शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय (हिंदी अनुवाद)

धृतराष्ट्र बोले हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठा हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडू पांडू के पुत्रों ने क्या किया? ।१।
इस पर संजय बोले उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जा कर यह वचन कहा ।२।
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान श्रेष्ठ द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।३।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं जैसे सत्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।४।
और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशी राज, पुरुजित कुंतीभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य।५।
और पराक्रमी योधामन्यु तथा बलवान उत्तममौजा,  सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र यह सब ही महारथी हैं।६।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ हमारे पक्ष में भी जो जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए आपके जानने के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उनको कहता हूं।७।
एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। ८।
तथा और भी बहुत से शूरवीर  अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सब के सब युद्ध में चतुर हैं।९।
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।१०।
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोगों सब के सब ही निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। ११।
इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहकी नाद के समान गर्ज कर शंख बजाया।१२।
उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल मृदंग और नृसिंहादि बाजी एक साथ ही बजे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। १३।
उसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी आलौकिक शंख बजाए। १४।
उनमें श्री कृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।१५।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक शंख और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।१६।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सत्यकि।१७।
तथा राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सबने हे राजन ! अलग-अलग शंख बजाए।।१८।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए। १९।
हे राजन ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ऋषिकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रात को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए। २०-२१।
जब तक मैं इन स्थिर हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है।२२।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।२३।
संजय बोले, हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए
 महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ ! इन इकट्ठा हुए कौरवों को देख। २४-२५।
उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहोंको, आचार्योंको, मामों को, भाइयों को, मित्रों को, पुत्रों को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुहृदों को भी देखा।२६।
इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे अत्यंत करुणा से युक्त हुए कुंती पुत्र अर्जुन शोक करते हुए यह बोले।२७।
हे कृष्ण ! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच होता है।२८-२९।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।३०।
हे केशव ! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। ३१।
हे कृष्ण ! मैं विजय नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता हे गोविंद ! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।३२।
क्योंकि हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित है, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।३३।
जो कि गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं। ३४।
इसलिए हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। ३५।
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ३६।
इससे हे माधव ! अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।३७।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए यह लोग कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं।३८।
परंतु है जनार्दन ! कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए।३९।
क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दवा लेता है।४०।
तथा हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और हे वाष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।४१।
और वह वर्णसंकर कुल घातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लोप हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। ४२।
और इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घातियों के सनातन धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।४३।
तथा हे जनार्दन ! नष्ट हुए कुल धर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हमने सुना है। ४४।
अहो ! शोक है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हुए हैं जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्धत हुए हैं। ४५।
यदि मुझे शस्त्र रहित ना सामना करने वालों को शस्त्र धारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारे तो वह मारना भी मेरे लिए अति कल्याण कारक होगा।४६।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए। ४७।


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