शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

व्रतपर्वोत्सव-- एक समीक्षा

व्रत पर्व औऱ उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन है, इसमें आनंदोल्लास के साथ ही हमे उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती हैं। वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव आनंद से ही है और और यह सृष्टि आनंद में ही स्थित भी है। भारतीय पर्वो के मूल में इसी आनंद और उल्लास का पूर्ण समावेश है। दुख, भय, शोक, मोह तथा अज्ञान की आत्यंतिक निवृति औऱ अखण्ड आनंद की प्राप्ति ही इन व्रतपर्वोत्सवो का लक्ष्य है। यही कारण है कि ये व्रत और पर्व प्राणी को अंतर्मुख होने की प्रेरणा करते हैं। स्नान, पूजन, जप, दान, हवन तथा ध्यान आदि कृत्य एक प्रकार के व्रत है। इसमें प्रत्येक मनुष्य की बाह्य वृत्ति को अंतर्मुख करने में समर्थ है।
* व्रत  *
व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है।
व्रतों में तीन बातों की प्रधानता है--१-- संयम नियम का पालन, २--देवाराधन तथा ३-- लक्ष्य के प्रति जागरूकता। व्रतों से अन्तःकरण की शुद्धि के साथ साथ बह्य वातावरण में भी पवित्रता आती है। तथा संकल्पशक्ति में भी दृढ़ता आती है। इनसे मानसिक शान्ति औऱ ईश्वर की भक्ति भी प्राप्त होती है। भौतिक दृष्टि से स्वास्थ्य में भी लाभ होता है अर्थात रोगों की आत्यंतिक निवृत्ति होती है। यद्यपि रोग भी पाप है और ऐसे पाप व्रतों से ही दूर होते हैं तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित सभी प्रकार के पाप, उपपाप, औऱ महापापादि भी व्रतों से दूर होते हैं।
--व्रतों के भेद- व्रत दो प्रकार से किए जाते हैं १- उपवास अर्थात निराहार रहकर और २- एक बार संयमित आहार के द्वारा। इन व्रतों के कई भेद है- १-कायिक- हिंसा आदि के त्याग को कायिक व्रत कहते हैं। २- वाचिक-कटुवाणी, पिशुनता(चुगली) तथा निंदा का त्याग और सत्य परिमित तथा हितयुक्त माधुर भाषण 'वाचिकव्रत' कहा जाता है। ३- मानसिक- काम, क्रोध, मद, मात्सर्यं, इर्ष्या, तथा राग- द्वेष आदि से रहित रहना 'मानसिकव्रत' है।
मुख्य रूप से हमारे यहाँ तीन प्रकार के व्रत माने गए है--१- नित्य, २ नैमित्तिक और ३-काम्य। नित्य वे व्रत है जो भक्तिपूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कार्तव्यभाव से किए जाते हैं। एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा आदि व्रत इसी प्रकार के है। किसी निमित्त से जो व्रत किये जाते हैं वे नैमित्तिकव्रत कहलाते हैं। पापक्षय के निमित्त चांद्रायण, प्राजापत्य आदि व्रत इसी कोटि में है। किसी विशेष कामना को लेकर जो व्रत किये जाते हैं वे 'काम्यव्रत' कहे जाते हैं। कन्याओं द्वारा वर प्राप्ति के लिए किये गए गौरीव्रत, वटसावित्रीव्रत आदि काम्यव्रत है। इसके अतिरिक्त भी व्रतों के एकभुक्त, अयाचित तथा मितभुक और नक्तव्रत आदि कई भेद है।
*व्रतों के अधिकारी*
धर्मशास्त्रों के अनुसार अपने वर्णाश्रम के आचार-विचार में रत रहने वाले, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी, सम्पूर्ण प्राणियों का हित चाहने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान तथा पहले से निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले व्यक्ति ही वृताधिकारी होते हैं।
उपयुक्त गुण सम्पन्न ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्री और पुरूष सभी व्रत के अधिकारी है।*सौभाग्यवती स्त्री के लिये पति की अनुमति से ही व्रत करने का विधान है।
यथाविधि व्रतों के समाप्त होने पर अपने सामर्थ्य अनुसार व्रत का उद्यापन भी करना चाहिये। उद्यापन करने पर ही व्रत की सफलता है।
व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है जो शुद्ध सरल औऱ सात्विक हो तथा उनका विशेष मनोयोग तथा निष्ठापूर्वक पालन किया जाये। कुछ लोग व्यवहारिक जीवन मे सत्य बोलने का प्रयास करते है औऱ सत्य का आचरण भी करते हैं, परंतु कभी कभी उनके जीवन मे कुछ ऐसे क्षण आ जाते हैं कि लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्हें असत्य का आश्रय लेना पड़ता है तथा वे उन क्षणों में झूठ भी बोल जाते हैं। इस प्रकार वे व्यक्ति सत्यव्रती नही  कहे जा सकते। अतः आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियो न छोड़ना व्रत है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर जीवन व्यतीत करने का अभ्यास ही व्रत है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठ कर्मो के सम्पादन की योग्यता आती हैं, कठिनाइयों में आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है, आत्मविश्वास दृढ़ होता हैं और अनुसासन की भावना विकसित होती है। आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक कक्षा व्रत पालन ही है। इसी से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। व्रताचरण से मानव महान बनता हैं।
*पर्वोत्सव*
भरतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सव के आनंद एवं उल्लास से परिपूर्ण हो इन पर्वो में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए है। आज भी अनेक विघ्न बाधा ओ के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की सम्पूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है। इसका एकमात्र श्रेय हमारी परम्पराओं को ही है। ये पर्व समय- समय पर सम्पूर्ण समाज को नयी चेतना प्रदान करते हैं तथा जीवन की नीरसता को दूर करके जीवन मे उल्लास भरते हैं और उत्तरदायित्वो का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
पर्व का शाब्दिक अर्थ है- गाँठ अर्थात संधिकाल।
हिन्दू पर्व सदा संधिकाल में ही पड़ते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी तथा संक्रांति आदि को शास्त्रों में पर्व कहा गया है। शुक्लपक्ष की तथा कृष्णपक्ष की संध्यावेलाओ में से अमावस्या तथा पूर्णिमा पर्व है। सूर्य संक्रमण में परिवर्तन होने से संक्रांति भी पर्व है। दैनिक जीवन में प्रातः मध्यान तथा संध्याकाल- त्रिकाल की संध्या भी संधिकाल में होने के कारण पर्व के रूप में अभिहित है।
*पर्वो के भेद*
१-दिव्यपर्व, 
२-देवपर्व
३-पितृपर्व
४-कालपर्व
५-जयंतिपर्व
६-प्राणिपर्व
७-वनस्पतिपर्व
८-मानवपर्व
९-तीर्थपर्व
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