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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

वासन्तिक नवरात्र

चैत्र, आषाढ, आश्विन, औऱ माघ के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के ९ दिन नवरात्र कहलाते हैं। इस प्रकार एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं, इनमें चैत्र का नवरात्र 'वासन्तिक नवरात्र' और अश्विन का नवरात्र 'शारदीय नवरात्र' कहलाता है। इनमे आदि शक्ति भगवती दुर्गा की पूजा की जाती है।
*पूजा विधि*
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से पूजन प्रारंभ होता है। 'सममुखी' प्रतिपदा शुभ होती है अतः वही ग्राह्य है। अमायुक्त प्रतिपदा में पूजन नही करना चाहिये। सर्वप्रथम स्वंय स्नान आदि से पवित्र हो, गोमय से पूजा-स्थान का लेपन कर उसे पवित्र कर लेना चाहिये। ततपश्चात घट-स्थापन करने की विधि है। घट-स्थापन प्रातः काल करना चाहिये। परंतु चित्रा या वैधृति योग हो तो उस समय घट- स्थापन न कर मध्याह्न में अभिजित आदि शुभ मुहूर्त में घट-स्थापन करना उचित है।
यह नवरात्र स्त्री-पुरूष-दोनो कर सकते हैं। यदि स्वंय न कर सके तो पति, पत्नी, पुत्र या ब्राम्हण को प्रतिनिधि बनाकर व्रत पुर्ण कराया जा सकता है। व्रत में उपवास, अयाचित ( बिना माँगे प्राप्त भोजन), नक्त ( रात में  भोजन करना) या एकभुक्त (एक बार भोजन करना)-जो बन सके यथासामर्थ्य वह करे।
यदि नवरात्रों में घट-स्थापन के बाद सूतक (अशौच) तो कोई दोष नही लगता, परंतु पहले हो जाये तो पूजनादि स्वंय न करे।
घट स्थापन के लिये पवित्र मिट्टी से वेदी का निर्माण करे, फिर उसमें जौ और गेहूं बोये तथा उसपर यथाशक्ति मिट्टी, ताँबा, चाँदी, या सोने का कलश स्थापित करे।
यदि पूर्ण विधिपूर्वक करना हो तो पंचांग पूजन (गणेशाम्बिका, वरुण, षोडशमातृका, सप्तघृतमातुका,नवग्रह आदि देवो का पूजन) तथा पुण्याहवाचन ब्राम्हण द्वारा कराये अथवा स्वयं करे।
इसके बाद कलश पर देवी की मूर्ति स्थापित करे तथा उसका षोडशोपचार पूर्वक पूजन करे। तदनंतर श्रीदुर्गासप्तशती का सम्पुट अथवा साधारण पाठ भी करने की विधि है।
पाठ की पूर्णाहुति के दिन दशांश हवन अथवा दशांश पाठ करना चाहिये।
*दीपक-स्थापन*
पूजा के समय घृत का दीपक बी जलाना चाहिये तथा उसकी गंध, अक्षत, पुष्प आदि से पूजा करे।
कुछ लोग अपने घरों में दीवार पर अथवा काष्टपट्टिका पर अंकित चित्र बनाकर इस चित्र की तथा घृत दीपक द्वारा अग्नि से प्रज्वलित ज्योति की पूजा अष्टमी अथवा नवमी तक करते हैं।
*कुमारी-पूजन*
कुमारी पूजन नवरात्र व्रत का अनिवार्य अंग है। कुमारिकाएँ जगज्जननी जगदम्बा का प्रत्यक्ष विग्रह है।
सामर्थ्य हो तो ९ दिन तक ९ अथवा सात, पाँच, तीन या एक कन्या को देवी मानकर पूजा करके भोजन करना चाहिये। इसमें ब्राम्हण कन्या को प्रशस्त माना गया है। आसन बिछाकर गणेश, वटुक तथा कुमारियों को एक पंक्ति में बिठाकर पूजन करे।
                     *विसर्जन*
नवरात्री व्यतीत होने पर दसवे दिन विसर्जन करना चाहिये। विसर्जन से पूर्व भगवती दुर्गा का गंध, अक्षत, पुष्प, आदि से पूजन करे।
             *शक्तिधर की उपासना*
चैत्र नवरात्रि में शक्ति के साथ शक्तिधर की भी उपासना की जाती है। एक ओर जहां देवी भागवत, कालिका पुराण, और मार्कण्डेय पुराण, का पाठ होता है, वही दूसरी ओर श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एवं आध्यत्मरामायण का भी पाठ होता है। इसलिए यह नवरात्र देवी नवरात्र के साथ साथ रामनवरात्र के नाम से भी प्रसिद्ध है।

एकादशी व्रत एवं जागरण- माहात्म्य

सभी वैष्णव सम्प्रदायो में एकादशी व्रत का वर्णन मिलता हैं। यहाँ तक कि जो वैष्णव नही है वे भी किसी न किसी रूप में एकादशी व्रत की मान्यता रखते है। इस संदर्भ में श्रीशुकसम्प्रदाय आचार्यपीठ श्रीसरनिकुंज दरीबापान, जयपुर के पीठाधीश्वर श्री सरस् माधुरी जी महाराज ने श्री सुकसम्प्रदाय सिद्धान्त चंद्रिका में  कई ग्रंथो से संग्रह कर इस प्रकार लिखा है-
ग्यारस व्रत में ऐसे रहिये।
जैसे धर्म नीक को चहिये।।
साँचा व्रत बताऊँ तोही।
गुरु शुकदेव बताया मोही।।
नवमी नेम करे चित्त लाई।
दशमी संयमयुक्त बताई।।
ग्यारस व्रत बताऊँ नीका।
सबही व्रत शिरोमणि टीका।।
निर्जल करै नीर नही परसै।
पोह फाटे जब सूर्य दरसै।।
एक पहर के तड़के जागै।
जबही सुमरण करने लागै।।
करे विचार शुद्ध कर काया।
जाकर बैठे भजन मझाया।।
कोठे के पट देकर राखे।
नर नारी सों बचन न भाखै।।
कुंड काढ़ बैठे तिही माही।
ताके बाहर निकसे नाही।।
कर आवाहन आसन मारे।
व्रत करै वैराग्य ही धारे।।
जप गुरु मंत्र औऱ हरि ध्याना।
जाको नेक नही विसराना।।
जो तेरे गुरु ने कहा, जाका कर तू ध्यान।
बैठो अस्थिर नो पहर, करो व्रत पहचान।।
व्रत करे त्योहार सा, नाना रस के स्वाद।
भोग करे तप न करे, सब करनी बरबाद।।
पांचो इंद्री व्रत करीजै।
पलक झाप नैनन पट दीजै।।
इत उत मनवा नाही चलावे।
आँखन को नही रूप दिखावे।।
श्रवण शब्द न खइये भाई।
त्वचा स्पर्श न अंग लगाई।।
षटरस स्वाद न जिव्या दीजै।
नासा गंध सुगंध न लीजै।।
ऐसा व्रत करे सो वर्ता।
मुक्त होय ग्यारस का कर्ता।।
ऐसा बरत उतारे पारा।
छोना तिरत लगे नही बारा।।
बहुर द्वादसी बाहर आवे।
अपनी श्रद्धा द्विज भुगतावे।।
संक्षेप में भाव यह है कि नवमी को व्रत का नियम लेकर दशमी को संयमपूर्वक रहना चाहिए और एकादशी को निर्जलव्रत रखना चाहिये। यह एकादशी व्रत व्रतों में शिरोमणि स्वरूप है। इस दिन प्रातः काल ही उठकर भगवान का स्मरण करना चाहिए, विचारो को शुद्ध रखना चाहिये।
इसदिन संयम नियम धारण कर वैराग्य पूर्वक रहे। किसी से कोई सम्बन्ध न रखकर एकांत में निवासकर भगवान का ध्यान करे।गुरु द्वरा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करें।
भोग-विलास से सर्वथा दूर रहे, इससे व्रत भंग हो जाता है।
अपनी पांचो इंद्रियों को उनके विषयो से दूर रखकर संयमपूर्वक रहे औऱ द्वादशी को व्रत का पारण करे।
पूर्वकाल में राजा अम्बरीष महाभागवत हो चुके हैं। उनका एकादशी व्रत का अनुष्ठान प्रसिद्ध ही है। भागवत में कहा गया है-
आरिराधयिषु: कृष्णम महिष्या तुल्यशीलया।
युक्तः साँवत्सरम वीरो दधार द्वादशीव्रतं।।
(श्रीमद्भागवत ९।४।२९)
श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये राजा अम्बरीष ने आपने समान शीलवती रानी के साथ वर्षपर्यन्त द्वादशी प्राधन एकादशी व्रत धारण किया।
एकादशी के दिन अन्न-ग्रहण का तथा श्राद्ध का निषेध है, यहाँ तक की प्रसाद में भी अन्न ग्राह्य नही है।
श्री नन्दराय जी ने एकादशी के दिन निराहार रहकर जनार्दन भगवान का पूजन किया, फिर द्वादशी के दिन स्नान करने के लिये कालिंदी के जल में प्रवेश किया-
एकादश्याम निराहार: सम्भयचर्य जनार्दज्म।
सन्नतुम नन्दस्तु कालिन्धा द्वादश्याम जलमाविशत।।(श्रीमद्भागवत १०।२८।१)
एकादशी के दिन नैमित्तिक श्रद्धा हो तो द्वादशी के दिन करे-
एकादश्याम यदा राम श्राद्धम नैकित्तिकम भवेत।
तधिम तु परित्यज द्वादश्याम श्राद्धमाचरेत।।
                                      (पद्म पुराण)
ब्रम्हाण्डपुराण में बताया गया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन उपवास पूर्वक विविध उपचारों से भगवान श्रीहरि का पूजन करता है, संयम नियम से रहता है। रात्रि जागरण करता है और भगवान की आरती उतरता है, वह व्यक्ति भगवान का प्रिय पात्र बन जाता है। अतः एकादशी व्रत का यथा विधि अवश्य पालन करना चाहिए। रात्रि जागरण तथा हरि कीर्तन की विशेष महिमा है।


शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

व्रतपर्वोत्सव-- एक समीक्षा

व्रत पर्व औऱ उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन है, इसमें आनंदोल्लास के साथ ही हमे उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती हैं। वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव आनंद से ही है और और यह सृष्टि आनंद में ही स्थित भी है। भारतीय पर्वो के मूल में इसी आनंद और उल्लास का पूर्ण समावेश है। दुख, भय, शोक, मोह तथा अज्ञान की आत्यंतिक निवृति औऱ अखण्ड आनंद की प्राप्ति ही इन व्रतपर्वोत्सवो का लक्ष्य है। यही कारण है कि ये व्रत और पर्व प्राणी को अंतर्मुख होने की प्रेरणा करते हैं। स्नान, पूजन, जप, दान, हवन तथा ध्यान आदि कृत्य एक प्रकार के व्रत है। इसमें प्रत्येक मनुष्य की बाह्य वृत्ति को अंतर्मुख करने में समर्थ है।
* व्रत  *
व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है।
व्रतों में तीन बातों की प्रधानता है--१-- संयम नियम का पालन, २--देवाराधन तथा ३-- लक्ष्य के प्रति जागरूकता। व्रतों से अन्तःकरण की शुद्धि के साथ साथ बह्य वातावरण में भी पवित्रता आती है। तथा संकल्पशक्ति में भी दृढ़ता आती है। इनसे मानसिक शान्ति औऱ ईश्वर की भक्ति भी प्राप्त होती है। भौतिक दृष्टि से स्वास्थ्य में भी लाभ होता है अर्थात रोगों की आत्यंतिक निवृत्ति होती है। यद्यपि रोग भी पाप है और ऐसे पाप व्रतों से ही दूर होते हैं तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित सभी प्रकार के पाप, उपपाप, औऱ महापापादि भी व्रतों से दूर होते हैं।
--व्रतों के भेद- व्रत दो प्रकार से किए जाते हैं १- उपवास अर्थात निराहार रहकर और २- एक बार संयमित आहार के द्वारा। इन व्रतों के कई भेद है- १-कायिक- हिंसा आदि के त्याग को कायिक व्रत कहते हैं। २- वाचिक-कटुवाणी, पिशुनता(चुगली) तथा निंदा का त्याग और सत्य परिमित तथा हितयुक्त माधुर भाषण 'वाचिकव्रत' कहा जाता है। ३- मानसिक- काम, क्रोध, मद, मात्सर्यं, इर्ष्या, तथा राग- द्वेष आदि से रहित रहना 'मानसिकव्रत' है।
मुख्य रूप से हमारे यहाँ तीन प्रकार के व्रत माने गए है--१- नित्य, २ नैमित्तिक और ३-काम्य। नित्य वे व्रत है जो भक्तिपूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कार्तव्यभाव से किए जाते हैं। एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा आदि व्रत इसी प्रकार के है। किसी निमित्त से जो व्रत किये जाते हैं वे नैमित्तिकव्रत कहलाते हैं। पापक्षय के निमित्त चांद्रायण, प्राजापत्य आदि व्रत इसी कोटि में है। किसी विशेष कामना को लेकर जो व्रत किये जाते हैं वे 'काम्यव्रत' कहे जाते हैं। कन्याओं द्वारा वर प्राप्ति के लिए किये गए गौरीव्रत, वटसावित्रीव्रत आदि काम्यव्रत है। इसके अतिरिक्त भी व्रतों के एकभुक्त, अयाचित तथा मितभुक और नक्तव्रत आदि कई भेद है।
*व्रतों के अधिकारी*
धर्मशास्त्रों के अनुसार अपने वर्णाश्रम के आचार-विचार में रत रहने वाले, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी, सम्पूर्ण प्राणियों का हित चाहने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान तथा पहले से निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले व्यक्ति ही वृताधिकारी होते हैं।
उपयुक्त गुण सम्पन्न ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्री और पुरूष सभी व्रत के अधिकारी है।*सौभाग्यवती स्त्री के लिये पति की अनुमति से ही व्रत करने का विधान है।
यथाविधि व्रतों के समाप्त होने पर अपने सामर्थ्य अनुसार व्रत का उद्यापन भी करना चाहिये। उद्यापन करने पर ही व्रत की सफलता है।
व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है जो शुद्ध सरल औऱ सात्विक हो तथा उनका विशेष मनोयोग तथा निष्ठापूर्वक पालन किया जाये। कुछ लोग व्यवहारिक जीवन मे सत्य बोलने का प्रयास करते है औऱ सत्य का आचरण भी करते हैं, परंतु कभी कभी उनके जीवन मे कुछ ऐसे क्षण आ जाते हैं कि लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्हें असत्य का आश्रय लेना पड़ता है तथा वे उन क्षणों में झूठ भी बोल जाते हैं। इस प्रकार वे व्यक्ति सत्यव्रती नही  कहे जा सकते। अतः आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियो न छोड़ना व्रत है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर जीवन व्यतीत करने का अभ्यास ही व्रत है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठ कर्मो के सम्पादन की योग्यता आती हैं, कठिनाइयों में आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है, आत्मविश्वास दृढ़ होता हैं और अनुसासन की भावना विकसित होती है। आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक कक्षा व्रत पालन ही है। इसी से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। व्रताचरण से मानव महान बनता हैं।
*पर्वोत्सव*
भरतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सव के आनंद एवं उल्लास से परिपूर्ण हो इन पर्वो में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए है। आज भी अनेक विघ्न बाधा ओ के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की सम्पूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है। इसका एकमात्र श्रेय हमारी परम्पराओं को ही है। ये पर्व समय- समय पर सम्पूर्ण समाज को नयी चेतना प्रदान करते हैं तथा जीवन की नीरसता को दूर करके जीवन मे उल्लास भरते हैं और उत्तरदायित्वो का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
पर्व का शाब्दिक अर्थ है- गाँठ अर्थात संधिकाल।
हिन्दू पर्व सदा संधिकाल में ही पड़ते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी तथा संक्रांति आदि को शास्त्रों में पर्व कहा गया है। शुक्लपक्ष की तथा कृष्णपक्ष की संध्यावेलाओ में से अमावस्या तथा पूर्णिमा पर्व है। सूर्य संक्रमण में परिवर्तन होने से संक्रांति भी पर्व है। दैनिक जीवन में प्रातः मध्यान तथा संध्याकाल- त्रिकाल की संध्या भी संधिकाल में होने के कारण पर्व के रूप में अभिहित है।
*पर्वो के भेद*
१-दिव्यपर्व, 
२-देवपर्व
३-पितृपर्व
४-कालपर्व
५-जयंतिपर्व
६-प्राणिपर्व
७-वनस्पतिपर्व
८-मानवपर्व
९-तीर्थपर्व
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साथियों आज के अंक में हम भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल के बारे में जानकारी देंगे जहां पर Indian tourist के अलावा all world से tourist भी काफी स...