शनिवार, 20 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान कहते हैं - प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनिए  की वृत्ति में मन लगाया। उसे पराई स्त्रीयों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवो की हिंसा किया करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया। वहां से धन कमा कर घर की ओर लौटा। बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अंधकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए। उसके  धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।
उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था। उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी। जब वे नहीं आए तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़ कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोजकर्ता मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदन्तर  एक दिन एक मनुष्य से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान था। बहुत कुछ सोच विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया। मार्ग में सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्ष के नीचे पहुंचा जहां उसके पिता मारे गए थे। उस स्थान पर उसने संध्योपासना  की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया। इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिता को भयंकर आकाश में देखा, फिर तुरंत ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुंदर विमान दिखाई दिया, जो महान तेज से व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएं लगी थी। उसके तेज से समस्त दिशाएं आलोकित हो रही थी। यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गई। उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किए विराजमान देखा। उनके शरीर पर पीतांबर शोभा पा रहा था और मुनि जन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात उसने पिता से यह सारा वृत्तांत पूछा। उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-बेटा ! दैव बस में मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुस्त्यज कर्मबंधन से मुझे छुड़ा दिया। अतः अब घर लौट जाओ, क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है।
पिता के यूं कहने पर पुत्र ने पूछा- तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइए। तब पिता ने उससे कहा - अनघ ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाई ने भी किया था। इससे वह घोर नरक में पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सब का भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए, यही मेरा मनोरथ है। बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवो को संकल्प करके दे दो। इससे भी समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो स्वल्प काल में ही  श्री विष्णु के परम पद को प्राप्त हो जाएंगे। पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहा- तात यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार कर दूंगा।
यह सुनकर उनके पिता बोले बेटा एवमस्तु, तुम्हारा कल्याण हो, मेरा अत्यंत प्रिय कार्य संपन्न हो गया। इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गए। तत्पश्चात वह भी लौट कर जन्स्थान में आया और परम सुंदर भगवान श्री कृष्ण के मंदिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेश अनुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ  करने लगा। उसने नारकी जीवो का उद्धार करने की इच्छा से गीता पाठ जनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया। इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नारकी जीवो को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गए यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारो से उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले- धर्मराज हम लोगों के लिए सब ओर आनंद ही आनंद है। इस प्रकार सत्कार करके पितृलोक के सम्राट परम बुद्धिमान यमने विष्णुदूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।
तब विष्णुदूतों ने कहा- यमराज ! शेष शैया पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है। भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं। और यह आज्ञा देते हैं कि आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें। अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह  आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा।  तत्पश्चात मदोन्मत्त नारकी जीवो को नर्क से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले। यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहां छीर सागर है वहां जा पहुंचे उसके भीतर कोटि कोटि सूर्य के समान कांतिमान नील कमल दल के समान श्यामसुंदर लोकनाथ जगतगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया भगवान का तेज उनकी सैया बने हुए शेषनाग के फलो की मणियों के प्रकाश से दोगुना हो रहा था। वे आनंद युक्त दिखाई दे रहे थे उनका ह्रदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन  से प्रेम पूर्वक उन्हें बार-बार निहार रही थी। चारों ओर योगी जन भगवान की सेवा में खड़े थे। उन योगियों की आंखों के तारे ध्यानस्थ होने के कारण निश्चल प्रतीत होते थे। देवराज इंद्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्मा जी के मुख से निकले हुए वेदांत वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे। भगवान पूर्णता है संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे। जीवो में से जिन्होंने योग साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था उन सब को एक ही साथ वे कृपा दृष्टि से निहार रहे थे। भगवान अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत को आनंद पूर्ण दृष्टि से अनुमोदित कर रहे थे। शेषनाग की प्रभा से उद्भासित  एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किए नीलकमल के सदृश श्याम वर्ण वाले श्री हरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चांदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान की झांकी करके यमराज विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
यमराज बोले - संपूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अंतः करण अत्यंत निर्मल है । आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है। आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको नमस्कार है। अपने बल और वेग के कारण जो अत्यंत दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेंद्रो का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है। पालन के समय सत्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है। समस्त देहधारियों की पातक राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है। जिनके ललाटवरती ् नेत्रों के तनिक सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती है उन रूद्र रूप धारी आप परमेश्वर को नमस्कार है। आप संपूर्ण विश्व के गुरु आत्मा और महेश्वर हैं अतः समस्त वैष्णव जनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं।
आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते माया तथा माया जनित दोनों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता आप की महिमा का अंत नहीं है। क्योंकि आप असीम है फिर आप वाणी से विषय कैसे हो सकते हैं अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहा जगतगुरु आपके आदेश से इन जीवो को गुण रहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो उसे बताइए। उनके यू कहने पर भगवान मधुसूदन मेंघ के समान गंभीर वाणी द्वारा मानो अमृत रस से सींचते  हुए बोले- धर्मराज ! तुम सब के प्रति समान भाव रखते हुए लोको का पाप से उद्धार कर रहे हो। तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिंत हूं। अतः  तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ। यों कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। यमराज भी अपनी पूरी को लौट आए। तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार करके स्वयं विशेष विमान द्वारा श्री विष्णु धाम को चला गया।

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