तब भी कन्याएं पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोली मुनि गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्य को पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनताकी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्वलित अग्नियों के बीच में बैठते थे वर्षा काल में जल की धाराओं से उनके मस्तक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते थे तथा मन और इंद्रियों को संयम में रखते हुए परम शांति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे उसे सुनने के लिए साक्षात ब्रह्मा जी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे ब्रह्मा जी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था। अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे परमात्मा के ध्यान में निरंतर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपा को जीवन मुक्त के समान मानकर इंद्र को अपने समृद्धि साली पद के संबंध में कुछ भय हुआ तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्न डालने आरंभ किए अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इंद्र ने इस प्रकार आदेश दिया तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो जो मुझे इंद्र पद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है। इंद्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर जहां पे मुनि तपस्या करते थे आयी। वहां मंद एवं गंभीर स्वर से बचते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगे बीच-बीच में जरा जरा सा आंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी। हम दोनों की उम्मत गति काम भाव का उद्दीपन करने वाली थी। किंतु उसने उन निर्विकार चित्त वाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोध पूर्वक शाप दिया अरे तुम दोनों गंगा जी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहा महात्मा हम दोनों पराधीन थी अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें यूं कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे साथ उधर की अवधि निश्चित करते हुए कहा भरतमुनि के आने तक ही तुम पर यह सांप लागू होगा उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु लोक में जन्म होगा और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहेगी। मुनि जिस समय हम दोनों बेर वृक्ष के रूप में खड़ी थी उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शाप से ही नहीं इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।
भगवान कहते हैं - उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजत हो विदा लेकर जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तथा वे कन्याएं भी बड़े आदर के साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगी जिससे उनका उद्धार हो गया।
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