हनुमान सम नही नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(रा०च०मा० ७/५०/८-९)
यद्यपि बड़भागी तो अनेक है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने वाला प्रत्येक प्राणी बड़भागी है क्योंकि-
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
परंतु मनुष्य शरीर प्राप्तकर सच्चे अर्थ में बड़भागी तो वही है जो श्री राम कथा का श्रवण करे-
जे सुनि सादर नर बड़भागी।
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।
तथा श्री राम कथा का श्रवण करके जो श्री रामानुरागी हो जाते हैं वे मात्र बड़भागी ही नही, अपितु अति बड़भागी है, तभी तो वानर कहते हैं-
हम सब सेवक अति बड़भागी।
संतत सगुन ब्रम्ह अनुरागी।।
जो भक्ति मार्ग पर चलकर भगवान की ओर बढ़ते हैं वे अति बड़भागी है, किंतु भगवान कृपापूर्वक जिसके पास स्वयं चलकर पहुँच जाते हैं वे तो अतिसय बड़भागी है, तभी तो तुलसीदास जी माता अहिल्या के लिए लिखते हैं-
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी।
परन्तु परहित के भाव से प्रभु की सेवा में देहोत्सर्ग कर देने वाले श्रीजटायुजी को भी श्रीरामचरितमानस की भावभरी भाषा मे परम् बड़भागी कहकर संबोधित किया गया है। यथा-
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम् बड़भागी।।
भगवान शंकर जी कहते हैं कि भले ही कोई बड़भागी, अतिशय बड़भागी और परम् बड़भागी बना रहे किंतु-
हनुमान सम नहिं बड़भागी।
क्योकि-
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
हनुमानजी श्रीरामजीके प्रति सेवाभाव से समर्पित हैं किंतु उन्हें सेवक होने का अभिमान नही है, क्योंकि उनका मन प्रभुप्रीति से भरा है। 'प्रीति सेवकाई' दोनोका उनमे मणिकंचनयोग दिखाई देता है। वे अपने को प्रभु के हाथों का बाण समझते हैं-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
किसीने बाण से पूछा कि तुम्हारे चरण तो है नही फिर भी तुम चलते हो अर्थात साधन के विना तुम्हारी गति कैसे होती है तो बाण ने उत्तर दिया कि मैं आपने चरण से नही वर्ण मै अपने स्वामी के हाथ से चलता हूँ। मैं तो साधन हीन हूँ मेरी गति तो भगवान के हाथ है। इस प्रकार हनुमानजी अपने को श्रीरामजी का बाण समझ कर सेवा करते हुए अपनी प्रत्येक सफलता में भगवान की कृपा का हाथ देखते है। इसलिये जब माता जानकी जी ने उलाहना देते हुए कहा- हनुमान! प्रभु तो अत्यंत कोमलचित हैं, किंतु मेरे प्रति उनके कठोरतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या है?
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
इतना कहते-कहते माता मैथिली अत्यंत व्यथित हो गयी, उनके नेत्र निर्झर हो गये। कण्ठ अवरुद्ध हो गया। अत्यंत कठिनता से वे इतना ही कह पायी की आह ! प्रभु ने मुझे भी भुला दिया।
बचनु न आव नयन भर बारी।
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।।
हनुमानजी ने निवेदन किया माँ ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है तो जानकी माता ने पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि प्रभु ने मुझे भुलाया नही है, तब हनुमानजी ने प्रति प्रश्न करते हुए कहा माता! माता प्रभु ने आपको भुला दिया है इसका क्या प्रमाण है? जानकी जी ने कहा चित्रकूट में इंद्र पुत्र जयंत ने कौआ बनकर जब मेरे चरण में चोच का प्रहार किया तो प्रभु ने उसके पीछे ऐसा बाण लगाया कि उसे कहि त्राण नही मिला, किंतु आज मेरा हरण करने वाला रावण त्रिकुट पर बसी लंका में आराम से रह रहा है, इसलिए लगता है-
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।
तब हनुमानजी ने कहा - माता प्रभु ने जयंत के पीछे तो सींक रूप में बाण लगाया था-
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना।।
माता जी ! सोचिये लकड़ी की छोटी सी सींक, क्या बाण बनी होगी ! जानकी जी बोली पुत्र बात सींक की नही प्रभु के संकल्प की है।
प्रेरित मंत्र ब्रम्हसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा।।
हनुमानजी ने फिर कहा - माता यदि जयंत के पीछे प्रभु ने सींक के रूप में बाण लगा दिया तो क्या यह सम्भव नही कि रावण के पीछे प्रभु ने वानर रूपी बाण लगा दिया हो। हे माता ! आप कृपापूर्वक देखिये तो आपके समक्ष हनुमान के रूप में श्रीरामजी का बाण ही उपस्थित है-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
माता ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है आप चिंता न करे-
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदय धीर धरु जरे निसाचर
जानु।।
अब यहाँ रघुपति बाण से 'जिमि अमोघ रघुपति कर बाना' तथा कृसानु से 'दनुजवनकृशानुं' का संकेत मिलता हैं।
श्री जानकी माता अति प्रसन्न होकर बोली - बेटा ! तुमने मेरे मन का भ्रम मिटा दिया मैं समझ गई कि रामबाण के रूप में तुम मेरे समक्ष उपस्थित हो। हनुमानजी बोले त्राहि त्राहि माता आप ऐसा न बोले आपको तो पहले से ही ये विदित था कि श्रीरामबान के रूप में यहां हनुमान उपस्थित है। तभी तो आपने रावण को फटकारते हुए कहा था-
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नही रघुवीर बान की।।
उपयुक्त प्रसंग में इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि हनुमानजी अपने को प्रभु का बाण अर्थात उनके हाथ का यंत्र समझते हैं। तभी तो लंकादहन-जैसा दुष्कर करके जब वे जानकी जी के यहां पहुँचे तो तुलसी जी ने लिखा-
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुताँ के आगे ठाढ भयउ कर जोरि।।
करबद्ध मुद्रा में अत्यंत विनम्र लघुरूपधारी अपने लाडले लाल हनुमान जी को देखकर जानकी माता बोली बेटा हनुमान !
लंका जला के जली भी नही हनुमान विचित्र है पूँछ तुम्हारी।
कौन सा जादू 'राजेश' भरा हँसि पुछति है मिथिलेश दुलारी।।
हनुमानजी ने उत्तर दिया-माँ !
बोले कपी हिंय राघव आगे हैं पीछे हैं पूँछ रहस्य हैं भारी।
बानर को भला पूछता कौन श्रीरामजी के पीछे है पूँछ हमारी।।
ऐसे परम् विनम्र श्रीराम-सेवाव्रती हनुमानजी के चरणों मे सत सत नमन।
जिनके लिए स्वंय भगवान शंकर कहते हैं-
हनुमान सम नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(राजेश रामायणी)
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