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शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का हिंदी अनुवाद

उसके उपरांत अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण !आप कर्मों के सन्यास की और फिर निष्काम कर्म योग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याण कारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए।।१।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! कर्मों का संन्यास (अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग) और निष्काम कर्मयोग (अर्थात समत्व बुद्धि से भगवत अर्थ कर्मों का करना) यह दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्म के संन्यास से निष्काम कर्म योग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।।२।। इसलिए हे अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है वह निष्काम कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित हुआ पुरुष सुख पूर्वक संसार रूप बंधन से मुक्त हो जाता है।।३।। हे अर्जुन ! ऊपर कहे हुए सन्यास और निष्काम कर्म योग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं न कि पंडित जन, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल रूप परमात्मा को प्राप्त होता है।।४।। ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगीओं द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और निष्काम कर्मयोग को फल रूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।।५।। परंतु हे अर्जुन ! निष्काम कर्म योग के बिना, सन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भागवत स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।।६।।
वश में किया हुआ है शरीर जिसके  ऐसा जितेंद्रीय और विशुद्ध अंतःकरणवाला एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्कामकर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।।७।। हे अर्जुन ! तत्व को जानने वाला कर साख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सुनता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, तथा आंखों को खोलता और मीचता हुआ भी सब इंद्रियां अपने अपने अर्थो में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।।८-९।।
परंतु हे अर्जुन देशहाभिमानीओं द्वारा यह साधन होना कठिन है और निष्काम कर्मयोग सुगम है, क्योंकि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।।१०।। इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धि रहित केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी असक्ती को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।११।।
इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामी  पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है, इसलिए निष्काम कर्मयोग उत्तम है।।१२।।
हे अर्जुन ! वश में है अंतः करण जिसके ऐसा सांख्योग का आचरण करने वाला पुरुष तो निसंदेह न करता हुआ  न करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती है ऐसा मानता हुआ आनंद पूर्वक सच्चिदानंद घन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।।१३।।
परमेश्वर भी भूत प्राणियों के न कर्तापन और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है, किंतु परमात्मा के सकाशसे प्रकृति ही बर्तती है अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।।१४।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।।१५।। परंतु जिनका वह अंतःकरणका अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है (अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को साक्षात् कराता है)।।१६।।
हे अर्जुन ! तद्रूप है बुद्धि जिसकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही है निरंतर एकीभाव से स्थिति जिसकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित  हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं।।१७।।
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।।१८।।
इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया (अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं) क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है।।१९।। जो पुरुष प्रिय को अर्थात जिस को लोग प्रिय समझते हैं उस को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को अर्थात जिसको लोग अप्रिय समझते हैं उसको प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिरबुद्धि, संशय रहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।।२०।।
बाहर के विषयों में अर्थात सांसारिक भोगों में आसक्ति रहित अंतःकरण वाला पुरुष अंतः करण में जो भागवत ध्यान जनित आनंद है उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।।२१।।
जो यह इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख रूप भासते हैं तो भी निसंदेह दुख के ही हेतु हैं और आदि अंत वाले अर्थात अनित्य हैं, इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।२२।।
जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न  हुए वेग को सहन करने में समर्थ है अर्थात काम क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।।२३।।
जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है ऐसा वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव हुआ सांख्योगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।।२४।।
नाश हो गए हैं सब पाप जिसके तथा ज्ञान करके निवृत हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिसकी एकाग्र हुआ है भगवानके ध्यान में चित्त जिनका ऐसे ब्रह्म वेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।२५।।
काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।।२६।।
हे अर्जुन ! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्याग कर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके।।२७।।
जीती हुई है इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।।२८।।
और है अर्जुन ! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपो का भोगने वाला और संपूर्ण लोकों के ईश्वरो  का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूतप्राणियों का सुहृय अर्थात् स्वार्थ रहित प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है और सच्चिदानंदघन परिपूर्ण शांत ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में और कुछ भी नहीं रहता केवल वासुदेव जी वासुदेव रह जाता है।।२९।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मसंन्यासयोग" नामक पांचवां अध्याय।।५।।

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पांचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूं, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पूरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था वह वेद पाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच गान में मन लगाया। गीत नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और  उसी से उसका राज भवन में प्रवेश हो गया अब वह राजा के साथ रहने लगा और पराई स्त्रियों को बुला बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से कुछ उच्छृंखल होकर वह एकांत में राजा से दूसरों के दोष बताने लगा। पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ बिहार करने की इच्छा से उन्हीं की खोज में घूमा करती थी। उसने पति को अपने मार्ग का कंटक समझ कर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काट कर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया। प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुंचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगंदर रोग से अपने सुंदर शरीर को त्याग कर को नर्क भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई । एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से उधर उधर फुदक रही थी इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नको से फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलिया ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्व जन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गए। वहां अपने पूर्वकृत पापकर्म याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे - भगवन ! हम दोनों ने पूर्व जन्म में अत्यंत घृणित पाप संचय किया है फिर हमें मनोवांछित लोकों में भेजने का क्या कारण है? बताइए।
यमराज ने कहा - गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकांतसेवी, ममता रहित, शांत, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे। प्रतिदिन गीता के पांचवें अध्याय का जप करना उनका सदा का नियम था। पांचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे उन्हें महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गए हो। अतः अब तुम दोनों मनोवांछित लोकों को जाओ क्योंकि गीता के पांचवें अध्याय के माहत्म्य  से तुम दोनों शुद्ध हो गए हो श्री भगवान कहते हैं - सब के प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाएं जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर बैकुंठधाम को चले गए।

सोमवार, 22 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का हिंदी अनुवाद

इसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।।१।। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजऋषियों ने जाना परंतु है अर्जुन वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लोप हो गया था।।२।। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।।३।। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण चंद्र महाराज के वचन सुनकर अर्जुन ने पूछा हे भगवन् ! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था यह मैं कैसे जानूं?।।४।।
इस पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं परंतु हे परमतप ! उन सब को तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।।५।। मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदस्य नहीं है मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योग माया से प्रगट होता हूं।।६।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात प्रकट करता हूं।।७।।
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग- युग में प्रकट होता हूं।।८।। इसलिए हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।।९।।
हे अर्जुन ! पहले भी राग भय और क्रोध से रहित अनन्य भाव से मेरे में स्थिति वाले मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।।१०।। क्योंकि हे अर्जुन ! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं, इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।‌।११।‌। जो मेरे को तत्वों से नहीं जानते हैं वे पुरुष इस मनुष्य लोक मे कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती इसलिए तू मेरे को ही सब प्रकार से भज।।१२।।
हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।।१३।। क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृह नहीं है इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।।१४।।
तथा पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।।१५।। परंतु कर्म क्या है और अकर्म क्या है? ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा कि जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार बंधन से छूट जाएगा।।१६।।
कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।।१७।। जो पुरुष कर्म में अर्थात अहंकार रहित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात वास्तव में उनका न होनापन देखें और जो पुरुष कर्म में अर्थात अज्ञानी पुरुषों द्वारा किए हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थात त्याग रूप क्रिया को देखे वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।।१८।।
हे अर्जुन ! जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान रूप अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानी जन भी पंडित कहते हैं।।१९।। जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त है वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तव्य अभिमान को त्याग कर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है जीत लिया है अंतः करण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने ऐसा आशा रहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता है।।२१।।
अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाववाला  पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।।२२।।
क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले यज्ञ के लिए आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।।२३।।
यज्ञ के लिए आचरण करने वाले पुरुषों में से कोई तो इस भाव से यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात स्त्रुवादिक भी  ब्रह्म है और हवि अर्थात हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है इसलिए ब्रह्म रूप कर्म में समाधिस्थ हुए पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।।२४।।
और दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपवास ते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानी जन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।।२५।।
अन्य योगी जन श्रोतादिक सब इंद्रियों को संयम अर्थात स्वाधीनता रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोक कर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक  विषयों को इंद्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्म रूप करते हैं।।२६।।
दूसरे योगी जन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टा को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई, परमात्मा में स्थिति रूप योग अग्नि में हवन करते हैं।।२७।।
दूसरे कई पुरुष ईश्वर अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं वैसे ही कई पुरुष ँँ  स्वधर्म पालनरूप तपयज्ञ को करने वाले हैं और कई अष्टांगयोग रूप यज्ञ को करने वाले हैं और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान यज्ञ के करने वाले हैं।।२८।। 
दूसरे योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं वैसे ही अन्य योगी जन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपन की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।।२९।। दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, इस प्रकार यज्ञ द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका ऐसे यह सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।।३०।। हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञों के परिणामस्वरूप  ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मृत्युलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा।।३१।।
ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं उन सब को शरीर मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्म योग द्वारा संसार बंधन से मुक्त हो जाएगा।।३२।।
हे अर्जुन ! सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञान रूप यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।३३।।
इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान वे मर्म को जानने वाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।।३४।।
कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा और है अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतन रूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को दिखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय  ही देखेगा।।३५।‌। यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञान रूप नौका द्वारा निसंदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।।३६।‌।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म मे कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।।३७।। इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।।३८।।
हे अर्जुन ! जितेंद्रिय तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।।३९।।
हे अर्जुन ! भागवत विषय को ना जानने वाला तथा श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है उनमें भी संशय युक्त पुरुष के लिए तो न सुख है न यह लोक हैं न परलोक है अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।।४०।।
हे धनंजय ! समत्व बुद्धि रूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके ऐसे परमात्मा परायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।।४१।।
इससे हे भरतवंशी अर्जुन ! तू समत्वबुद्धि रूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए, हृदय में स्थित इस अपने संशय को ज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।।४२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "ज्ञानकर्मसंन्यासयोग" नामक चौथा अध्याय।।४।।

रविवार, 21 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - प्रिय ! अब मैं चौथे अध्याय का महत्व बतलाता हूं सुनो भागीरथी के तट पर वाराणसी नाम की एक पूरी है वहां विश्वनाथ जी के मंदिर में भरत नाम के एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे जो प्रतिदिन आत्म चिंतन में तत्पर हो आनंद पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अंतः करण निर्मल हो गया था। वे शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर के बाहर निकल गए वहां बेर के दो वृक्ष थे। उन्ही की जड़ में विश्राम करने लगे एक वृक्ष की जड़ में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गए तब बेर के वे दोनों वृक्ष पांच ही छः दिन के भीतर सूख गए। उनमें पत्ते और डालियां भी नहीं रह गई। तत्पश्चात वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणों के पवित्र ग्रह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए। वे दोनों कन्याएं जब बढ़कर सात वर्ष की हो गई, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूम कर आते हुए भरत मुनि को देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गई और मीठी वाणी से बोली- मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है। हमने बेर की योनि त्याग कर मानव शरीर प्राप्त किया है उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा - पुत्रियों मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेल के वृक्ष होने में क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।
तब भी कन्याएं पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोली मुनि गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्य को पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनताकी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्वलित अग्नियों के बीच में बैठते थे वर्षा काल में जल की धाराओं से उनके मस्तक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते थे तथा मन और इंद्रियों को संयम में रखते हुए परम शांति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे उसे सुनने के लिए साक्षात ब्रह्मा जी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे ब्रह्मा जी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था। अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे परमात्मा के ध्यान में निरंतर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपा को जीवन मुक्त के समान मानकर इंद्र को अपने समृद्धि साली पद के संबंध में कुछ भय हुआ तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्न डालने आरंभ किए अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इंद्र ने इस प्रकार आदेश दिया तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो जो मुझे इंद्र पद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है। इंद्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर जहां पे मुनि तपस्या करते थे आयी। वहां मंद एवं गंभीर स्वर से बचते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगे बीच-बीच में जरा जरा सा आंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी। हम दोनों की उम्मत गति काम भाव का उद्दीपन करने वाली थी। किंतु उसने उन निर्विकार चित्त वाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोध पूर्वक शाप दिया अरे तुम दोनों गंगा जी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहा महात्मा हम दोनों पराधीन थी अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें यूं कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे साथ उधर की अवधि निश्चित करते हुए कहा भरतमुनि के आने तक ही तुम पर यह सांप लागू होगा उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु लोक में जन्म होगा और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहेगी। मुनि जिस समय हम दोनों बेर वृक्ष के रूप में खड़ी थी उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शाप से ही नहीं इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।
भगवान कहते हैं - उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजत हो विदा लेकर जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तथा वे कन्याएं भी बड़े आदर के साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगी जिससे उनका उद्धार हो गया।

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का हिंदी अनुवाद

इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया कि हे जनार्दन ! यदि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान आपके श्रेष्ठ मान्य हैं तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ।।१।। तथा आप मिले हुए से वचन से मेरी बुद्धि को मोहित सी करते हैं, इसलिए  उस एक बात को निश्चय करके कहिए कि जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊं।।२।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान श्री कृष्ण महाराज बोले हे निष्पाप अर्जुन ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, ज्ञानियोंकी ज्ञान योग से और योगियों की निष्काम कर्मयोग से ।‌‌।३।। परंतु किसी भी मार्ग के अनुसार कर्मों को स्वरूप से त्यागने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों के ना करने से निष्क्रियता को प्राप्त होता है और ना कर्मों को त्यागने मात्र से भगवत साक्षात्कार रूप सिद्धि को प्राप्त होता है।‌।४।। तथा सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है,निसंदेह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा पर परवश हुए कर्म करते हैं।‌‌।५।। इसलिए जो मूढ़बुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों को मन से चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी  कहा जाता है।।६।। और हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्म योग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है ।। ७।। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को कर क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।।८।। हे अर्जुन बंधन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है, क्योंकि यज्ञ अर्थात विष्णु के निमित्त किए हुए कर्म के सिवा अन्य कर्म में लगा हुआ ही यह मनुष्य कर्मों द्वारा बंधता है, इसलिए हे अर्जुन ! आसक्ति से रहित हुआ, उस परमेश्वर के निमित्त कर्म का भली प्रकार आचरण  कर।।९।।  कर्म न करने से तू पाप को भी प्राप्त होगा, क्योंकि प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इक्षित कामनाओं के देने वाला होवे।।१०।। तथा तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें, इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होवोगे।।११।‌।  तथा यज्ञ द्वारा बढाये हुए देवता लोग तुम्हारे लिए बिना मांगे ही प्रिय भोगों को देंगे, उनके द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष इनके लिए बिना दिए ही भोगता है वह निश्चय चोर है।।१२।। कारण कि यज्ञ से शेष बचे हुए अन्य को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने शरीर पोषण के लिए ही पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं।।१३।‌‌। क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं और अन्य की उत्पत्ति वृष्टि से होती है तथा वृष्टि यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।।१४।। तथा उस कर्म हो तुम वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं।।१५।।
हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है अर्थात शास्त्र अनुसार कर्मों को नहीं करता है वह इंद्रियों के सुख को भोगने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।१६।।
परंतु जो मनुष्य आत्मा ही मैं प्रीति वाला और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।।१७।।
क्योंकि इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और ना किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा उसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध नहीं है तो भी उसके द्वारा केवल लोक हितार्थ कर्म किए जाते हैं।।१८।।
इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।१९।‌।
इस प्रकार जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित  कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं इसलिए तथा लोक संग्रह को देखता हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है।।२०।।
क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी उस उसके ही अनुसार बर्तते हैं, वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसी के अनुसार बर्तते हैं।।२१।।
इसलिए हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु प्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं।।२२।।
क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कदाचित कर्म में न बर्तू  तो हे अर्जुन ! सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तते हैं अर्थात बरतने लग जाएं।।२३।।
तथा यदि मैं कर्म ना करूं तो यह सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात मारने वाला बंनू।।२४।।
इसलिए हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए ज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान भी लोक शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करें।।२५।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले ज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में आ श्रद्धा उत्पन्न ना करें किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।।२६।।
हे अर्जुन ! वास्तव में संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं तो भी अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष, मैं कर्ता हूं ऐसे मान लेता हैं।।२७।।
परंतु हे महाबाहु गुणविभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानी पुरुष संपूर्ण गुण में बर्तते हैं ऐसे मानकर नहीं आसक्त  होता है।।२८।।
और प्रकृति के गुणो से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार ना समझने वाले मूर्खों को अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलाएं मान ना करें।।२९।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू ध्याननिष्ट चित्त से संपूर्ण कर्मों को मुझ में समर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर संताप रहित हुआ युद्ध कर।।३०।।
हे अर्जुन ! जो कोई भी मनुष्य दोष बुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुआ सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।।३१।।
और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानो में मोहित चित्तवालों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान।।३२।।
क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हट क्या करेगा।।३३।‌। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ में अर्थात सभी इंद्रियों के भोगों में स्थित जो राग और द्वेष है उन दोनों के बस में नहीं होवे, क्योंकि  इसके वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।।३४।।
इसलिए उन दोनों को जीतकर सावधान हुआ स्वधर्म का आचरण करें क्योंकि अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।।३५।‌।
इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण ! फिर यह पुरुष बलात्कार से लगाए हुए के सदृश्य ना चाहता हूआ भी किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है?।।३६।।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह ही महाअशन  अर्थात अग्नि के सदृश्य भोगों से न तृप्त होने वाला और बड़ा पापी है, इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।।३७।।
जैसे धुएं से  अग्नि और मलसे दर्पण ढक जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका हुआ है वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है।।३८।।
और हे अर्जुन ! इस अग्नि सदृश्य ना पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है।।३९।।
इंद्रियां मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान कहे जाते हैं और यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके इस जीवात्मा को मोहित करता है।।४०।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इंद्रियों को वश में कारके  ज्ञान और विज्ञान के नाश करने वाले इस काम पापी को निश्चय पूर्वक मार।।४१।।
और यदि तू समझे कि इंद्रियों को रोककर कामरूप वैरी को मारने की मेरी शक्ति नहीं है तो तेरी यह भूल है क्योंकि इस शरीर से तो इंद्रियों को परे कहते हैं और इंद्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यंत परे है वह आत्मा है।।४२।।
किस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म तथा सब प्रकार बलवान और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहु ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को मार।।४३।‌।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मयोग" नामक तीसरा अध्याय।।३।।
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शनिवार, 20 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान कहते हैं - प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनिए  की वृत्ति में मन लगाया। उसे पराई स्त्रीयों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवो की हिंसा किया करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया। वहां से धन कमा कर घर की ओर लौटा। बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अंधकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए। उसके  धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।
उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था। उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी। जब वे नहीं आए तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़ कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोजकर्ता मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदन्तर  एक दिन एक मनुष्य से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान था। बहुत कुछ सोच विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया। मार्ग में सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्ष के नीचे पहुंचा जहां उसके पिता मारे गए थे। उस स्थान पर उसने संध्योपासना  की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया। इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिता को भयंकर आकाश में देखा, फिर तुरंत ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुंदर विमान दिखाई दिया, जो महान तेज से व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएं लगी थी। उसके तेज से समस्त दिशाएं आलोकित हो रही थी। यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गई। उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किए विराजमान देखा। उनके शरीर पर पीतांबर शोभा पा रहा था और मुनि जन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात उसने पिता से यह सारा वृत्तांत पूछा। उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-बेटा ! दैव बस में मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुस्त्यज कर्मबंधन से मुझे छुड़ा दिया। अतः अब घर लौट जाओ, क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है।
पिता के यूं कहने पर पुत्र ने पूछा- तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइए। तब पिता ने उससे कहा - अनघ ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाई ने भी किया था। इससे वह घोर नरक में पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सब का भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए, यही मेरा मनोरथ है। बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवो को संकल्प करके दे दो। इससे भी समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो स्वल्प काल में ही  श्री विष्णु के परम पद को प्राप्त हो जाएंगे। पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहा- तात यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार कर दूंगा।
यह सुनकर उनके पिता बोले बेटा एवमस्तु, तुम्हारा कल्याण हो, मेरा अत्यंत प्रिय कार्य संपन्न हो गया। इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गए। तत्पश्चात वह भी लौट कर जन्स्थान में आया और परम सुंदर भगवान श्री कृष्ण के मंदिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेश अनुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ  करने लगा। उसने नारकी जीवो का उद्धार करने की इच्छा से गीता पाठ जनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया। इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नारकी जीवो को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गए यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारो से उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले- धर्मराज हम लोगों के लिए सब ओर आनंद ही आनंद है। इस प्रकार सत्कार करके पितृलोक के सम्राट परम बुद्धिमान यमने विष्णुदूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।
तब विष्णुदूतों ने कहा- यमराज ! शेष शैया पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है। भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं। और यह आज्ञा देते हैं कि आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें। अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह  आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा।  तत्पश्चात मदोन्मत्त नारकी जीवो को नर्क से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले। यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहां छीर सागर है वहां जा पहुंचे उसके भीतर कोटि कोटि सूर्य के समान कांतिमान नील कमल दल के समान श्यामसुंदर लोकनाथ जगतगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया भगवान का तेज उनकी सैया बने हुए शेषनाग के फलो की मणियों के प्रकाश से दोगुना हो रहा था। वे आनंद युक्त दिखाई दे रहे थे उनका ह्रदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन  से प्रेम पूर्वक उन्हें बार-बार निहार रही थी। चारों ओर योगी जन भगवान की सेवा में खड़े थे। उन योगियों की आंखों के तारे ध्यानस्थ होने के कारण निश्चल प्रतीत होते थे। देवराज इंद्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्मा जी के मुख से निकले हुए वेदांत वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे। भगवान पूर्णता है संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे। जीवो में से जिन्होंने योग साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था उन सब को एक ही साथ वे कृपा दृष्टि से निहार रहे थे। भगवान अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत को आनंद पूर्ण दृष्टि से अनुमोदित कर रहे थे। शेषनाग की प्रभा से उद्भासित  एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किए नीलकमल के सदृश श्याम वर्ण वाले श्री हरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चांदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान की झांकी करके यमराज विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
यमराज बोले - संपूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अंतः करण अत्यंत निर्मल है । आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है। आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको नमस्कार है। अपने बल और वेग के कारण जो अत्यंत दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेंद्रो का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है। पालन के समय सत्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है। समस्त देहधारियों की पातक राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है। जिनके ललाटवरती ् नेत्रों के तनिक सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती है उन रूद्र रूप धारी आप परमेश्वर को नमस्कार है। आप संपूर्ण विश्व के गुरु आत्मा और महेश्वर हैं अतः समस्त वैष्णव जनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं।
आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते माया तथा माया जनित दोनों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता आप की महिमा का अंत नहीं है। क्योंकि आप असीम है फिर आप वाणी से विषय कैसे हो सकते हैं अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहा जगतगुरु आपके आदेश से इन जीवो को गुण रहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो उसे बताइए। उनके यू कहने पर भगवान मधुसूदन मेंघ के समान गंभीर वाणी द्वारा मानो अमृत रस से सींचते  हुए बोले- धर्मराज ! तुम सब के प्रति समान भाव रखते हुए लोको का पाप से उद्धार कर रहे हो। तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिंत हूं। अतः  तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ। यों कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। यमराज भी अपनी पूरी को लौट आए। तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार करके स्वयं विशेष विमान द्वारा श्री विष्णु धाम को चला गया।

सोमवार, 18 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)

संजय बोले कि पूर्वोक्त प्रकार से करुणा करके व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१।।
हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि यह ना तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है न कीर्ति को करने वाला है।।२।।
इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप ! सच्चे हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो।।३।।
तब अर्जुन बोले कि हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध करूंगा, क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं।।४।।
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा का अन्य भी भोगना कल्याण कारक समझता हूं, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूंगा।।५।।
और हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र  हमारे सामने खड़े हैं।।६।।
इसलिए कायरता रूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं, आपको पूछता हूं जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याण कारक साधन हो वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं इसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।।७।।
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।८।।
संजय बोले हे राजन् ! निंद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कह कर फिर श्री गोविंद भगवान से 'युद्ध नहीं करूंगा' ऐसे स्पष्ट कह कर चुप हो गए।।९।।
उसके उपरांत हे भारतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को हंसते हुए से यह वचन कहे।।१०।।
हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से बचना को कहता है परंतु पंडित जन जिन के प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी शोक नहीं करते हैं।।११।। क्योंकि आत्मा नित्य है इसलिए शोक करना आयुक्त है वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और  न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।१२।। किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, इस विषय में धीरपुरुष नहीं मोहित होता है अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा अवस्था रूप स्थूल शरीर का विकास अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकास भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिए तत्व को जानने वाला धीर पुरुष इस विषय में नहीं मोहित होता है।।१३।।
हे कुंतीपुत्र ! सर्दी गर्मी और सुख दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संभोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! उनको तू सहन कर।।१४।। क्योंकि हे पूरुषश्रेष्ठ ! दुख सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष के लिए योग होता है।।१५।।
और हे अर्जुन ! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत्  का अभव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।१६।।  इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है।।१७।।
और इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन युद्ध कर।।१८।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।१९।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता और न मरता है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाशत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता है।।२०।। 
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किस को मारता है।।२१।।
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीर के वियोग का शोक करता हूं तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को याद कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है।।२२।। 
हे अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्र आदि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है और इसको जल गीला नहीं कर सकते हैं और वायु नहीं सुखा सकता है।।२३।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्म है, अल्केद्य और अशोष्य  है तथा यह आत्मा निसंदेह नित्य सर्वव्यापक अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है।।२४।।
यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय  और यह आत्मा विकार रहित अर्थात न बदलने वाला कहा गया है, इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।।२५।।
यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने तो भी हे अर्जुन ! इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।।२६।।
 क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ इससे भी तू इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है।।२७।।
यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिए भी शोक करना उचित नहीं, क्योंकि हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं केवल बीच में ही शरीर वाले प्रतीत होते हैं, फिर उस विषय में क्या चिंता है।।२८।। हे अर्जुन ! यह आत्म तत्व बड़ा गहन है इसलिए कोई महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य कि ज्यों देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की ज्यों इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को आश्चर्य की ज्यों सुनता है और कोई कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता।।२९।।
हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए तू शोक करने को योग्य नहीं है।।३०।।
और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध  से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।।३१।। हे पार्थ अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवन क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।३२।।
और यदि तू धर्म युक्त संग्राम को नहीं करेगा तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।३३।।
और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।।३४।।
और जिनके तुम बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वह महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे।।३५।।
और तेरी वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे फिर उससे अधिक दुख क्या होगा।।३६।।
इससे युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है क्योंकि या तो मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा इससे हे अर्जुन ! युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।।३७।।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा ना हो तो भी सुख दुख लाभ हानि और जय पराजय को समान समझकर उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।।३८।।
हे पार्थ यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और इसी को अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।।३९।।
इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं होता है, इसलिए इस निष्कामकर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन जन्म मृत्यु रूप महान भय से उद्धार कर देता है।।४०।। हे अर्जुन ! इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है और अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदोंवाली अनंत होती हैं।।४१।।
हे अर्जुन ! जो सकामी  पुरुष केवल फलश्रुति में प्रीति रखने वाले स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले इस से बढ़कर और कुछ नहीं है, ऐसे कहने वाले हैं वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली, इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहते हैं।।४२-४३।।
उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले उन पुरुषों के अंतः करण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।।४४।।
हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले अर्थात प्रकाश करने वाले हैं इसलिए तू असंसारी अर्थात निष्कामी और सुख दुख आदि द्वन्द्वों से रहित नित्य वस्तु में स्थित तथा योग क्षेम को ना चाहने वाला और आत्म परायण हो।।४५।।
क्योंकि मनुष्य का सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात जैसे बड़े जलाशय के प्राप्त हो जाने पर जल के लिए छोटे जलाशय की आवश्यकता नहीं रहती वैसे ही ब्रह्मानंद की प्राप्ति होने पर आनंद के लिए वेदों की आवश्यकता नहीं रहती।।४६।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार हो गए फल में कभी नहीं और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी प्रीति न होवे।।४७।।
 हे धनंजय ! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और अशुद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर यह समत्व भाव ही योग नाम से कहा जाता है।।४८।।
इस समत्वरूप बुद्धि योग से सकाम कर्म
अत्यंत तुच्छ है इसलिए हे धनंजय समत्व बुद्धि योग का आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन है।।४९।।
समत्व बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को इस लोक में ही त्याग देता है अर्थात उनसे लिपायमान नहीं होता, इससे समत्व बुद्धि योग के लिए ही चेष्टा कर, यह समत्व बुद्धि रूप योग ही कर्मों में चतुरता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।।५०।।
क्योंकि बुद्धि योग युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष अर्थात अमृतमय परम पद को प्राप्त होते हैं।।५१।।
हे अर्जुन जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को बिल्कुल तर जाएगी तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।।५२।।
जब तेरी अनेक प्रकार से सिद्धांतों को सुनने में विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जाएगी तब तू समत्व रूप योग को प्राप्त होगा।।५३।।
इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा हे केशव ! समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है?।।५४।।
उसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।।५५।।
तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेग रहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई हो है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गए हैं राग, भय और  क्रोध जिसके ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।।५६।।
और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।५८।।
यद्यपि इंद्रियों के द्वारा विषयों को ना ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु राग नहीं निवृत होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात करके निवृत हो जाता है।।५९।।
और हे अर्जुन ! जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन  स्वभाव वाली इंद्रियां बलात्कार से हर लेती हैं।।६०।।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे क्योंकि जिस पुरुष के इंद्रियां वश में होती हैं उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।।६१।।
हे अर्जुन ! मन सहित इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिंतन होता है और विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ती हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोध से अविवेक अर्थात मूढभाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।।६३।।
परंतु स्वाधीन अंतः करण वाला पुरुष राग द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अंतः करण की प्रसन्नता अर्थात स्वच्छता को प्राप्त होता है।।६४।।
उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखो का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।।६५।। हे अर्जुन ! साधनरहित पुरुष के अंतः करण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस आयुक्त के अंतः करण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है, फिर शांतिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है।।६६।।
क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है वैसे ही विषयों में  विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है वह एक ही इंद्रिय इस आयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है।।६७।।
इससे हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।६८।।
और है अर्जुन ! संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है उस नित्य शुद्ध बोध स्वरूप परमानंद में भगवत को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान क्षणभंगुर संसारिक  सुख में सब भूत प्राणी जागते हैं तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है।।६९।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति संपूर्ण योग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं वह पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है न कि लोगों को चाहने वाला।।७०।।
क्योंकि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित और अहंकार रहित स्पृहारहित  हुआ बर्तता है, वह शांति को प्राप्त होता है।।७१।। हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है इस को प्राप्त होकर(योगी कभी) मोहित नहीं होता है और अंत काल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।।७२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में 'सांख्ययोग' नामक दूसरा अध्याय।।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान  कहते हैं -- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य  का उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अन्य अध्यायों के माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियों के पूजक, स्वाध्यायशील, वेद शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञ क अनुष्ठान करने वाले और तपस्वीयों के सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मणों को कभी सदा रहने वाली शांति ना मिली। वे परम कल्याणमय तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले तपस्वीयों की सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदन्तर एक दिन पृथ्वी पर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकांक्षा रहित, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखने वाले तथा शांतचित्त थे। निरंतर परमात्मा के चिंतन में संलग्न हो वे सदा आनंद विभोर रहते थे। देवशर्मा ने उन नित्य संतुष्ट तपस्वी को शुद्ध भाव से प्रणाम किया और पूछा-- महात्मन् ! मुझे शांतिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी? तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहा वही तुम्हें उपदेश देगा। यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वंदना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राम में पहुंचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा। उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था। उसके नेत्र आनंदातिरेक  से निश्चल हो रहे थे-- वह अपलक दृष्टि से देख रहा था। वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकचित हुए परस्पर विरोधी जंतुओं से घिरा था। वहां उद्यान में मंद मंद वायु चल रही थी। मृगो के झुंड शांत भाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनंदमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गए। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया। तदन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य-चित्त से मित्रवान के समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछी- महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी ऐसे उपाय का उपदेश कीजिए जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो। देवशर्मा की बात सुनकर मित्रवान ने एक क्षण तक कुछ विचार किया इसके बाद इस प्रकार कहा विद्वन ! एक समय की बात है मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था। इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी। जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्यु के डरता था इसलिए व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहां से भाग चला। किंतु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस व्याघ्र के पास बेरोकटोक चली गई। फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोली व्याघ्र तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेम पूर्वक खाओ ना। तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है? व्याघ्र बोला- बकरी इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया। भूख प्यास भी मिट गई। इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता।
व्याघ्र के यों कहने पर बकरी बोली ना जाने मैं कैसे निर्भय हो गई हूं। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ। यह सुनकर व्याघ्र ने कहा मैं भी नहीं जानता चलो सामने खड़े हुए इन महापुरुष से पूछें ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहां से चल दिए।  उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देख कर मैं बहुत विस्मय में पड़ा था। इतने में ही उन्होंने मुझसे ही आकर प्रश्न किया। वहां वृक्ष की शाखा पर एक वानर राज था उन दोनों के साथ मैंने भी वानर राज से पूछा। विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानर राज ने आदर पूर्वक कहा- अजापाल ! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृतांत सुनाता हूं। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मंदिर है उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्मा जी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्व काल में यहां सुकर्मा नामक एक विद्वान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मंदिर में उपासना करते थे। वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहां निवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ। सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहा विद्वान मैं केवल तत्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूं। आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के यह मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक शिलाखंड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ एवं अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहा ब्राह्मण इससे तुम्हारा आत्मज्ञान संबंधी मनोरथ अपने आप सफल हो जाएगा। यूं कह कर वे विद्वान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अंतर्ध्यान हो गए। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरंतर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे। तदनंतर दीर्घकाल के पश्चात अंतःकरण शुद्ध होकर उन्हें तत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई।  वे जहां जहां गए वहां वहां का तपोवन शांत हो गया। उनमें शीतोष्ण और राग द्वेष आदि की बाधाएं दूर हो गई इतना ही नहीं उन स्थानों में भूख प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो।
मित्रवान कहता है- वानर राज के यू कहने पर में प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मंदिर की ओर गया। वहां जाकर शिलाखंड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी की आवृत्ति करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है। अतः भद्र पुरुष तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृत्ति किया करो ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान कहते हैं- प्रिय ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरंदरपुर की राह ली। वहां किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तांत निवेदन किया। और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अंतःकरण वाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे। तब से उन्होंने अनवद्य परम पद को प्राप्त कर लिया लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया।

बुधवार, 13 जुलाई 2022

अथ श्रीमद्भगवद्गीता (प्रथमोऽध्याय:)

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय, सनातन धर्म में श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोच्च है। श्रीमद्भगवद्गीता का नित्य पाठ करने से मनुष्य मोह माया से मुक्त हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें क्या करना चाहिए यह सिखाती है।
            अथ प्रथमोऽध्याय
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।१।।
                  संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।२।।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।३।।
अत्र शूरा महेषवासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।४।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।५।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।६।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते।।७।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।८।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।९।।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।११।।
तस्य संजनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शखं दध्मौ प्रतापवान्।।१२।।
ततः शंखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।१३।।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।१४।।
पाच्ञन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।।१५।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।१६।।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्रो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।१७।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुःशंखान्दध्मुःपृथक् पृथक्।।१८।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।१९।।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।२०।।
।हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
                  अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽचृयुत।।२१।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।२२।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्र दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।२३।।
                  संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति।।२५।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।२६।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोथपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान्।।२७।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
                अर्जुन उवाच
दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्मते।
न च शक़ोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।
न काड्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।३२।।
येषामर्थे काडि्क्षतं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।३३।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।३४।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घन्तोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।३५।।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः ःः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।३६।।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धन्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३७।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३९।।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
अधर्मीभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेंय जायते वर्णसंकरः।।४१।।
संकरो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्मेषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।४२।।
दोषैरेतैः कुलन्घानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।४३।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।४४।।
अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।४६।।
                  संजय उवाच 
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।४७।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।।१।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय (हिंदी अनुवाद)

धृतराष्ट्र बोले हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठा हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडू पांडू के पुत्रों ने क्या किया? ।१।
इस पर संजय बोले उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जा कर यह वचन कहा ।२।
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान श्रेष्ठ द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।३।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं जैसे सत्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।४।
और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशी राज, पुरुजित कुंतीभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य।५।
और पराक्रमी योधामन्यु तथा बलवान उत्तममौजा,  सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र यह सब ही महारथी हैं।६।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ हमारे पक्ष में भी जो जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए आपके जानने के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उनको कहता हूं।७।
एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। ८।
तथा और भी बहुत से शूरवीर  अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सब के सब युद्ध में चतुर हैं।९।
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।१०।
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोगों सब के सब ही निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। ११।
इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहकी नाद के समान गर्ज कर शंख बजाया।१२।
उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल मृदंग और नृसिंहादि बाजी एक साथ ही बजे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। १३।
उसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी आलौकिक शंख बजाए। १४।
उनमें श्री कृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।१५।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक शंख और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।१६।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सत्यकि।१७।
तथा राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सबने हे राजन ! अलग-अलग शंख बजाए।।१८।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए। १९।
हे राजन ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ऋषिकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रात को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए। २०-२१।
जब तक मैं इन स्थिर हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है।२२।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।२३।
संजय बोले, हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए
 महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ ! इन इकट्ठा हुए कौरवों को देख। २४-२५।
उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहोंको, आचार्योंको, मामों को, भाइयों को, मित्रों को, पुत्रों को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुहृदों को भी देखा।२६।
इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे अत्यंत करुणा से युक्त हुए कुंती पुत्र अर्जुन शोक करते हुए यह बोले।२७।
हे कृष्ण ! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच होता है।२८-२९।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।३०।
हे केशव ! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। ३१।
हे कृष्ण ! मैं विजय नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता हे गोविंद ! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।३२।
क्योंकि हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित है, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।३३।
जो कि गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं। ३४।
इसलिए हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। ३५।
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ३६।
इससे हे माधव ! अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।३७।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए यह लोग कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं।३८।
परंतु है जनार्दन ! कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए।३९।
क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दवा लेता है।४०।
तथा हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और हे वाष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।४१।
और वह वर्णसंकर कुल घातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लोप हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। ४२।
और इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घातियों के सनातन धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।४३।
तथा हे जनार्दन ! नष्ट हुए कुल धर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हमने सुना है। ४४।
अहो ! शोक है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हुए हैं जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्धत हुए हैं। ४५।
यदि मुझे शस्त्र रहित ना सामना करने वालों को शस्त्र धारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारे तो वह मारना भी मेरे लिए अति कल्याण कारक होगा।४६।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए। ४७।


मंगलवार, 28 जून 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य हिंदी में यह माहात्म्य पद्मपुराण के उत्तराखण्ड से लिया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य
श्री पार्वती जी ने कहा- भगवन् ! आप सभी तत्वों के ज्ञाता हैं आपकी कृपा से मुझे श्री विष्णु संबंधी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं। देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूं जिसका श्रवण करने से श्रीहरि में भक्ति बढ़ती है।
श्री महादेव ने बोले - जिनका श्री विग्रह अलसी के फूल की भांति श्याम वर्ण का है, पक्षीराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महा विष्णु कि हम उपासना करते हैं। एक समय की बात है, मूर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुख पूर्वक विराजमान थे। उस समय समस्त लोकों को आनंद देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदर पूर्वक प्रश्न किया।
श्री महालक्ष्मी जी ने पूछा - भगवन् ! आप संपूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं इसका क्या कारण है?
श्री भगवान बोले - सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूं अपितु तत्व का अनुसरण करने वाली अंतर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूं। देवि ! यह वही तेज है जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग शोक से रहित, अखंड आनंद का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैतरहित है।
इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूं।
देवेश्वरी ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूं।
श्री लक्ष्मी जी ने कहा- ऋषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कुतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्व समर्थ हैं इस प्रकार की स्थिति में हो कर भी यदि आप उस परम तत्व से भिन्न है तो मुझे उसका बोध कराइए।
श्री भगवान बोले - प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अंत से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परम आनंद स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुंदर है। वही मेरा ईश्वरीय रुप है। आत्मा का एकत्व ही सब के द्वारा जानने योग्य है। गीता शास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है।
अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के यह वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करते हुए कहा - भगवन् ! यदि आप का स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुंच से बाहर है तो गीता कैसे उस का बोध कराती है? मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिए।
श्री भगवान बोले - सुन्दरि ! सुनो मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूं। क्रमशः पांच अध्याय को तुम पांच मुख जानो, दस अध्याय को दस भुजाएं समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरण कमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाड्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।
यह ध्यान मात्र से ही महान पातको का नाश करने वाली है। जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है।
श्री लक्ष्मी जी ने पूछा- देव ! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?
श्री भगवान बोले - प्रिये ! सुशर्मा बड़ी छोटी बुद्धि का मनुष्य था। पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य एवं क्रूरता पुर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था। वह ना ध्यान करता था ना जप, ना होम करता था ना अतिथियों का सत्कार।
वह लंपट होने के कारण विषयों के सेवन में ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने अपने जीवन काल का  दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन मूड बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था। इसी बीच में कॉल रूप धारी काले सांप ने उसे डस लिया। सुशर्मा की मृत्यु हो गई। तदनंतर वह अनेक नर्कों में जा वहां की यातनाएं भोगकर मृत्यु लोक में लौट आया और वहां वह बोझ ढोने वाला बैल हुआ। उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात - आठ वर्ष बिताए। एक दिन पंगु ने किसी ऊंचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया। इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्छित हो गया। उस समय वहां कोतुहल वश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गए। उस जन समुदाय में से किसी पुण्य आत्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया। तत्पश्चात कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने अपने पुण्यो को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया। उस भीड़ में एक वैश्या भी खड़ी थी।
उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया।
तदनंतर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गए। वहां यह विचार कर कि यह वेश्या के दिए हुए पुण्य से पुण्यवान्  हो गया है, उसे छोड़ दिया गया। फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शीलवाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ।
उस समय भी उसे अपने पूर्व जन्म की बातों का स्मरण बना रहा। बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण तत्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया। और उसके दान की बात  बतलाते हुए उसने पूछा- तुमने कौन सा पुण्य दान किया था? वेश्या ने उत्तर दिया- वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढता है। उससे मेरा अंतःकरण पवित्र हो गया है। उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था। इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा।
तब उस तोते ने अपने पूर्व जन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना प्रारंभ किया।
शुक बोला-- मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था। मेरा राग द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा। फिर समय अनुसार मेरी मृत्यु हो गई और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा। इसके बाद इस लोक में आया सद्गुरु की अत्यंत निंदा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ। पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया। एक दिन में ग्रीष्म ऋतु में तपे हुए मार्ग पर पड़ा था वहां से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाए और महात्माओं के आश्रम में एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वही मुझे पढ़ाया गया ऋषि यों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे। उन्हीं से सुनकर में भी बारंबार पाठ करने लगा। इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिए ने  मुझे वहां से चुरा लिया। तत्पश्चात इस देवी ने मुझे खरीद लिया। यही मेरा वृतांत है जिसे मैंने आप लोगों से बता दिया। पूर्व काल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था जिससे मैंने अपने पाप को दूर किया है। फिर उसी से इस वैश्या का भी अंतःकरण शुद्ध हुआ है। और उसी के पुण्य से यह द्विज श्रेष्ठ सुशर्मा भी पाप मुक्त हुए हैं। इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहत्म्य  की प्रशंसा करके वे तीनों निरंतर अपने अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे। फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गए। इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पड़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती।

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