श्रीभगवान कहते हैं -- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य का उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अन्य अध्यायों के माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियों के पूजक, स्वाध्यायशील, वेद शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञ क अनुष्ठान करने वाले और तपस्वीयों के सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मणों को कभी सदा रहने वाली शांति ना मिली। वे परम कल्याणमय तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले तपस्वीयों की सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदन्तर एक दिन पृथ्वी पर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकांक्षा रहित, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखने वाले तथा शांतचित्त थे। निरंतर परमात्मा के चिंतन में संलग्न हो वे सदा आनंद विभोर रहते थे। देवशर्मा ने उन नित्य संतुष्ट तपस्वी को शुद्ध भाव से प्रणाम किया और पूछा-- महात्मन् ! मुझे शांतिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी? तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहा वही तुम्हें उपदेश देगा। यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वंदना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राम में पहुंचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा। उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था। उसके नेत्र आनंदातिरेक से निश्चल हो रहे थे-- वह अपलक दृष्टि से देख रहा था। वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकचित हुए परस्पर विरोधी जंतुओं से घिरा था। वहां उद्यान में मंद मंद वायु चल रही थी। मृगो के झुंड शांत भाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनंदमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गए। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया। तदन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य-चित्त से मित्रवान के समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछी- महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी ऐसे उपाय का उपदेश कीजिए जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो। देवशर्मा की बात सुनकर मित्रवान ने एक क्षण तक कुछ विचार किया इसके बाद इस प्रकार कहा विद्वन ! एक समय की बात है मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था। इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी। जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्यु के डरता था इसलिए व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहां से भाग चला। किंतु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस व्याघ्र के पास बेरोकटोक चली गई। फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोली व्याघ्र तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेम पूर्वक खाओ ना। तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है? व्याघ्र बोला- बकरी इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया। भूख प्यास भी मिट गई। इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता।व्याघ्र के यों कहने पर बकरी बोली ना जाने मैं कैसे निर्भय हो गई हूं। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ। यह सुनकर व्याघ्र ने कहा मैं भी नहीं जानता चलो सामने खड़े हुए इन महापुरुष से पूछें ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहां से चल दिए। उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देख कर मैं बहुत विस्मय में पड़ा था। इतने में ही उन्होंने मुझसे ही आकर प्रश्न किया। वहां वृक्ष की शाखा पर एक वानर राज था उन दोनों के साथ मैंने भी वानर राज से पूछा। विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानर राज ने आदर पूर्वक कहा- अजापाल ! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृतांत सुनाता हूं। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मंदिर है उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्मा जी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्व काल में यहां सुकर्मा नामक एक विद्वान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मंदिर में उपासना करते थे। वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहां निवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ। सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहा विद्वान मैं केवल तत्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूं। आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के यह मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक शिलाखंड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ एवं अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहा ब्राह्मण इससे तुम्हारा आत्मज्ञान संबंधी मनोरथ अपने आप सफल हो जाएगा। यूं कह कर वे विद्वान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अंतर्ध्यान हो गए। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरंतर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे। तदनंतर दीर्घकाल के पश्चात अंतःकरण शुद्ध होकर उन्हें तत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे जहां जहां गए वहां वहां का तपोवन शांत हो गया। उनमें शीतोष्ण और राग द्वेष आदि की बाधाएं दूर हो गई इतना ही नहीं उन स्थानों में भूख प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो।
मित्रवान कहता है- वानर राज के यू कहने पर में प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मंदिर की ओर गया। वहां जाकर शिलाखंड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी की आवृत्ति करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है। अतः भद्र पुरुष तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृत्ति किया करो ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान कहते हैं- प्रिय ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरंदरपुर की राह ली। वहां किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तांत निवेदन किया। और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अंतःकरण वाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे। तब से उन्होंने अनवद्य परम पद को प्राप्त कर लिया लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया।
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