य नरको को बता रहा हूँ।
हे पक्षीराज ! तुम मुझसे यह जान लो की 'रौरव' नामक नरक अन्य सभी की अपेक्षा प्रधान है। झूठी गवाही देने वाला और झुठ बोलने वाला व्यक्ति रौरव नरक में जाता है। इसका विस्तार दो हजार योजन है। जांघ भर की गहराई में वहाँ दुस्तर गड्ढा है। दहकते हुए अंगारो से भरा हुआ वह गड्ढा पृथ्वी के समान बराबर(समतल भूमि-जैसा) दिखता है। तीव्र अग्नि से वहाँ की भूमि भी तप्तआँगर जैसी है। उसमें यम के दूत पापियो को डाल देते हैं। उस जलती हुई अग्नि से संतप्त होकर पापी उसी में इधर उधर भागता है। उसके पैरों में छाले पड़ जाते हैं, जो फूट कर बहने लगते हैं। रात दिन वह पापी पैर उठा उठा कर चलता है।इस प्रकार जब वह उस नरक का विस्तार पार कर लेता है, तब उसे पाप की शुद्धि के लिये उसी प्रकार के दूसरे नरक में भेजा जाता है।
है पक्षीराज! इस प्रकार मैने तुम्हे रौरव नामक प्रथम नरक की बात बता दी। अब तुम महारौरव नरक की बात सुनो। यह नरक पाँच हजार योजन में फैला हुआ है।
वहाँ की भूमि ताँवे के समान वर्ण वाली है।उसके नीचे अग्नि जलती रहती है। वह भूमि विद्युत-प्रभा के समान कांतिमान है। देखने मे वह पापियों को महाभयंकर प्रतीत होती है। यमदूत पापी व्यक्ति के हाथ-पैर बाँधकर उसे उसी में लुढ़का देते हैं और वह लुढ़कता हुआ उसी में चलता है। मार्ग में कौआ, बगुला, भेड़िया, उलूक, मच्छर और बिच्छू आदि जीव-जंतु क्रोधातुर होकर उसे खाने के लिए तत्पर रहते हैं। वह उस जलती हुई भूमि एवं भयंकर जीव-जंतुओं के आक्रमण से इतना संतप्त हो जाता है कि उसकी बुद्धि ही भृष्ट हो जाती है। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगता है तथा बार बार उस कष्ट से बेचैन हो उठता है। उसको वहाँ कही पर भी शांति नही प्राप्त होती। इस प्रकार उस नरकलोक के कष्ट को भोगते हुये पापी के जब हजारो वर्ष बीत जाते हैं, तब कही जाकर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
इसके बाद जो नरक है उसका नाम 'अतिशीत' है। यह स्वभावतः अत्यंत शीतल है। महारौरव नरक के समान ही उसका विस्तार भी बहुत लंबा है। वह गहन अंधकार से व्याप्त रहता है। असहाय कष्ट देने वाले यमदूतों के द्वारा पापिजन लाकर यहां बाँध दिये जाते है। अतः वे एक दूसरे का आलिंगन करके वहाँ की भयंकर ठंडक से बचने का प्रयास करते हैं। उनके दांतो में कटकटाहट होने लगती है। हे पक्षीराज ! उनका शरीर वहाँ की उस ठंडक से काँपने लगता है। वहाँ भूख-प्यास बहुत अधिक लगती है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें वहाँ अनेक कष्टो का सामना करना पड़ता है। वहाँ हिमखंड का वहन करने बाली वायु चलती हैं, जो शरीर की हड्डियों को तोड़ देती है। वहां के प्राणी भूख से त्रस्त होकर मज्जा, रक्त और गल रही हड्डियों को खाते हैं। परस्पर भेट होने पर वे सभी पापी एक दूसरे का आलिंगन कर भ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार उस तमसावृत्त नरक में मनुष्य को बहुत से कष्ट झेलने पड़ते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! जो व्यक्ति अन्यान्य असंख्य पाप करता है वह इस नरक के अतिरिक्त 'निकृन्तन' नाम से प्रसिद्ध दूसरे नरक में जाता है। हे खगेन्द्र ! वहाँ अनवरत कुम्भकार के चक्र के समान चक्र चलते रहते हैं, जिनके ऊपर पापिजनो को खड़ा करके यम के अनुचरो के द्वारा अँगुली में स्थित कालसूत्र से उनके शरीर को पैर से लेकर शिरोभाग तक छेदा जाता है। फिर भी उनका प्राणान्त नही होता। इसमें शरीर के सैकड़ों भाग टूटकर छिन्न -भिन्न हो जाते हैं और पुनः इक्कठे हो जाते हैं। इस प्रकार यमदूत पापकर्मियो को वहाँ हजारो वर्ष तक चक्कर लगवाते है। जब सभी पापो का विनाश हो जाता हैं, तब कही जाकर उन्हें उस नरक से मुक्ति प्राप्त होती है।
अप्रतिष्ट नामका एक अन्य नरक है वहाँ जाने वाले प्राणी असहाय दुख का भोग भोगते है। वहाँ पापकर्मियो के दुख के हेतुभूत चक्र और रहट लगे रहते हैं। जबतक हजारो वर्ष पूरे नही हो जाते, तबतक वह रुकता नही। जो लोग उस चक्र पर बाँधे जाते हैं, वे जल के घट की भाँति उस पर घूमते रहते है। पुनः रक्त का वमन करते हुए उनकी आंते मुख की ओर से हाहर आ जाती है और नेत्र आँतो में घुस जाते हैं। प्राणियों को वहाँ जो दुख प्राप्त होते हैं, वे बड़े ही कष्टकारी है।
हे गरुड़ ! अब 'असिपत्रवन' नामक दूसरे नरक के बारे में सुनो। यह नरक एक हजार योजन में फैला हुआ है। इसकी सम्पूर्ण भूमि अग्नि से व्याप्त होने के कारण अहनिश जलती रहती हैं। इस भयंकर नरक में सात-सात सूर्य अपनी सहस्त्र-सहस्त्र रश्मियों के साथ सदैव तपते रहते हैं, जिनके संताप से वहाँ के पापी हर क्षण जलते ही रहते हैं। इसी नरक के मध्य एक चौथाई भाग में 'शीतस्निग्धपत्र' नाम का एक वन है। है पक्षिश्रेष्ठ ! उसमे वृक्षों से टूटकर गिरे फल और पत्तो के ढेर लगे रहते हैं। मांसाहारी बलवान कुत्ते उसमे विचरण करते रहते है। वे बड़े -बड़े मुख वाले, बड़े-बड़े दांतो वाले तथा व्याघ्र की तरह महाबलवान है। अत्यंत शीत एवं छाया से व्याप्त उस नरक को देखकर भूख - प्यास से पीड़ित प्राणी दुखी होकर करुण क्रंदन करते हुए वहाँ जाते हैं। ताप से तपती हुई पृथ्वी की अग्नि से उनके दोनों पैर जल जाते हैं, अत्यंत शीतल वायु बहने लगती है, जिसके कारण उन पापियों के ऊपर तलवार के समान तीक्ष्ण धार वाले पत्ते गिरते हैं। जलते हुए अग्नि समूह से युक्त भूमि में पापिजन छिन्न -भिन्न होकर गिरते हैं। उसी समय वहाँ के रहने वाले कुत्तों का आक्रमण भी उन पापियों पर होने लगता है। शीघ्र ही वे कुत्ते रोते हुए उन पापियों के शरीर के माँस को खण्ड- खण्ड करके खा जाते हैं।
हे तात ! असिपत्रवन नामक नरक के विषय को मैने बता दिया। अब तुम महाभयानक 'तृप्तकुम्भ' नामक नरक का वर्णन मुझसे सुनो- इस नरक में चारो ओर फैले हुए अत्यंत गरम-गरम घड़े है। इनके चारो ओर अग्नि प्रज्वलित रहती है, वे उबलते हुये तैल और लौह के चूर्ण से भरे रहते हैं। पापियों को ले जाकर उन्ही में औधे मुख डाल दिया जाता है। गलती हुई मज्जारूपी जल से युक्त उसी में फूटते हुए अङ्गों वाले पापी काढ़ा के समान बना दिये जाते हैं। तदन्तर भयंकर यमदूत नुकीले हथियारों से उन पापियों की खोपड़ी, आँखों तथा हड्डियों को छेड़कर नष्ट करते हैं। गिद्द उनपर बड़ी तेजी से झपट्टा मारते हैं। उन उबलते हुए पापियो को अपनी चोंच से खीचते है और फिर उसी में छोड़ देते हैं। उसके बाद यमदूत उन पापियों के सिर, स्नायु, द्रवीभूत माँस, त्वचा आदि को जल्दी-जल्दी करछुल से उसी तेल में घूमते हुए उन पापियों का काढ़ा बना डालते हैं।
हे पक्षिन ! यह तप्तकुम्भ-जैसा है उस बात को विस्तार पूर्वक मैने तुम्हें बता दिया। सबसे पहले नरक को रौरव और दूसरे को महारौरव नरक कहा जाता है। तीसरे का नाम अतिशीत एवं चौथे नरक का नाम निकृन्तन है। पाँचवाँ नरक अप्रतिष्ठ, छठा असिपत्रवन एवं सातवाँ तप्तकुम्भ है। इस प्रकार ये सात प्रमुख नरक हैं। अन्य भी बहुत सारे नरक सुने जाते हैं जिनमे पापी अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं। यथा -रोध, सूकर, ताल, तप्तकुम्भ, महाज्वाल, शबल, विमोहन, कृमि, क्रमिभक्ष, लालभक्ष, विषजन, अधःशिर, पुयवह, रुधिरान्ध, विड्भुज, वैतरणी, असिपत्रवन, अग्निज्वाल, महाघोर, संदंश, अभोजन, तमसु, कालसूत्र, लौहतापी, अभिद, अप्रतिष्ठ, तथा अवोचि आदि। ये सभी नरक यम के राज्य में स्थित है। पापिजन पृथक-पृथक रूप से उसमे गिरते हैं। रौरव आदि सभी नरको की अवस्थित इस पृथ्वीलोक से नीचे मानी गयी है। जो मनुष्य गौ की हत्या, भ्रूणहत्या और आग लगने का दुष्कर्म करता है, वह रोध नामक नरक में गिरता है। जो ब्रम्हाघती, मद्धपी तथा सोने की चोरी करता है, वह सूकर नामक नरक में गिरता है। क्षत्रिय और वैश्य की हत्या करने वाला 'ताल' नामक नरक में गिरता है।
जो मनुष्य ब्रम्हाहत्या एवं गुरुपत्नी तथा बहन के साथ सहवास करने की दुसचेष्ठा करता है वह तप्तकुम्भ नामक नरक में जाता है। जो असत्य-सम्भाषण करने वाले राजपुरुष है उनको भी उक्त नरक की प्राप्ति होती है। जो प्राणी निषिद्ध पदार्थों का विक्रेता, मदिरा का व्यापारी है तथा स्वामिभक्त सेवक का परित्याग करता है, वह तप्तलौह नामक नरक को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति कन्या या पुत्रवधू के साथ सहवास करने वाला है, जो वेद-विक्रेता और वेदनिन्दक हैं, वह अंत मे 'महाजवाल' नामक नरक का वासी होता है। जो गुरु का अपमान करता है, शब्दबाण से उनपर प्रहार करता है तथा अगम्या स्त्री के साथ मैथुन करता है वह 'शबल' नामक नरक में गिरता है।
शोर्य-प्रदर्शन में जो वीर मार्यादा का परित्याग करता है वह 'विमोहन' नामक नरक में जाता है। जो दूसरे का अनिष्ट करता है वह उसे 'क्रमिभक्ष' नामक नरक की प्राप्ति होती है। देवता और ब्राम्हण से द्वेष रखने वाला प्राणी 'लालाभक्ष' नरक में जाता है। जो परायी धरोहर का अपहर्ता है तथा जो बाग बगीचों में आग लगता है, उसे 'विषजन्' नामक नरक की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य असत-पात्र से दान लेता है तथा असत प्रतिग्रह लेनेवाला, अयाज्य्याजक और जो नक्षत्र से जीविका उपार्जन करता है वह मनुष्य 'अधःशिर' नामक नरक में जाता है। जो मदिरा माँस आदि का विक्रेता है वह 'पुयवह' नामक घोर नरक में गिरता है। जो कुक्कुट, बिल्ली, सुअर, पक्षी, मृग, भेड़ को बांधता है, वह भी उसी प्रकार के नरक में जाता है। जो ग्रहदाही हैं, बिषदाता है, जो कुड्डाशी हैं, जो सोम विक्रेता है, जो मद्धपी हैं, जो माँस भोजी है तथा जो पशुहंता हैं, वह व्यक्ति 'रुधिरान्ध' नामक नरक में जाता है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। एक ही पंक्ति में बैठे हुए किसी प्राणी को धोखा देकर जो लोग विष खिला देते हैं उन सभी को 'विड्भुज' नामक घोर नरक प्राप्त होता है। मधु निकलने वाला मनुष्य 'वैतरणी' और क्रोधी 'मुत्रसंज्ञक' नामक नरक में जाता है। अपवित्र और क्रोधी 'असिपत्रवन' नामक नरक में जाता है। मृगों का शिकार करने वाला व्याध 'अग्निज्वाल' नामक नरक में जाता है, जहाँ उसके शरीर को कौवे नोच- नोच कर खाते हैं।
यज्ञकर्म में दीक्षित होने पर जो व्रत का पालन नही करता उसे उस पाप से 'संदंश' नरक में जाना पड़ता है। यदि स्वपन में भी संन्यासी या ब्रम्हचारी स्खलित हो जाते है तो वे 'अभोजन' नरक में जाते हैं। जो लोग क्रोध और हर्ष से भरकर वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध कर्म करते हैं उन सबको नरकलोक की प्राप्ति होती है।
सबसे ऊपर भयंकर गर्मी से संतप्त रौरव नामक नरक है। उसके नीचे अत्यंत दुखदायी महारौरव है। उस नरक से नीचे शीतल और उस नरक के बाद नीचे तामस नरक माना गया है। इसी प्रकार बताए गए क्रम में अन्य नरक भी नीचे ही है।
इन नरकलोको के अतिरिक्त भी सैकड़ों नरक है, जिन में पहुँचकर पापी प्रतिदिन पकता है, जलता है, गलता है, विदीर्ण होता है, चुर्ण किया जाता है, गीला होता है, क्वाथ बनाया जाता हैं, जलाया जाता हैं और कहि वायु से प्रताड़ित किया जाता है- ऐसे नरको में एक दिन सौ वर्ष के समान होता है। सभी नरको से भोग भोगने के बाद पापी तिर्यक- योनी में जाता है। ततपश्चात उसको कृमि, कीट, पतंग स्थावर तथा एक खुर वाले गधे की योनि प्राप्त होती है। तदन्तर मनुष्य जंगली हाथी आदि की योनि में जाकर गौ की योनि में पहुँचता है। हे गरुड़ ! गधा, घोड़ा, खच्चर, गौर मृग, शरभ और चमरी- ये छः योनियाँ एक खुर वाली होती है। इसके अतिरिक्त बहुत सी पापाचार-योनियाँ भी है, जिनमे जीवात्मा को कष्ट भोगना पड़ता है। उन सभी योनियों को पाकर प्राणी मनुष्य योनि में आता है और कुबड़ा, कुत्सित, वामन, चाण्डाल और पुलकश आदि नर योनियों में जाता है। अवशिष्ट पाप-पुण्य से समन्वित जीव बार-बार गर्व में जाते है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उन सभी पापो के समाप्त हो जाने के बाद प्राणी को सूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय आदि को आरोहिणी -योनि प्राप्त होती है। कभी-कभी वह सत्कर्म से ब्राम्हण, देव और इन्द्रत्व के पद पर भी पहुँच जाता है।
हे गरुड़ ! यम द्वारा निदिष्ट योनि में पुण्यगति प्राप्त करने में जो प्राणी सफल हो जाते है, वे सुन्दर-सुन्दर गीत गाते, वाद्य बजाते और नृत्य आदि करते हुए प्रसन्नचित गंधर्वो के साथ, अच्छे से अच्छे हार, नूपुर आदि नाना प्रकार के आभूषणों से युक्त चन्दन आदि की दिव्य सुगंध और पुष्पों के हार से सुवासित एवं अलंकृत चमचमाते हुए विमान में स्वर्ग लोक को जाते हैं। पूण्य-समाप्ति के पश्चात जब वहाँ से पुनः पृथ्वी लोक पर आते हैं तो राजा अथवा महात्माओ के घर मे जन्म लेकर सदाचार का पालन करते हैं। समस्त भोगो को प्राप्त करके पुनः स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। अथवा पहले के समान आरोहिणि-योनि में जन्म लेकर दुःख भोगते हैं।
मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्राणी कि मृत्यु तो निश्चित है। पापियों का जीव अधोमार्ग से निकलता है। तदन्तर पृथ्वीतत्व में पृथ्वी, जलतत्व में जल, तेजतत्व में तेज, वायुतत्व में वायु, आकाशतत्व में आकाश तथा सर्वव्यापी मन चंद्र में जाकर विलीन हो जाता है। हे गरुड़ ! शरीर मे काम, क्रोध एवं पंचीन्द्रियाँ है। इन सभी को शरीर का चोर की संज्ञा दी गयी है। काम क्रोध और अहंकार नामक विकार भी उसी में रहने वाले चोर है। उन सभी का नायक मन है। इस शरीर का संहार करने वाला काल है। जो पाप ओर पूण्य से जुड़ा रहता है। जिस प्रकार घर जल जाने पर हम दूसरे घर मे शरण लेते हैं, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियों से युक्त जीव इन्द्रियाधिष्ठात देवताओं के साथ शरीर का परित्याग कर नए शरीर मे प्रविष्ट हो जाता है। शरीर मे रक्त-मज्जादि सात धातुओं से युक्त यह षटकौशिक शरीर है। सभी प्राण, अपान आदि पञ्च वायु, मल-मूत्र, व्याधियाँ, पित्त, श्लेष्म, मज्जा, माँस, मेदा अस्थि, शुक्र और स्नायु- ये सभी शरीर के साथ ही अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं।
हे ताक्षरिय! प्राणियों के विनाश को मैने तुम्हे बता दिया। अब उनके इस शरीर का जन्म पुनः कैसे होता है, उसको मैं तुम्हे बता रहा हूँ।
यह शरीर नसों से आबद्ध, श्रोत्रादिक, इंद्रियों से युक्त और नवद्वारों से समन्वित है। यह सांसारिक विषय वासनाओ के प्रभाव से व्याप्त, काम-क्रोधादि विकार से समन्वित, राग-द्वेष से परिपूर्ण तथा तृष्णा नामक भयंकर चोर से युक्त है। यह लोभ रूपी जाल में फंसा हुआ है। यह माया से भलीभाँति आबद्ध एवं लोभ से अधिष्ठित पुर के समान है। सभी प्राणियों का शरीर इनसे व्याप्त है। जो लोग अपनी आत्मा को नही जानते हैं, वे पशुओ के समान है।
हे गरुड़! चौरासी लाख योनियाँ है और उद्भिज्ज ( पृथ्वी में अंकुरित होनेवाली वनस्पतियाँ) स्वेदज (पसीने से जन्म लेनेवाले जुएँ और लीख आदि कीट), अंडज (पक्षी) तथा जरायुक्त (मनुष्य)- में यह सम्पूर्ण सृष्टि विभक्त है। ( गरुड़ पुराण-अध्याय-३ )
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