हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है अर्थात शास्त्र अनुसार कर्मों को नहीं करता है वह इंद्रियों के सुख को भोगने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।१६।।
परंतु जो मनुष्य आत्मा ही मैं प्रीति वाला और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।।१७।।
क्योंकि इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और ना किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा उसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध नहीं है तो भी उसके द्वारा केवल लोक हितार्थ कर्म किए जाते हैं।।१८।।
इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।१९।।
इस प्रकार जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं इसलिए तथा लोक संग्रह को देखता हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है।।२०।।
क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी उस उसके ही अनुसार बर्तते हैं, वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसी के अनुसार बर्तते हैं।।२१।।
इसलिए हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु प्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं।।२२।।
क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कदाचित कर्म में न बर्तू तो हे अर्जुन ! सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तते हैं अर्थात बरतने लग जाएं।।२३।।
तथा यदि मैं कर्म ना करूं तो यह सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात मारने वाला बंनू।।२४।।
इसलिए हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए ज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान भी लोक शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करें।।२५।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले ज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में आ श्रद्धा उत्पन्न ना करें किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।।२६।।
हे अर्जुन ! वास्तव में संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं तो भी अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष, मैं कर्ता हूं ऐसे मान लेता हैं।।२७।।
परंतु हे महाबाहु गुणविभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानी पुरुष संपूर्ण गुण में बर्तते हैं ऐसे मानकर नहीं आसक्त होता है।।२८।।
और प्रकृति के गुणो से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार ना समझने वाले मूर्खों को अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलाएं मान ना करें।।२९।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू ध्याननिष्ट चित्त से संपूर्ण कर्मों को मुझ में समर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर संताप रहित हुआ युद्ध कर।।३०।।
हे अर्जुन ! जो कोई भी मनुष्य दोष बुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुआ सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।।३१।।
और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानो में मोहित चित्तवालों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान।।३२।।
क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हट क्या करेगा।।३३।। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ में अर्थात सभी इंद्रियों के भोगों में स्थित जो राग और द्वेष है उन दोनों के बस में नहीं होवे, क्योंकि इसके वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।।३४।।
इसलिए उन दोनों को जीतकर सावधान हुआ स्वधर्म का आचरण करें क्योंकि अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।।३५।।
इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण ! फिर यह पुरुष बलात्कार से लगाए हुए के सदृश्य ना चाहता हूआ भी किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है?।।३६।।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह ही महाअशन अर्थात अग्नि के सदृश्य भोगों से न तृप्त होने वाला और बड़ा पापी है, इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।।३७।।
जैसे धुएं से अग्नि और मलसे दर्पण ढक जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका हुआ है वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है।।३८।।
और हे अर्जुन ! इस अग्नि सदृश्य ना पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है।।३९।।
इंद्रियां मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान कहे जाते हैं और यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके इस जीवात्मा को मोहित करता है।।४०।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इंद्रियों को वश में कारके ज्ञान और विज्ञान के नाश करने वाले इस काम पापी को निश्चय पूर्वक मार।।४१।।
और यदि तू समझे कि इंद्रियों को रोककर कामरूप वैरी को मारने की मेरी शक्ति नहीं है तो तेरी यह भूल है क्योंकि इस शरीर से तो इंद्रियों को परे कहते हैं और इंद्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यंत परे है वह आत्मा है।।४२।।
किस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म तथा सब प्रकार बलवान और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहु ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को मार।।४३।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मयोग" नामक तीसरा अध्याय।।३।।
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