शुक्रवार, 7 मई 2021

ईश्वर का मंगलमय विधान

एक राज्य में एक मंत्री थे वे हर घटना में ईश्वर की मंगलमय इच्छा देखते थे। एक दिन राजा आपने अस्त्र शस्त्र  का निरीक्षण कर रहे थे। एक तलवार की धार पर उंगली फेर कर धार का निरीक्षण कर रहे थे। धार तेज होने के कारण राजा की उंगली का एक पोर कट गया खून की धार निकल पड़ी जब मंत्री ने देखा तो उनके मुख से अचानक निकल गया चलो ये भी ठीक हुआ मंत्री की बात सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया औऱ उन्होंने मंत्री को कारागार में डाल दिया। जैसे ही मंत्री को कारागार में डाला गया मंत्री ने फिर से कहा चलो ये भी अच्छा हुआ। कुछ दिन के बाद राजा जंगल मे आखेट के लिए गए और रास्ता भटक गए और भीलो के देश मे पहुँच गए। जहाँ कबीले के सरदार ने कोई आयोजन रखा था जिसमे मनुष्य की बलि की आवश्यकता थी और भील किसी मनुष्य की तलाश कर रहे थे तभी उनकी नजर राजा पर पड़ी और वह राजा को बांधकर सरदार के पास ले गए पूजन के बाद वलि की तैयारी शुरू की गई। सरदार ने आदेश दिया कि पहले इसका निरीक्षण करो इसका कोई अंग भंग तो नही क्योकि जब टूटे हुए चावल भगवान को नही चढ़ते तो खंडित मनुष्य की वलि कैसे चढ़ाई जा सकती है। राजा के शरीर का निरीक्षण करने पर राजा की कटी हुई उंगली देखकर भीलो ने राजा को छोड़ दिया। जैसे ही राजा को छोड़ा गया राजा को मंत्री की बात याद आ गयी और वह सीधे मंत्री के पास जा पहुँचे। मंत्री को कारागार से बाहर लाया गया राजा ने मंत्री से पूछा आपने मेरी उंगली कटने पर ये क्यो कहा था कि चलो ये भी ठीक हुआ यह तो मुझे समझ मे आ गया लेकिन जब मैंने आपको कारागार में डाला तब आपने ये क्यो कहा कि चलो ये भी ठीक हुआ? राजा की बात सुनकर मंत्री बोला महाराज पहले तो मैने इसलिए बोला था कि चलो ये भी ठीक हुआ क्योंकि अगर उस दिन आपकी उंगली नही कटती तो आज आपका सिर कट जाता। और दूसरी बार इसलिए बोला था कि मैं आपका सबसे विश्वसनीय मंत्री हूँ और हर समय आपके साथ रहता हूँ। अगर उस दिन आपने मुझे कारागार में नही डाला होता तो आज आप तो उंगली कटी होने के कारण बच गए परंतु मैं नही बचता। मेरी तो आज वलि चढ़ जाती । इसलिए ईश्वर जो भी करता है उसमें कही न कही हमारा हित छुपा रहता है। हमारी शोच जहाँ पर समाप्त होती है वहां से उसकी सोच प्रारम्भ होती है। हम अपने एक मष्तिष्क से सोचते हैं उसके तो अनंत मष्तिष्क है। उसका निर्णय हमे प्रारंभ में कष्टकारी जरूर लगता है किंतु उसमे कहि न कही हमारा हित छुपा रहता है। कोई भी पिता अपने बच्चो के साथ अन्याय नही कर सकता फिर वह तो परम पिता है। ये सारा संसार उसी का है। औऱ हम सब उसके बच्चे। और अगर कोई छोटा बच्चा अपने पिता से मिर्च दिलाने की जिद करने लगे तो क्या पिता उसे मिर्ची दे सकता है। औऱ अगर किसी बच्चे को फोड़ा हो जाता है तो माता पिता हिर्दय पर पत्थर रखकर उसको चीरा लगवा देते हैं ताकि बच्चे को कष्ट से मुक्ति मिल जाये।

गुरुवार, 6 मई 2021

सारा संसार किसका है?

किसी गाँव मे एक एक महात्मा रहते थे। वे बड़े ही शांत, धीर, और हर एक घटना में परमात्मा की इच्छा को देखते थे। उनके चर्चे बहुत दूर दूर तक फैले हुए थे। एक दिन एक व्यक्ति महात्मा के पास आया और बोला हे महात्मा ! मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ कृपया मुझे अपनी शरण मे ले महात्मा बोले- ठीक है आज से तू मेरा शिष्य बन गया। व्यक्ति बोला- परन्तु महात्मा जी मैं चोरी करता हूँ, महात्मा बोले- कोई बात नही। व्यकि बोला - महात्मा जी मैं मास, मदिरा का सेवन करता हूँ। महात्मा बोले- कोई बात नही। व्यकि बोला - महात्मा जी मैं व्यभिचारी हूँ, लूटपाट करता हूँ, यहाँ तक कि धन के लिए लोगो की हत्या तक कर देता हूँ। महात्मा बोले- ठीक है कोई बात नही।
महात्मा की बात सुनकर वह व्यक्ति महात्मा के चरणों मे गिर गया और बोला- महात्मा जी मैंने आपको अपनी सारी बुराई बताई इसके बाद भी आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर रहे हैं ऐसा क्यों? 
महात्मा बोले - ये पृथ्वी किसकी है?
व्यक्ति बोला -भगवान की
महात्मा बोले- ये वायु, जल ,अकाश, सुर्य, चंद्रमा, अन्न सब किसके हैं?
व्यकि बोला- सब भगवान के है।
महात्मा बोले- जब सब कुछ उस परमपिता का है और उसको तुमसे कोई परेशानी नही तो मैं उसके निर्णय के विरुद्ध जाकर क्यो उसके निर्णय पर उंगली उठाऊ।
अगर उसको तुमसे परेशानी होती तो वह क्षण भर में तेरी सांसे रोक देता। मैं कौन होता हूँ उसके निर्णय के विरुद्ध जाने वाला।
वह व्यक्ति महात्मा के चरणों मे पड़ गिड़गिड़ाने लगा।
और एक अच्छा शिष्य औऱ नगरिक बन गया।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

कामदगिरि-चित्रकूट-परिक्रमा

भारतवर्ष तीर्थो का देश है धर्मप्राण भारतीय संस्कृति के भव्य भवन को संभालने वाले सुदृढ आधारस्तंभो के रूप में स्थित इन अगणित पुनीत तीर्थों से शोभित यह धराधाम धन्य-धन्य हो रहा है। हमारे तीर्थ हमारी आस्था के केंद्रबिंदु है।
चित्रकूटधाम-कामदगिरि एक ऐसा ही अरण्यतीर्थ है जो भारतवर्ष का हृदयबिन्दु है। चित्रकूट धाम की परिधि में श्री कामदगिरि स्थित है। यह स्थल सृष्टि के प्रारंभकाल से ही एक अति रमणीक पुनीत सिद्ध तपोवन रहा है।
         ।।कामदगिरि-परिक्रमा।।
चित्रकूट आनेवाला हर श्रद्धालु मंदाकिनी गंगास्नान औऱ कामदगिरि की परिक्रमा जरूर करता है। मान्यता हैं कि भगवान श्रीरामजी वनवास काल मे लक्षण और सीता सहित कामदगिरि का आश्रय लेकर बारह वर्ष तक चित्रकूट में रहे थे। वाल्मीकि रामायण में यह अवधि दस वर्ष मानी गयी हैं।
रघुपति चित्रकूट बसि नाना।
चरित किए श्रुति सुधा समाना।।
अतः श्रद्धालु जन कामदगिरि को साक्षात भगवद्विग्रह मानकर उसका पूजन, अर्चन, दर्शन तथा उसकी परिक्रमा करते हैं 'कामदमनि कामदा कलप तरु' अथवा 'कामदा भे गिरि राम प्रसादा' -जैसी तुलसीदास की उक्तियाँ आज लोकमान्यता का रूप ले चुकी है। अतः कामदगिरि को सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला देवता माना जाता है। कामदगिरि-परिक्रमा की प्रथा बड़ी प्राचीन हैं।
कामदगिरि के उत्तर द्वार (मुख्य द्वार) मुखारविंद से परिक्रमा प्रारम्भ होती हैं। परिक्रमा मार्ग में प्राचीन एवं नवीन सैकड़ों देवालय है, जिनमे मुखारविंद, भरतमिलाप, बहरा हनुमान तथा पीलीकोठी के मंदिर दर्शनीय है। परिक्रमा से संलग्न लक्ष्मणपहाड़ी की चोटी पर बने लक्ष्मण मंदिर एवं कुँए को देखने श्रद्धालु लोग जाते हैं। कामदगिरि परिक्रमा स्थल हर जाति, धर्म, वर्ग एवं सम्प्रदाय के लिए सदैव खुला रहता है। कामदगिरि की ५ कि०मि०लम्बी परिक्रमा नंगे पैर करने की प्रथा हैं। कुछ लोग लेटकर परिक्रमा करते हैं, जिसे स्थानीय भाषा मे 'दण्डवती-परिक्रमा' कहते हैं।
मान्यता है कि कामदगिरि के दर्शन, पूजन और परिक्रमा करने से लोगो की मनोकामना पूरी होती हैं। दीपावली में कामदगिरि और मंदाकिनी गंगा में दीपदान करने से इच्छित लाभ मिलता हैं तथा सोमवती अमावस्या पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ बनी रहती है।
           ।।विशेषपर्व और मेले।।
सावनझुला, नवरात्र, दीपावली, रामनवमी तथा विवाह पंचमी, प्रायः सभी तीज-त्योहार, सूर्य और चंद्रग्रहण, प्रत्येक मास की अमावस्या और रामायण मेला आदि उत्सव यहाँ मनाये जाते हैं। वर्षभर प्रतिदिन आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ यहाँ बनी रहती है। बुंदेला-पन्ननरेश महाराज छत्रसाल ने सन १६८८ ई० में मुग़लसेनापति अब्दुल हमीद को हराकर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया और पन्ना को अपनी राजधानी बनाया। हिन्दुधर्म और संस्कृति का विशेष प्रेमी पन्नाराज परिवार चित्रकूट धाम की महिमा मंडित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। कहा जाता है। कहा जाता है कि कामदगिरि-परिक्रमा का पक्का मार्ग सर्वप्रथम महाराज छत्रसाल की धर्मपत्नी चंद्रकुवरी ने ही सन १७५२ ई० में बनवाया था। जिसका पुनरुद्धार महाराज अमानसिंह के कार्यकाल में हुआ। महाराज अमानसिंह(१८वी सदी का उत्तरार्द्ध)-ने चित्रकूटधाम-कामदगिरि में अनेक मठो, मंदिरों, कुआँ औऱ घाटो का निर्माण कराया तथा उसमें माफियाँ लगायी। १९वी सदी के पन्ननरेश हिंदुपत ने भी उदार वंश परंपरा का निर्वाह किया और धीरे-धीरे चित्रकूटधाम में पन्ना-राजघराने के द्वारा बनाये गये मठ और मंदिरो की संख्या बहुत बढ़ गयी। इस जनप्रिय राजघराने से सम्मान पाने के कारण इस अवधि में चित्रकूट का महत्व भी जनसामान्य में विशेषरूप से प्रचारित हुआ।
चित्रकूट ऋषिमुनियों की तपस्थली ही नही अपितु हजारो, लाखो लोगो की श्रद्धा का केन्द्रविन्दु भी है।
वही कामद चितकूट स्थली यह।
सियाराम की पुण्यलीला स्थली यह।।
तपो पूत रम्या अरण्य स्थली यह।
सभी के लिये स्वर्ग की स्थली यह।।

श्री हनुमानजी का सेवा व्रत

श्रीरामजी के सेवको में हनुमानजी अद्वतीय है तभी तो भगवान श्रीशंकर जी कहते हैं-
हनुमान सम नही नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(रा०च०मा० ७/५०/८-९)
यद्यपि बड़भागी तो अनेक है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने वाला प्रत्येक प्राणी बड़भागी है क्योंकि-
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
परंतु मनुष्य शरीर प्राप्तकर सच्चे अर्थ में बड़भागी तो वही है जो श्री राम कथा का श्रवण करे-
जे सुनि सादर नर बड़भागी।
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।
तथा श्री राम कथा का श्रवण करके जो श्री रामानुरागी हो जाते हैं वे मात्र बड़भागी ही नही, अपितु अति बड़भागी है, तभी तो वानर कहते हैं-
हम सब सेवक अति बड़भागी।
संतत सगुन ब्रम्ह अनुरागी।।
जो भक्ति मार्ग पर चलकर भगवान की ओर बढ़ते हैं वे अति बड़भागी है, किंतु भगवान कृपापूर्वक जिसके पास स्वयं चलकर पहुँच जाते हैं वे तो अतिसय बड़भागी है, तभी तो तुलसीदास जी माता अहिल्या के लिए लिखते हैं-
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी।
परन्तु परहित के भाव से प्रभु की सेवा में देहोत्सर्ग कर देने वाले श्रीजटायुजी को भी श्रीरामचरितमानस की भावभरी भाषा मे परम् बड़भागी कहकर संबोधित किया गया है। यथा-
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम् बड़भागी।।
भगवान शंकर जी कहते हैं कि भले ही कोई बड़भागी, अतिशय बड़भागी और परम् बड़भागी बना रहे किंतु-
हनुमान सम नहिं बड़भागी।
क्योकि-
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार  बार प्रभु निज मुख गाई।।
हनुमानजी श्रीरामजीके प्रति सेवाभाव से समर्पित हैं किंतु उन्हें सेवक होने का अभिमान नही है, क्योंकि उनका मन प्रभुप्रीति से भरा है। 'प्रीति सेवकाई' दोनोका उनमे मणिकंचनयोग दिखाई देता है। वे अपने को प्रभु के हाथों का बाण समझते हैं-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
किसीने बाण से पूछा कि तुम्हारे चरण तो है नही फिर भी तुम चलते हो अर्थात साधन के विना तुम्हारी गति कैसे होती है तो बाण ने उत्तर दिया कि मैं आपने चरण से नही वर्ण मै अपने स्वामी के हाथ से चलता हूँ। मैं तो साधन हीन हूँ मेरी गति तो भगवान के हाथ है। इस प्रकार हनुमानजी अपने को श्रीरामजी का बाण समझ कर सेवा करते हुए अपनी प्रत्येक सफलता में भगवान की कृपा का हाथ देखते है। इसलिये जब माता जानकी जी ने उलाहना देते हुए कहा- हनुमान! प्रभु तो अत्यंत कोमलचित हैं, किंतु मेरे प्रति उनके कठोरतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या है? 
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
इतना कहते-कहते माता मैथिली अत्यंत व्यथित हो गयी, उनके नेत्र निर्झर हो गये। कण्ठ अवरुद्ध हो गया। अत्यंत कठिनता से वे इतना ही कह पायी की आह ! प्रभु ने मुझे भी भुला दिया।
बचनु न आव नयन भर बारी।
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।।
हनुमानजी ने निवेदन किया माँ ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है तो जानकी माता ने पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि प्रभु ने मुझे भुलाया नही है, तब हनुमानजी ने प्रति प्रश्न करते हुए कहा माता! माता प्रभु ने आपको भुला दिया है इसका क्या प्रमाण है?  जानकी जी ने कहा चित्रकूट में इंद्र पुत्र जयंत ने कौआ बनकर जब मेरे चरण में चोच का प्रहार किया तो प्रभु ने उसके पीछे ऐसा बाण लगाया कि उसे कहि त्राण नही मिला, किंतु आज मेरा हरण करने वाला रावण त्रिकुट पर बसी लंका में आराम से रह रहा है, इसलिए लगता है-
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।
तब हनुमानजी ने कहा - माता प्रभु ने जयंत के पीछे तो सींक रूप में बाण लगाया था-
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना।।
माता जी ! सोचिये लकड़ी की छोटी सी सींक, क्या बाण बनी होगी ! जानकी जी बोली पुत्र बात सींक की नही प्रभु के संकल्प की है।
प्रेरित मंत्र ब्रम्हसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा।।
हनुमानजी ने फिर कहा - माता यदि जयंत के पीछे प्रभु ने सींक के रूप में बाण लगा दिया तो क्या यह सम्भव नही कि रावण के पीछे प्रभु ने वानर रूपी बाण लगा दिया हो। हे माता ! आप कृपापूर्वक देखिये तो आपके समक्ष हनुमान के रूप में श्रीरामजी का बाण ही उपस्थित है-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
माता ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है आप चिंता न करे-
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदय धीर धरु जरे निसाचर 
जानु।।
अब यहाँ रघुपति बाण से 'जिमि अमोघ रघुपति कर बाना' तथा कृसानु से 'दनुजवनकृशानुं' का संकेत मिलता हैं।
श्री जानकी माता अति प्रसन्न होकर बोली - बेटा ! तुमने  मेरे मन का भ्रम मिटा दिया मैं समझ गई कि रामबाण के रूप में तुम मेरे समक्ष उपस्थित हो। हनुमानजी बोले त्राहि त्राहि माता आप ऐसा न बोले आपको तो पहले से ही ये विदित था कि श्रीरामबान के रूप में यहां हनुमान उपस्थित है। तभी तो आपने रावण को फटकारते हुए कहा था-
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नही रघुवीर बान की।।
उपयुक्त प्रसंग में इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि हनुमानजी अपने को प्रभु का बाण अर्थात उनके हाथ का यंत्र समझते हैं। तभी तो लंकादहन-जैसा दुष्कर करके जब वे जानकी जी के यहां पहुँचे तो तुलसी जी ने लिखा-
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुताँ के आगे ठाढ भयउ कर जोरि।।
करबद्ध मुद्रा में अत्यंत विनम्र लघुरूपधारी अपने लाडले लाल हनुमान जी को देखकर जानकी माता बोली बेटा हनुमान !
लंका जला के जली भी नही हनुमान विचित्र है पूँछ तुम्हारी।
कौन सा जादू 'राजेश' भरा हँसि पुछति है मिथिलेश दुलारी।।
हनुमानजी ने उत्तर दिया-माँ !
बोले कपी हिंय राघव आगे हैं पीछे हैं पूँछ रहस्य हैं भारी।
बानर को भला पूछता कौन श्रीरामजी के पीछे है पूँछ हमारी।।
ऐसे परम् विनम्र श्रीराम-सेवाव्रती हनुमानजी के चरणों मे सत सत नमन।
जिनके लिए स्वंय भगवान शंकर कहते हैं-
हनुमान सम नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(राजेश रामायणी)







सोमवार, 12 अप्रैल 2021

नरको का स्वरूप, नरको में प्राप्त होने वाली विविध यातनाएं तथा नरको में गिराने वाले कर्म एवं जीव की शुभाशुभ गति

श्रीसूतजी ने कहा- पूछे गये आपने प्रश्नों का सम्यक उत्तर सुनकर पक्षीराज गरुड़ अतिसय आह्लादित हो भगवान विष्णु से नरको के स्वरूप को जानने की इच्छा प्रकट की।
गरुड़ ने कहा- हे उपेंद्र! आप मुझे उन नरको का स्वरूप और भेद बताये, जिनमे जाकर पापीजन अत्यधिक दुःख भोगते है।
श्रीभगवान ने कहा- हे अरुण के छोटे भाई
 गरुड़! नरक तो हजारों है। सभी को विस्तृत रूप में बताना सम्भव नही है। अतः मैं आपको मुख्य मुख्य नरको को बता रहा हूँ।
हे पक्षीराज ! तुम मुझसे यह जान लो की 'रौरव' नामक नरक अन्य सभी की अपेक्षा प्रधान है। झूठी गवाही देने वाला और झुठ बोलने वाला व्यक्ति रौरव नरक में जाता है। इसका विस्तार दो हजार योजन है। जांघ भर की गहराई में वहाँ दुस्तर गड्ढा है। दहकते हुए अंगारो से भरा हुआ वह गड्ढा पृथ्वी के समान बराबर(समतल भूमि-जैसा) दिखता है। तीव्र अग्नि से वहाँ की भूमि भी तप्तआँगर जैसी है। उसमें यम के दूत पापियो को डाल देते हैं। उस जलती हुई अग्नि से संतप्त होकर पापी उसी में इधर उधर भागता  है। उसके पैरों में छाले पड़ जाते हैं, जो फूट कर बहने लगते हैं। रात दिन वह पापी पैर उठा उठा कर चलता है।इस प्रकार जब वह उस नरक का विस्तार पार कर लेता है, तब उसे पाप की शुद्धि के लिये उसी प्रकार के दूसरे नरक में भेजा जाता है।
है पक्षीराज! इस प्रकार मैने तुम्हे रौरव नामक प्रथम नरक की बात बता दी। अब तुम महारौरव नरक की बात सुनो। यह नरक पाँच हजार योजन में फैला हुआ है।
वहाँ की भूमि ताँवे के समान वर्ण वाली है।उसके नीचे अग्नि जलती रहती है। वह भूमि विद्युत-प्रभा के समान कांतिमान है। देखने मे वह पापियों को महाभयंकर प्रतीत होती है। यमदूत पापी व्यक्ति के हाथ-पैर बाँधकर उसे उसी में लुढ़का देते हैं और वह लुढ़कता हुआ उसी में चलता है। मार्ग में कौआ, बगुला, भेड़िया, उलूक, मच्छर और बिच्छू आदि जीव-जंतु क्रोधातुर होकर उसे खाने के लिए तत्पर रहते हैं। वह उस जलती हुई भूमि एवं भयंकर जीव-जंतुओं के आक्रमण से इतना संतप्त हो जाता है कि उसकी बुद्धि ही भृष्ट हो जाती है। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगता है तथा बार बार उस कष्ट से बेचैन हो उठता है। उसको वहाँ कही पर भी शांति नही प्राप्त होती। इस प्रकार उस नरकलोक के कष्ट को भोगते हुये पापी के जब हजारो वर्ष बीत जाते हैं, तब कही जाकर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
इसके बाद जो नरक है उसका नाम 'अतिशीत' है। यह स्वभावतः अत्यंत शीतल है। महारौरव नरक के समान ही उसका विस्तार भी बहुत लंबा है। वह गहन अंधकार से व्याप्त रहता है। असहाय कष्ट देने वाले यमदूतों के द्वारा पापिजन लाकर यहां बाँध दिये जाते है। अतः वे एक दूसरे का आलिंगन करके वहाँ की भयंकर ठंडक से बचने का प्रयास करते हैं। उनके दांतो में कटकटाहट होने लगती है। हे पक्षीराज ! उनका शरीर वहाँ की उस ठंडक से काँपने लगता है। वहाँ भूख-प्यास बहुत अधिक लगती है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें वहाँ अनेक कष्टो का सामना करना पड़ता है। वहाँ हिमखंड का वहन करने बाली वायु चलती हैं, जो शरीर की हड्डियों को तोड़ देती है। वहां के प्राणी भूख से त्रस्त होकर मज्जा, रक्त और गल रही हड्डियों को खाते हैं। परस्पर भेट होने पर वे सभी पापी एक दूसरे का आलिंगन कर भ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार उस तमसावृत्त नरक में मनुष्य को बहुत से कष्ट झेलने पड़ते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! जो व्यक्ति अन्यान्य असंख्य पाप करता है वह इस नरक के अतिरिक्त 'निकृन्तन' नाम से प्रसिद्ध दूसरे नरक में जाता है। हे खगेन्द्र ! वहाँ अनवरत कुम्भकार के चक्र के समान चक्र चलते रहते हैं, जिनके ऊपर पापिजनो को खड़ा करके यम के अनुचरो के द्वारा अँगुली में स्थित कालसूत्र से उनके शरीर को पैर से लेकर शिरोभाग तक छेदा जाता है। फिर भी उनका प्राणान्त नही होता। इसमें शरीर के सैकड़ों भाग टूटकर छिन्न -भिन्न हो जाते हैं और पुनः इक्कठे हो जाते हैं। इस प्रकार यमदूत पापकर्मियो को वहाँ हजारो वर्ष तक चक्कर लगवाते है। जब सभी पापो का विनाश हो जाता हैं, तब कही जाकर उन्हें उस नरक से मुक्ति प्राप्त होती है।
अप्रतिष्ट नामका एक अन्य नरक है वहाँ जाने वाले प्राणी असहाय दुख का भोग भोगते है। वहाँ पापकर्मियो के दुख के हेतुभूत चक्र और रहट लगे रहते हैं। जबतक हजारो वर्ष पूरे नही हो जाते, तबतक वह रुकता नही। जो लोग उस चक्र पर बाँधे जाते हैं, वे जल के घट की भाँति उस पर घूमते रहते है। पुनः रक्त का वमन करते हुए उनकी आंते मुख की ओर से हाहर आ जाती है और नेत्र आँतो में घुस जाते हैं। प्राणियों को वहाँ जो दुख प्राप्त होते हैं, वे बड़े ही कष्टकारी है।
हे गरुड़ ! अब 'असिपत्रवन' नामक दूसरे नरक के बारे में सुनो। यह नरक एक हजार योजन में फैला हुआ है। इसकी सम्पूर्ण भूमि अग्नि से व्याप्त होने के कारण अहनिश जलती रहती हैं। इस भयंकर नरक में सात-सात सूर्य अपनी सहस्त्र-सहस्त्र रश्मियों के साथ सदैव तपते रहते हैं, जिनके संताप से वहाँ के पापी हर क्षण जलते ही रहते हैं। इसी नरक के मध्य एक चौथाई भाग में 'शीतस्निग्धपत्र' नाम का एक वन है। है पक्षिश्रेष्ठ ! उसमे वृक्षों से टूटकर गिरे फल और पत्तो के ढेर लगे रहते हैं। मांसाहारी बलवान कुत्ते उसमे विचरण करते रहते है। वे बड़े -बड़े मुख वाले, बड़े-बड़े दांतो वाले तथा व्याघ्र की तरह महाबलवान है। अत्यंत शीत एवं छाया से व्याप्त उस नरक को देखकर भूख - प्यास से पीड़ित प्राणी दुखी होकर करुण क्रंदन करते हुए वहाँ जाते हैं। ताप से तपती हुई पृथ्वी की अग्नि से उनके दोनों पैर जल जाते हैं, अत्यंत शीतल वायु बहने लगती है, जिसके कारण उन पापियों के ऊपर तलवार के समान तीक्ष्ण धार वाले पत्ते गिरते हैं। जलते हुए अग्नि समूह से युक्त भूमि में पापिजन छिन्न -भिन्न होकर गिरते हैं। उसी समय वहाँ के रहने वाले कुत्तों का आक्रमण भी  उन पापियों पर होने लगता है। शीघ्र ही वे कुत्ते रोते हुए उन पापियों के शरीर के माँस को खण्ड- खण्ड करके खा जाते हैं।
हे तात ! असिपत्रवन नामक नरक के विषय को मैने बता दिया। अब तुम महाभयानक 'तृप्तकुम्भ' नामक नरक का वर्णन मुझसे सुनो- इस नरक में चारो ओर  फैले हुए अत्यंत गरम-गरम घड़े है। इनके चारो ओर अग्नि प्रज्वलित रहती है, वे उबलते हुये तैल और लौह के चूर्ण से भरे रहते हैं। पापियों को ले जाकर उन्ही में औधे मुख डाल दिया जाता है। गलती हुई मज्जारूपी जल से युक्त उसी में फूटते हुए अङ्गों वाले पापी काढ़ा के समान बना दिये जाते हैं। तदन्तर भयंकर यमदूत नुकीले हथियारों से उन पापियों की खोपड़ी, आँखों तथा हड्डियों को छेड़कर नष्ट करते हैं। गिद्द उनपर बड़ी तेजी से झपट्टा मारते हैं। उन उबलते हुए पापियो को अपनी चोंच से खीचते है और फिर उसी में छोड़ देते हैं। उसके बाद यमदूत उन पापियों के सिर, स्नायु, द्रवीभूत माँस, त्वचा आदि को जल्दी-जल्दी करछुल से उसी तेल में घूमते हुए उन पापियों का काढ़ा बना डालते हैं।
हे पक्षिन ! यह तप्तकुम्भ-जैसा है उस बात को विस्तार पूर्वक मैने तुम्हें बता दिया। सबसे पहले नरक को रौरव और दूसरे को महारौरव नरक कहा जाता है। तीसरे का नाम अतिशीत एवं चौथे नरक का नाम निकृन्तन है। पाँचवाँ नरक अप्रतिष्ठ, छठा असिपत्रवन एवं सातवाँ तप्तकुम्भ है। इस प्रकार ये सात प्रमुख नरक हैं। अन्य भी बहुत सारे नरक सुने जाते हैं जिनमे पापी अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं। यथा -रोध, सूकर, ताल, तप्तकुम्भ, महाज्वाल, शबल, विमोहन, कृमि, क्रमिभक्ष, लालभक्ष, विषजन, अधःशिर, पुयवह, रुधिरान्ध, विड्भुज, वैतरणी, असिपत्रवन, अग्निज्वाल, महाघोर, संदंश, अभोजन, तमसु, कालसूत्र, लौहतापी, अभिद, अप्रतिष्ठ, तथा अवोचि आदि। ये सभी नरक यम के राज्य में स्थित है। पापिजन पृथक-पृथक रूप से उसमे गिरते हैं। रौरव आदि सभी नरको की अवस्थित इस पृथ्वीलोक से नीचे मानी गयी है। जो मनुष्य गौ की हत्या, भ्रूणहत्या और आग लगने का दुष्कर्म करता है, वह रोध नामक नरक में गिरता है। जो ब्रम्हाघती, मद्धपी तथा सोने की चोरी करता है, वह सूकर नामक नरक में गिरता है। क्षत्रिय और वैश्य की हत्या करने वाला 'ताल' नामक नरक में गिरता है।
जो मनुष्य ब्रम्हाहत्या एवं गुरुपत्नी तथा बहन के साथ सहवास करने की दुसचेष्ठा करता है वह तप्तकुम्भ नामक नरक में जाता है। जो असत्य-सम्भाषण करने वाले राजपुरुष है उनको भी उक्त नरक की प्राप्ति होती है। जो प्राणी निषिद्ध पदार्थों का विक्रेता, मदिरा का व्यापारी है तथा स्वामिभक्त सेवक का परित्याग करता है, वह तप्तलौह नामक नरक को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति कन्या या पुत्रवधू के साथ सहवास करने वाला है, जो वेद-विक्रेता और वेदनिन्दक हैं, वह अंत मे 'महाजवाल' नामक नरक का वासी होता है। जो गुरु का अपमान करता है, शब्दबाण से उनपर प्रहार करता है तथा अगम्या स्त्री के साथ मैथुन करता है वह 'शबल' नामक नरक में गिरता है।
शोर्य-प्रदर्शन में जो वीर मार्यादा का परित्याग करता है वह 'विमोहन' नामक नरक में जाता है। जो दूसरे का अनिष्ट करता है वह उसे 'क्रमिभक्ष' नामक नरक की प्राप्ति होती है। देवता और ब्राम्हण से द्वेष रखने वाला प्राणी 'लालाभक्ष' नरक में जाता है। जो परायी धरोहर का अपहर्ता है तथा जो बाग बगीचों में आग लगता है, उसे 'विषजन्' नामक नरक की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य असत-पात्र से दान लेता है तथा असत प्रतिग्रह लेनेवाला, अयाज्य्याजक और जो नक्षत्र से जीविका उपार्जन करता है वह मनुष्य 'अधःशिर' नामक नरक में जाता है। जो मदिरा माँस आदि का विक्रेता है वह 'पुयवह' नामक घोर नरक में गिरता है। जो कुक्कुट, बिल्ली, सुअर, पक्षी, मृग, भेड़ को बांधता है, वह भी उसी प्रकार के नरक में जाता है। जो ग्रहदाही हैं, बिषदाता है, जो कुड्डाशी हैं, जो सोम विक्रेता है, जो मद्धपी हैं, जो माँस भोजी है तथा जो पशुहंता हैं, वह व्यक्ति 'रुधिरान्ध' नामक नरक में जाता है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। एक ही पंक्ति में बैठे हुए किसी प्राणी को धोखा देकर जो लोग विष खिला देते हैं उन सभी को 'विड्भुज' नामक घोर नरक प्राप्त होता है। मधु निकलने वाला मनुष्य 'वैतरणी' और क्रोधी 'मुत्रसंज्ञक' नामक नरक में जाता है। अपवित्र और क्रोधी 'असिपत्रवन' नामक नरक में जाता है। मृगों का शिकार करने वाला व्याध 'अग्निज्वाल' नामक नरक में जाता है, जहाँ उसके शरीर को कौवे नोच- नोच कर खाते हैं।
यज्ञकर्म में दीक्षित होने पर जो व्रत का पालन नही करता उसे उस पाप से 'संदंश' नरक में जाना पड़ता है। यदि स्वपन में भी संन्यासी या ब्रम्हचारी स्खलित हो जाते है तो वे 'अभोजन' नरक में जाते हैं। जो लोग क्रोध और हर्ष से भरकर वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध कर्म करते हैं उन सबको नरकलोक की प्राप्ति होती है।
सबसे ऊपर भयंकर गर्मी से संतप्त रौरव नामक नरक है। उसके नीचे अत्यंत दुखदायी महारौरव है। उस नरक से नीचे शीतल और उस नरक के बाद नीचे तामस नरक माना गया है। इसी प्रकार बताए गए क्रम में अन्य नरक भी नीचे ही है।
इन नरकलोको के अतिरिक्त भी सैकड़ों नरक है, जिन में पहुँचकर पापी प्रतिदिन पकता है, जलता है, गलता है, विदीर्ण होता है, चुर्ण किया जाता है, गीला होता है, क्वाथ बनाया जाता हैं, जलाया जाता हैं और कहि वायु से प्रताड़ित किया जाता है- ऐसे नरको में एक दिन सौ वर्ष के समान होता है। सभी नरको से भोग भोगने के बाद पापी तिर्यक- योनी में जाता है। ततपश्चात उसको कृमि, कीट, पतंग स्थावर तथा एक खुर वाले गधे की योनि प्राप्त होती है। तदन्तर मनुष्य जंगली हाथी आदि की योनि में जाकर गौ की योनि में पहुँचता है। हे गरुड़ ! गधा, घोड़ा, खच्चर, गौर मृग, शरभ और चमरी- ये छः योनियाँ एक खुर वाली होती है। इसके अतिरिक्त बहुत सी पापाचार-योनियाँ भी है, जिनमे जीवात्मा को कष्ट भोगना पड़ता है। उन सभी योनियों को पाकर प्राणी मनुष्य योनि में आता है और कुबड़ा, कुत्सित, वामन, चाण्डाल और पुलकश आदि नर योनियों में जाता है। अवशिष्ट पाप-पुण्य से समन्वित जीव बार-बार गर्व में जाते है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उन सभी पापो के समाप्त हो जाने के बाद प्राणी को सूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय आदि को आरोहिणी -योनि प्राप्त होती है। कभी-कभी वह सत्कर्म से ब्राम्हण, देव और इन्द्रत्व के पद पर भी पहुँच जाता है।
हे गरुड़ ! यम द्वारा निदिष्ट योनि में पुण्यगति प्राप्त करने में जो प्राणी सफल हो जाते है, वे सुन्दर-सुन्दर गीत गाते, वाद्य बजाते और नृत्य आदि करते हुए प्रसन्नचित गंधर्वो के साथ, अच्छे से अच्छे हार, नूपुर आदि नाना प्रकार के आभूषणों से युक्त चन्दन आदि की दिव्य सुगंध और पुष्पों के हार से सुवासित एवं अलंकृत चमचमाते हुए विमान में स्वर्ग लोक को जाते हैं। पूण्य-समाप्ति के पश्चात जब वहाँ से पुनः पृथ्वी लोक पर आते हैं तो राजा अथवा महात्माओ के घर मे जन्म लेकर सदाचार का पालन करते हैं। समस्त भोगो को प्राप्त करके पुनः स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। अथवा पहले के समान आरोहिणि-योनि में जन्म लेकर दुःख भोगते  हैं।
मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्राणी कि मृत्यु तो निश्चित है। पापियों का जीव अधोमार्ग से निकलता है। तदन्तर पृथ्वीतत्व में पृथ्वी, जलतत्व में जल, तेजतत्व में तेज, वायुतत्व में वायु, आकाशतत्व में आकाश तथा सर्वव्यापी मन चंद्र में जाकर विलीन हो जाता है। हे गरुड़ ! शरीर मे काम, क्रोध एवं पंचीन्द्रियाँ है। इन सभी को शरीर का चोर की संज्ञा दी गयी है। काम क्रोध और अहंकार नामक विकार भी उसी में रहने वाले चोर है। उन सभी का नायक मन है। इस शरीर का संहार करने वाला काल है। जो पाप ओर पूण्य से जुड़ा रहता है। जिस प्रकार घर जल जाने पर हम दूसरे घर मे शरण लेते हैं, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियों से युक्त जीव इन्द्रियाधिष्ठात देवताओं के साथ शरीर का परित्याग कर नए शरीर मे प्रविष्ट हो जाता है। शरीर मे रक्त-मज्जादि सात धातुओं से युक्त यह षटकौशिक शरीर है। सभी प्राण, अपान आदि पञ्च वायु, मल-मूत्र, व्याधियाँ, पित्त, श्लेष्म, मज्जा, माँस, मेदा अस्थि, शुक्र और स्नायु- ये सभी शरीर के साथ ही अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं।
हे ताक्षरिय! प्राणियों के विनाश को मैने तुम्हे बता दिया। अब उनके इस शरीर का जन्म पुनः कैसे होता है, उसको मैं तुम्हे बता रहा हूँ।
यह शरीर नसों से आबद्ध, श्रोत्रादिक, इंद्रियों से युक्त और नवद्वारों से समन्वित है। यह सांसारिक विषय वासनाओ के प्रभाव से व्याप्त, काम-क्रोधादि विकार से समन्वित, राग-द्वेष से परिपूर्ण तथा तृष्णा नामक भयंकर चोर से युक्त है। यह लोभ रूपी जाल में फंसा हुआ है। यह माया से भलीभाँति आबद्ध एवं लोभ से अधिष्ठित पुर के समान है। सभी प्राणियों का शरीर इनसे व्याप्त है। जो लोग अपनी आत्मा को नही जानते हैं, वे पशुओ के समान है।
हे गरुड़! चौरासी लाख योनियाँ है और उद्भिज्ज ( पृथ्वी में अंकुरित होनेवाली वनस्पतियाँ) स्वेदज (पसीने से जन्म लेनेवाले जुएँ और लीख आदि कीट), अंडज (पक्षी) तथा जरायुक्त (मनुष्य)- में यह सम्पूर्ण सृष्टि विभक्त है।  ( गरुड़ पुराण-अध्याय-३ )
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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

वासन्तिक नवरात्र

चैत्र, आषाढ, आश्विन, औऱ माघ के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक के ९ दिन नवरात्र कहलाते हैं। इस प्रकार एक संवत्सर में चार नवरात्र होते हैं, इनमें चैत्र का नवरात्र 'वासन्तिक नवरात्र' और अश्विन का नवरात्र 'शारदीय नवरात्र' कहलाता है। इनमे आदि शक्ति भगवती दुर्गा की पूजा की जाती है।
*पूजा विधि*
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से पूजन प्रारंभ होता है। 'सममुखी' प्रतिपदा शुभ होती है अतः वही ग्राह्य है। अमायुक्त प्रतिपदा में पूजन नही करना चाहिये। सर्वप्रथम स्वंय स्नान आदि से पवित्र हो, गोमय से पूजा-स्थान का लेपन कर उसे पवित्र कर लेना चाहिये। ततपश्चात घट-स्थापन करने की विधि है। घट-स्थापन प्रातः काल करना चाहिये। परंतु चित्रा या वैधृति योग हो तो उस समय घट- स्थापन न कर मध्याह्न में अभिजित आदि शुभ मुहूर्त में घट-स्थापन करना उचित है।
यह नवरात्र स्त्री-पुरूष-दोनो कर सकते हैं। यदि स्वंय न कर सके तो पति, पत्नी, पुत्र या ब्राम्हण को प्रतिनिधि बनाकर व्रत पुर्ण कराया जा सकता है। व्रत में उपवास, अयाचित ( बिना माँगे प्राप्त भोजन), नक्त ( रात में  भोजन करना) या एकभुक्त (एक बार भोजन करना)-जो बन सके यथासामर्थ्य वह करे।
यदि नवरात्रों में घट-स्थापन के बाद सूतक (अशौच) तो कोई दोष नही लगता, परंतु पहले हो जाये तो पूजनादि स्वंय न करे।
घट स्थापन के लिये पवित्र मिट्टी से वेदी का निर्माण करे, फिर उसमें जौ और गेहूं बोये तथा उसपर यथाशक्ति मिट्टी, ताँबा, चाँदी, या सोने का कलश स्थापित करे।
यदि पूर्ण विधिपूर्वक करना हो तो पंचांग पूजन (गणेशाम्बिका, वरुण, षोडशमातृका, सप्तघृतमातुका,नवग्रह आदि देवो का पूजन) तथा पुण्याहवाचन ब्राम्हण द्वारा कराये अथवा स्वयं करे।
इसके बाद कलश पर देवी की मूर्ति स्थापित करे तथा उसका षोडशोपचार पूर्वक पूजन करे। तदनंतर श्रीदुर्गासप्तशती का सम्पुट अथवा साधारण पाठ भी करने की विधि है।
पाठ की पूर्णाहुति के दिन दशांश हवन अथवा दशांश पाठ करना चाहिये।
*दीपक-स्थापन*
पूजा के समय घृत का दीपक बी जलाना चाहिये तथा उसकी गंध, अक्षत, पुष्प आदि से पूजा करे।
कुछ लोग अपने घरों में दीवार पर अथवा काष्टपट्टिका पर अंकित चित्र बनाकर इस चित्र की तथा घृत दीपक द्वारा अग्नि से प्रज्वलित ज्योति की पूजा अष्टमी अथवा नवमी तक करते हैं।
*कुमारी-पूजन*
कुमारी पूजन नवरात्र व्रत का अनिवार्य अंग है। कुमारिकाएँ जगज्जननी जगदम्बा का प्रत्यक्ष विग्रह है।
सामर्थ्य हो तो ९ दिन तक ९ अथवा सात, पाँच, तीन या एक कन्या को देवी मानकर पूजा करके भोजन करना चाहिये। इसमें ब्राम्हण कन्या को प्रशस्त माना गया है। आसन बिछाकर गणेश, वटुक तथा कुमारियों को एक पंक्ति में बिठाकर पूजन करे।
                     *विसर्जन*
नवरात्री व्यतीत होने पर दसवे दिन विसर्जन करना चाहिये। विसर्जन से पूर्व भगवती दुर्गा का गंध, अक्षत, पुष्प, आदि से पूजन करे।
             *शक्तिधर की उपासना*
चैत्र नवरात्रि में शक्ति के साथ शक्तिधर की भी उपासना की जाती है। एक ओर जहां देवी भागवत, कालिका पुराण, और मार्कण्डेय पुराण, का पाठ होता है, वही दूसरी ओर श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण एवं आध्यत्मरामायण का भी पाठ होता है। इसलिए यह नवरात्र देवी नवरात्र के साथ साथ रामनवरात्र के नाम से भी प्रसिद्ध है।

एकादशी व्रत एवं जागरण- माहात्म्य

सभी वैष्णव सम्प्रदायो में एकादशी व्रत का वर्णन मिलता हैं। यहाँ तक कि जो वैष्णव नही है वे भी किसी न किसी रूप में एकादशी व्रत की मान्यता रखते है। इस संदर्भ में श्रीशुकसम्प्रदाय आचार्यपीठ श्रीसरनिकुंज दरीबापान, जयपुर के पीठाधीश्वर श्री सरस् माधुरी जी महाराज ने श्री सुकसम्प्रदाय सिद्धान्त चंद्रिका में  कई ग्रंथो से संग्रह कर इस प्रकार लिखा है-
ग्यारस व्रत में ऐसे रहिये।
जैसे धर्म नीक को चहिये।।
साँचा व्रत बताऊँ तोही।
गुरु शुकदेव बताया मोही।।
नवमी नेम करे चित्त लाई।
दशमी संयमयुक्त बताई।।
ग्यारस व्रत बताऊँ नीका।
सबही व्रत शिरोमणि टीका।।
निर्जल करै नीर नही परसै।
पोह फाटे जब सूर्य दरसै।।
एक पहर के तड़के जागै।
जबही सुमरण करने लागै।।
करे विचार शुद्ध कर काया।
जाकर बैठे भजन मझाया।।
कोठे के पट देकर राखे।
नर नारी सों बचन न भाखै।।
कुंड काढ़ बैठे तिही माही।
ताके बाहर निकसे नाही।।
कर आवाहन आसन मारे।
व्रत करै वैराग्य ही धारे।।
जप गुरु मंत्र औऱ हरि ध्याना।
जाको नेक नही विसराना।।
जो तेरे गुरु ने कहा, जाका कर तू ध्यान।
बैठो अस्थिर नो पहर, करो व्रत पहचान।।
व्रत करे त्योहार सा, नाना रस के स्वाद।
भोग करे तप न करे, सब करनी बरबाद।।
पांचो इंद्री व्रत करीजै।
पलक झाप नैनन पट दीजै।।
इत उत मनवा नाही चलावे।
आँखन को नही रूप दिखावे।।
श्रवण शब्द न खइये भाई।
त्वचा स्पर्श न अंग लगाई।।
षटरस स्वाद न जिव्या दीजै।
नासा गंध सुगंध न लीजै।।
ऐसा व्रत करे सो वर्ता।
मुक्त होय ग्यारस का कर्ता।।
ऐसा बरत उतारे पारा।
छोना तिरत लगे नही बारा।।
बहुर द्वादसी बाहर आवे।
अपनी श्रद्धा द्विज भुगतावे।।
संक्षेप में भाव यह है कि नवमी को व्रत का नियम लेकर दशमी को संयमपूर्वक रहना चाहिए और एकादशी को निर्जलव्रत रखना चाहिये। यह एकादशी व्रत व्रतों में शिरोमणि स्वरूप है। इस दिन प्रातः काल ही उठकर भगवान का स्मरण करना चाहिए, विचारो को शुद्ध रखना चाहिये।
इसदिन संयम नियम धारण कर वैराग्य पूर्वक रहे। किसी से कोई सम्बन्ध न रखकर एकांत में निवासकर भगवान का ध्यान करे।गुरु द्वरा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करें।
भोग-विलास से सर्वथा दूर रहे, इससे व्रत भंग हो जाता है।
अपनी पांचो इंद्रियों को उनके विषयो से दूर रखकर संयमपूर्वक रहे औऱ द्वादशी को व्रत का पारण करे।
पूर्वकाल में राजा अम्बरीष महाभागवत हो चुके हैं। उनका एकादशी व्रत का अनुष्ठान प्रसिद्ध ही है। भागवत में कहा गया है-
आरिराधयिषु: कृष्णम महिष्या तुल्यशीलया।
युक्तः साँवत्सरम वीरो दधार द्वादशीव्रतं।।
(श्रीमद्भागवत ९।४।२९)
श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये राजा अम्बरीष ने आपने समान शीलवती रानी के साथ वर्षपर्यन्त द्वादशी प्राधन एकादशी व्रत धारण किया।
एकादशी के दिन अन्न-ग्रहण का तथा श्राद्ध का निषेध है, यहाँ तक की प्रसाद में भी अन्न ग्राह्य नही है।
श्री नन्दराय जी ने एकादशी के दिन निराहार रहकर जनार्दन भगवान का पूजन किया, फिर द्वादशी के दिन स्नान करने के लिये कालिंदी के जल में प्रवेश किया-
एकादश्याम निराहार: सम्भयचर्य जनार्दज्म।
सन्नतुम नन्दस्तु कालिन्धा द्वादश्याम जलमाविशत।।(श्रीमद्भागवत १०।२८।१)
एकादशी के दिन नैमित्तिक श्रद्धा हो तो द्वादशी के दिन करे-
एकादश्याम यदा राम श्राद्धम नैकित्तिकम भवेत।
तधिम तु परित्यज द्वादश्याम श्राद्धमाचरेत।।
                                      (पद्म पुराण)
ब्रम्हाण्डपुराण में बताया गया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन उपवास पूर्वक विविध उपचारों से भगवान श्रीहरि का पूजन करता है, संयम नियम से रहता है। रात्रि जागरण करता है और भगवान की आरती उतरता है, वह व्यक्ति भगवान का प्रिय पात्र बन जाता है। अतः एकादशी व्रत का यथा विधि अवश्य पालन करना चाहिए। रात्रि जागरण तथा हरि कीर्तन की विशेष महिमा है।


शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

व्रतपर्वोत्सव-- एक समीक्षा

व्रत पर्व औऱ उत्सव हमारी लौकिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन है, इसमें आनंदोल्लास के साथ ही हमे उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती हैं। वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव आनंद से ही है और और यह सृष्टि आनंद में ही स्थित भी है। भारतीय पर्वो के मूल में इसी आनंद और उल्लास का पूर्ण समावेश है। दुख, भय, शोक, मोह तथा अज्ञान की आत्यंतिक निवृति औऱ अखण्ड आनंद की प्राप्ति ही इन व्रतपर्वोत्सवो का लक्ष्य है। यही कारण है कि ये व्रत और पर्व प्राणी को अंतर्मुख होने की प्रेरणा करते हैं। स्नान, पूजन, जप, दान, हवन तथा ध्यान आदि कृत्य एक प्रकार के व्रत है। इसमें प्रत्येक मनुष्य की बाह्य वृत्ति को अंतर्मुख करने में समर्थ है।
* व्रत  *
व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है।
व्रतों में तीन बातों की प्रधानता है--१-- संयम नियम का पालन, २--देवाराधन तथा ३-- लक्ष्य के प्रति जागरूकता। व्रतों से अन्तःकरण की शुद्धि के साथ साथ बह्य वातावरण में भी पवित्रता आती है। तथा संकल्पशक्ति में भी दृढ़ता आती है। इनसे मानसिक शान्ति औऱ ईश्वर की भक्ति भी प्राप्त होती है। भौतिक दृष्टि से स्वास्थ्य में भी लाभ होता है अर्थात रोगों की आत्यंतिक निवृत्ति होती है। यद्यपि रोग भी पाप है और ऐसे पाप व्रतों से ही दूर होते हैं तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित सभी प्रकार के पाप, उपपाप, औऱ महापापादि भी व्रतों से दूर होते हैं।
--व्रतों के भेद- व्रत दो प्रकार से किए जाते हैं १- उपवास अर्थात निराहार रहकर और २- एक बार संयमित आहार के द्वारा। इन व्रतों के कई भेद है- १-कायिक- हिंसा आदि के त्याग को कायिक व्रत कहते हैं। २- वाचिक-कटुवाणी, पिशुनता(चुगली) तथा निंदा का त्याग और सत्य परिमित तथा हितयुक्त माधुर भाषण 'वाचिकव्रत' कहा जाता है। ३- मानसिक- काम, क्रोध, मद, मात्सर्यं, इर्ष्या, तथा राग- द्वेष आदि से रहित रहना 'मानसिकव्रत' है।
मुख्य रूप से हमारे यहाँ तीन प्रकार के व्रत माने गए है--१- नित्य, २ नैमित्तिक और ३-काम्य। नित्य वे व्रत है जो भक्तिपूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कार्तव्यभाव से किए जाते हैं। एकादशी, प्रदोष, पूर्णिमा आदि व्रत इसी प्रकार के है। किसी निमित्त से जो व्रत किये जाते हैं वे नैमित्तिकव्रत कहलाते हैं। पापक्षय के निमित्त चांद्रायण, प्राजापत्य आदि व्रत इसी कोटि में है। किसी विशेष कामना को लेकर जो व्रत किये जाते हैं वे 'काम्यव्रत' कहे जाते हैं। कन्याओं द्वारा वर प्राप्ति के लिए किये गए गौरीव्रत, वटसावित्रीव्रत आदि काम्यव्रत है। इसके अतिरिक्त भी व्रतों के एकभुक्त, अयाचित तथा मितभुक और नक्तव्रत आदि कई भेद है।
*व्रतों के अधिकारी*
धर्मशास्त्रों के अनुसार अपने वर्णाश्रम के आचार-विचार में रत रहने वाले, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी, सम्पूर्ण प्राणियों का हित चाहने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान तथा पहले से निश्चय करके यथावत कर्म करने वाले व्यक्ति ही वृताधिकारी होते हैं।
उपयुक्त गुण सम्पन्न ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्री और पुरूष सभी व्रत के अधिकारी है।*सौभाग्यवती स्त्री के लिये पति की अनुमति से ही व्रत करने का विधान है।
यथाविधि व्रतों के समाप्त होने पर अपने सामर्थ्य अनुसार व्रत का उद्यापन भी करना चाहिये। उद्यापन करने पर ही व्रत की सफलता है।
व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है जो शुद्ध सरल औऱ सात्विक हो तथा उनका विशेष मनोयोग तथा निष्ठापूर्वक पालन किया जाये। कुछ लोग व्यवहारिक जीवन मे सत्य बोलने का प्रयास करते है औऱ सत्य का आचरण भी करते हैं, परंतु कभी कभी उनके जीवन मे कुछ ऐसे क्षण आ जाते हैं कि लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर उन्हें असत्य का आश्रय लेना पड़ता है तथा वे उन क्षणों में झूठ भी बोल जाते हैं। इस प्रकार वे व्यक्ति सत्यव्रती नही  कहे जा सकते। अतः आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियो न छोड़ना व्रत है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहकर जीवन व्यतीत करने का अभ्यास ही व्रत है। इससे मनुष्य में श्रेष्ठ कर्मो के सम्पादन की योग्यता आती हैं, कठिनाइयों में आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है, आत्मविश्वास दृढ़ होता हैं और अनुसासन की भावना विकसित होती है। आत्मज्ञान के महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक कक्षा व्रत पालन ही है। इसी से हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। व्रताचरण से मानव महान बनता हैं।
*पर्वोत्सव*
भरतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्वोत्सव के आनंद एवं उल्लास से परिपूर्ण हो इन पर्वो में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए है। आज भी अनेक विघ्न बाधा ओ के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की सम्पूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है। इसका एकमात्र श्रेय हमारी परम्पराओं को ही है। ये पर्व समय- समय पर सम्पूर्ण समाज को नयी चेतना प्रदान करते हैं तथा जीवन की नीरसता को दूर करके जीवन मे उल्लास भरते हैं और उत्तरदायित्वो का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
पर्व का शाब्दिक अर्थ है- गाँठ अर्थात संधिकाल।
हिन्दू पर्व सदा संधिकाल में ही पड़ते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी तथा संक्रांति आदि को शास्त्रों में पर्व कहा गया है। शुक्लपक्ष की तथा कृष्णपक्ष की संध्यावेलाओ में से अमावस्या तथा पूर्णिमा पर्व है। सूर्य संक्रमण में परिवर्तन होने से संक्रांति भी पर्व है। दैनिक जीवन में प्रातः मध्यान तथा संध्याकाल- त्रिकाल की संध्या भी संधिकाल में होने के कारण पर्व के रूप में अभिहित है।
*पर्वो के भेद*
१-दिव्यपर्व, 
२-देवपर्व
३-पितृपर्व
४-कालपर्व
५-जयंतिपर्व
६-प्राणिपर्व
७-वनस्पतिपर्व
८-मानवपर्व
९-तीर्थपर्व
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गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

मनन करने योग्य विचार-- भाग- १

राजा विक्रमादित्य न्याय प्रिय राजा थे। उनकी न्यायशीलता इतनी प्रसिद्ध थी कि देवता भी उनका आदर करते थे। एक समय की बात है। राजा विक्रमादित्य नगर भ्रमण के लिए निकले थे नगर से थोड़ी दूर वह एक बगीचे से गुजर रहे थे कि तभी उन्हें एक पत्थर आकर सिर पर लगा। पत्थर सिर पर लगते ही सिर से खून बहने लगा। यह देखकर सेनापति ने सैनिकों को जिस दिशा से पत्थर आया था उस दिशा में खोजने के लिए भेजा और कहा कि जो भी हो उसे पकड़ कर लाओ। सैनिक उसी दिशा में आगे चले गए आगे जाकर उन्होंने देखा कि एक बालक जमीन पर लेटा हुआ है और एक औरत पेड़ पर पत्थर मार रही है। सेनिको ने दोनों को पकड़ कर सेनापति के समक्ष प्रस्तुत किया। जब विक्रमादित्य ने देखा कि सैनिक एक महिला और बालक को पकड़ कर ले आये हैं। तो वह उनके पास गए और बोले आपने मुझे पत्थर क्यो मारा? महिला बोली महाराज मैंने आपको पत्थर नही मारा। मैं तो पेड़ से फल तोड़ रही थी गलती से पत्थर आपको लग गया। इसके लिए मुझे क्षमा करें। महाराज ने फिर कहा आप फल किस लिए तोड़ रही थी? इस पर महिला रोने लगी और बोली महाराज मेरे पति की कुछ समय पहले ही मृत्यू हो गयी मेरे यहाँ कोई कमाने बाला नही छोटा सा बच्चा है मेरा दो दिन से इसे भोजन नही मिला है। मैने सोचा पेड़ से फल तोड़कर इसे खिला दु नही तो भोजन के आभाव मे ये मर जायेगा। इसलिए में फल तोड़ रही थी। इतनी बात सुनकर सेनापति बोला महाराज इसे क्या दंड दिया जाए। राजा विक्रमादित्य बोले इसे १०० स्वर्ण मुद्राएं दे दी जाए। मुद्राएं लेकर वह महिला अपने बच्चे को लेकर चली गई। महिला के जाने के बाद सेनापति बोला महाराज उस महिला ने आपको पत्थर मारा और आपने उसे दंड की जगह स्वर्ण मुद्राएं दे दी ऐसा क्यों? विक्रमादित्य ने सुंदर जवाब दिया जब एक पेड़ पत्थर खाकर फल दे सकता है तो मैं तो एक मनुष्य हूँ। 

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

कर्म का फल निश्चित है

मध्यप्रदेश के एक गाँव मे एक व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहता था। परिवार में दो बेटे दो बेटियां और पति पत्नी रहते थे। 20 एकड़ जमीन पर किसानी करके वह अपना परिवार चलता था। मुख्य सड़क पर उसका एक प्लाट था। और एक मकान था। इसके पास एक बंदूक भी थी। परिवार हँसी खुशी से रहता था। पर उस व्यक्ति में एक बुराई थी वह निरीह प्राणियों को मारकर रोज आपने घर उनका मास पका कर खाता था। उसके कंधे पर बंदूक हमेशा टगी रहती। धीरे धीरे बच्चे बड़े हो गए बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी। पर पिता की बंदूक कंधे से नही उतरी वह निरन्त शिकार करता रहा। बड़ा बेटा पास ही के एक गाँव मे एक बड़े किसान के यहाँ ट्रेक्टर चलने का काम करने लगा। अभी चार दिन ही बीते थे काम करते हुए की एक दिन ट्रेक्टर पलट गया और उसकी मृत्यु हो गयी। अभी उसकी शादी को एक वर्ष भी नही हुआ था। दुर्घटना बीमा के पैसे लेकर पिता ने छोटे बेटे के साथ बड़ी बहू की शादी कर दी। छोटा बेटा गाँव का नामी चोर शराबी बन गया। एक दिन अपने पिता से गाड़ी दिलाने की जिद करने लगा पिता के लाख मना करने पर भी वह जिद पर अड़ा रहा। औऱ एक दिन अपनी बहिन की गाड़ी उठा लाया बहिन को पैसों की जरूरत थी तो वह बोला आप गाड़ी मुजे दे दो में पिता जी से पैसे दिलवा दूँगा। बहिन ने ये सोच कर गाड़ी दे दी कि अगर पैसे नही दिए तो पिता जी से बात करके गाड़ी किसी और को बेच देगे। छोटा बेटा गाड़ी लेकर घर आ गया एक दिन सुबह सुबह गाड़ी लेकर घर से निकला ही था कि थोड़ी दूर जाकर गाड़ी एक टेंकर से इतनी जोर से टकराई की उसकी घटना स्थल पर ही मौत हो गयी। टेंकर पकड़ा गया। फिर से दुर्घटना बीमा के पैसे के पैसे मिल गए। अभी इस हादसे को कुछ ही समय बीता था कि एक दिन पिता गायो को लेकर पानी पिलाने जा रहा था अचानक गाय ने दौड़ लगाई पिता भी उसके पीछे पीछे भागा तभी सामने से एक कार आ रही थी वह बायीं तरफ से दाई तरफ भागा और जाकर कार की बायीं तरफ ऐसा टकराया की उसके दोनों हाथ के पंजे सीधे के सीधे रह गए कुछ अंदरूनी चोटे भी आई। कार पकड़ी गई कार के मालिक ने एक वर्ष तक इलाज करवाया लेकिन उसकी जान नही बची। फिर से दुर्घटना बीमा के पैसे मिले। अब परिवार में सास बहू और छोटे बेटे की एक लड़की और एक लड़का रह गए। एक दिन सास अपने बीमार नाती को लेकर शहर के अस्पताल से लौट रही थी कि रास्ते मे जीप पलट गई और दोनों की घटना स्थल पर ही मौत हो गयी। चुकी सवारी ढोने वाली गाड़ी थी तो फिर दोनों की मृत्यु के बाद बहु को फिर दुर्घटना बीमा मिला। अब परिवार में सिर्फ बहु और बेटी शेष रह गए। बाकी पूरा परिवार उजड़ गया।
परिवार में सभी मासाहारी थे। 




गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

सुन्दरकाण्ड-- मूल- पाठ ( Sundarkand-mool paath )

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपको लेकर आए हैं श्रीरामचरितमानस का चतुर्थ सोपान
अर्थात सुंदरकाण्ड, सुंदरकाण्ड श्रीरामचरितमानस का सबसे सुंदर प्रसंग है। सुंदरकाण्ड के दोहे अपने आप में मंत्र है। सुंदरकांड में ६० दोहे हैं।

शान्तं शाश्वतंप्रमेयमनघं निर्वानशान्तिप्रद
 ब्रम्हाशम्भूफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यम विभूमं।
रामाख्यम जगदीश्वरम सुरगुरूम माया मनुष्यम हरिम
वन्देअहम करुणाकरं रघुवरं भूपाल चूड़ामणिम ।। १ ।।
नान्या स्पृहा रघुपते ह्रदयेअस्मदीये सत्यं वदामि च भवानख़िलान्तरात्मा ।
भक्ति प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कमादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।। २ ।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।
                 ।। चौपाई ।।
जामवंत के बचन सुहाए। 
सुन हनुमंत ह्रदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
जब लगि आवों सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।
सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तै मैनाक होहि श्रम हारी।।
                     ( दोहा १ )
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम।
राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।
                      ।। चौपाई ।।
जात पवनसुत देवन्ह देखा। 
जानै कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहि बाता।।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवन कुमारा।।
राम काजु करि फिर मैं आवों।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावों।।
तब तव बदन पैठिहउँ आई ।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
जोजन भर तेहि बदन पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहि ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहि आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।
                  ( दोहा - २ )
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।
                   ।। चौपाई ।।
निसिचर एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाही।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहिं बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृन्द देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागे।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा।
कनक कोट कर परम् प्रकासा।।
                   【 छन्द 】
कनक कोटि विचित्र मनि कृत 
सुन्दरायतना  घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं
चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर
रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल
सेन बरनत नहिं बनै।।१।।
बन बाग उपवन बाटिका
सर कूप बापीं सोहहीं।।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या
रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल
समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि
एक एकन्ह तर्जहीं।।२।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन
नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज
खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की
कथा कछु एक है कही।
रघुवीर सर तीरथ सरीरन्हि
त्याग गति पैहहिं सही।।३।।
                   (दोहा ३)
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौ निसि नगर करौ पइसार।।
                  【चौपाई】
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
जानहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर आहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
पुनि सँभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर विनय ससंका।।
जब रावनहि ब्रम्हा बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।
                    ( दोहा 4 )
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
                 【 चौपाई 】
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं सितलाई।
गरूड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ -तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
                   ( दोहा ५ )
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देख हरष कपिराइ।
                    【 चौपाई 】
लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा।
तेहिं समय बिभीषनु जागा।।
राम राम तेहि सुमिरन कीन्हा।
ह्रदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई ।
मोरें ह्रदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह राम दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी।।
                ( दोहा ६ )
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।
                      【चौपाई 】
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीति।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति।।
कहहु कवन मैं परम् कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
                    ( दोहा ७ )
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुवीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गन भरे बिलोचन नीर।।
                   【 चौपाई 】
जानतहूँ अस स्वामी बिसारी।
फिरहिं ते काहे होहिं दुखारी।।
ऐहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन अशोक सीता रह जहवाँ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति ह्रदय रघुपति गुन श्रेनी।।
                   ( दोहा ८ )J
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम् दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।
                 【 चौपाई 】
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौ का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा।।
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दाम भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम् सनेही।।
सुनु दसमुख खधोत प्रकासा।
कबहुँ की नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोहि।।
                ( दोहा ९ )
आपुहि सुनि खधोत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।
                【 चौपाई 】
सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहीं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।
चंद्रहास हरु  मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।
सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहुबिधि त्रासहु जाई।।
मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।
                【 दोहा १० 】
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिशाचिनी वृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद।।
                     ( चौपाई )
त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेक।।
सबनहो बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना।।
सपनें बानर लंका जारि।
जातुधन सेना सब मारी।।
खर आरुढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सर खंडित भुज बीसा।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाईं।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरी।
जनकसुता के चरनन्हि परी।।
                ( दोहा ११ )
जहँ तहँ गई सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीते मोहि मारिहि निसिचर पोच।।
                   ( चौपाई )
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगनि तैं मोरी।।
तजौं देह करू बेगि उपाई।
दुसह बिरहु नहि सहि जई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला।।
देखियत प्रकट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करू हरु मम सोका।।
नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगनि जनि करहि निदाना।।
देखि परम् बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता।।
              【 सोरठा १२ 】
कपि करि हिरदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।
                     ( चौपाई )
तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद ह्रदयँ अकुलानी।।
जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहि जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद्र गुन बरनै लागा।
सुनतहि सीता कर दुख भागा।।
लागी सुनैं श्रवण मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो पगट होति किन भाई।।
तब हनुमंतन निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।।
राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भई संगति जैसे।।
              【 दोहा १३ 】
कपि के वचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।
                     ( चौपाई )
हरिजन जानि प्रीति आति गढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जल जाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपालु रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम् बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तब दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
               【 दोहा 14 】
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
                    ( चौपाई )
कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहु सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानु।
कालनिसा सम निसि ससि भानु।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिता।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाही।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहि तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई।।
                  【 दोहा १५ 】
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।
                      ( चौपाई )
जौ रघुवीर होति सुधि पाई।
करते नहि बिलंबु रघुराई।।
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
अबहि मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित आइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मार तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
है सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलबना।।
मोरें हृदय परम् संदेहा।
सुनि कपि प्रकट कीन्हि निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
              【 दोहा १६ 】
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप  ते गरुड़हिं खाइ परम् लघु व्याल।।
                   ( चौपाई )
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहु।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहि बिपिन रखवारी।
परम् सुभट रजनीचर भारी।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाही।
जौ तुम सुख मानहु मन माहीं।।
                【 दोहा १७ 】
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।
                  ( चौपाई )
चलेउ नाइ सिरु पैठउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारे कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहि अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।
                 【 दोहा १८ 】
कछु मारेसि कछु Tमर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।
                   ( चौपाई )
सुनि सुत बध लंकेश रिसाना।
पठऐसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
चला इन्द्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ  निज अंगा।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीती न जाइ प्रभंजन जाया।।
             【 दोहा १९ 】
ब्रम्ह अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौ न ब्रम्हसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।
                    (चौपाई)
ब्रम्हबान कपि कहुँ तेहि मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखि कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि ले गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ज्ञानी।।
तासु दूत किं बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरे सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
           【 दोहा २० 】
कपिहिं बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।
                 ( चौपाई )
कह लंकेस कवन तै कीसा।
केहि के बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।
मारे निसिचर केहि अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुनु रावन ब्रम्हांड निकाया।
पाइ जासु बल विरचित माया।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन।।
धरइ जो बिबिध देइ सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।
हर को दंड कठिन जेहि भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बंधे सकल अतुलित बलसाली।।
           【 दोहा २१ 】
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
                 ( चौपाई )
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बाली सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
खायउँ फल प्रभु लागि भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम् प्रिय स्वामी।
मारहि मोहि कुमारग गामी।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराकर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै।।
              【 दोहा २२ 】
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।
                  ( चौपाई )
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्याग मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखारी।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
             【 दोहा २३ 】
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधू भगवान।।
                  ( चौपाई )
जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमे कपि गुर बड़ ज्ञानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मति भ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना।
बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।।
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गुसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
               【 दोहा २४ 】
कपि के ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु 
लगाइ।।
                    ( चौपाई )
पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
बचन सुनत कपि मन मुसकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ पजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउँ परम् लघु रूप तुरंता।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं।।
             【 दोहा २५ 】
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत 
उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
                ( चौपाई ) 
देह बिसाल परम् हरू आई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पुलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।
              【 दोहा २६ 】
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगे ठाढ भयउ कर जोरि।।
                 ( चौपाई )
मातु मोहि दीजै कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरन कामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
कहु कपि केहि बिधि राखों प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना।।
तोहि देखि सीतल भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
            【 दोहा २७ 】
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरन कमल सिरुनाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
                 ( चौपाई )
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।।
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाएं।।
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।
           【 दोहा २८ 】
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुने सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।
                ( चौपाई )
जो न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपा भा काजु बिसेषी।।
नाथ काज कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठें दोउ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
            【 दोहा २९ 】
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना 
पुंज।
पूँछी कुसलनाथ अब कुसल देखि पद कंज।।
                  ( चौपाई )
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुन नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोई बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमारा सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हिंय लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्राण की।।
            【 दोहा ३० 】
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट।।
                   ( चौपाई )
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हि।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दिन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहि अपराध नाथ हौ त्यागी।।
अबगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।।
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।
             【 दोहा ३१ 】
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।
                    ( चौपाई )
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत तोहि उरनि मैं नाही।
देखेउँ करि बिचार मन माही।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
             【 दोहा ३२ 】
सुनि कपि वचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।
                  ( चौपाई )
बार बार प्रभु चहइ उठवा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगवा।
कर गहि परम् निकट बैठावा।।
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग कै बड़ि मनुसाई।
साखा ते साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोर प्रभुताई।।
              【 दोहा ३३ 】
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वाँनलहि जारि सकइ खलु तूल।।
                   ( चौपाई )
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम् सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
सुनि कपि बचन कहहिं कपि बृन्दा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा।।
अब बिलंबु केहि कारन कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ ते भवन चले सुर हरषी।।
                【 दोहा ३४ 】
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।
                    ( चौपाई )
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं।।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनै पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा।।
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करही।।
               ( छंद )
चिक्करही दिग्गज डोल महि गिरि
लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्व सुर मुनि
नाग किंनर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट
बहुकोटि कोटिन्ह धावहीं।
जयराम प्रबल प्रताप कोसलनाथ
गुन गन गावहीं।।१।।
सहि सक न भार उदार अहिपति
बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पुष्ट
कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति
जानि परम् सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो
लिखित अबिचल पावनी।।२।।
              【 दोहा ३५ 】
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर 
तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।
                   (चौपाई )
उहाँ निसाचर रहहि ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हे।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हे।।
              【 दोहा ३६ 】
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।
                    ( चौपाई )
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहि लोकप जाकीं त्राता।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयहु कंत पर बिधि बिपरीता।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहु।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहु।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं।।
                 【 दोहा ३७ 】
सचिव बैद गुर तीनि जौ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं 
नास।।
                    ( चौपाई )
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जान बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता।।
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।
सो परनारि लिलार गुसाई।
तजउ चउथि के चंद कि नाई।।
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
              【 दोहा ३८ 】
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहि जेहि संत।।
                   ( चौपाई )
तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेश्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता।।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रकट समुझु जियँ रावन।।
           【 दोहा ३९ (क)( ख) 】
बार बार पद लगाउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभुसन कहीं पाइ सुअवसरु तात।।
                      ( चौपाई  )
माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
सुमति कुमति सब के उर रहही ।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहां कुमति तहँ बिपति निदाना।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।
               【 दोहा ४० 】
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।
                   ( चौपाई )
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा कंत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजे हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाई कहत अस भयऊ।।
               【 दोहा ४१ 】
रामु सत्य संकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।
                   ( चौपाई )
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयू हीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी।।
रावन जबहि बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
देखिहउँ जाइ चरन जल जाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषि नारी।
दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।
             【  दोहा  ४२ 】
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतू रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
                    ( चौपाई )
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिन्धु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई।।
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।।
               【 दोहा  ४३ 】
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।
                   ( चौपाई )
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहि ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबही।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौ पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौ सभीत आवा सरनाई।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।
               【 दोहा ४४ 】
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।
                     ( चौपाई )
सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
दूरिहि ते देखे दौऊ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
सिंध कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा।।
              【 दोहा ४५ 】
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राही त्राही आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
                    ( चौपाई )
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
अनुज सहित मिलि ढिंग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।।
               【 दोहा ४६ 】
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।
                  ( चौपाई )
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मतसर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरे चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाही।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।
               【 दोहा ४७ 】
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।
                     ( चौपाई )
सुनु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौ नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सध्ध तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँधि बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाही।
हरष सोक भय नहिं मन माही।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसे।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरे।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
                【 दोहा ४८ 】
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृण 
नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विज पद प्रेम।।
                     ( चौपाई )
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे।।
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं आघात श्रवनामृत जानी।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रहीं।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहिं प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
         【 दोहा ४९ (क ) (ख़)】
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर 
प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु 
अखंड।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
                    ( चौपाई )
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिन पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गम्भीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई।।
              【 दोहा ५० 】
प्रभु तुम्हार कुलगुरु जलधि कहहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।
                     ( चौपाई )
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौ होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ  एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रथम प्रणाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहि आए।
पाछें रावन दूत पठाए।।
             【 दोहा ५१ 】
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।
                    ( चौपाई )
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमारा हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस की आना।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।
               【 दोहा ५२ 】
कहेहु मुख़ागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा काल तुम्हार।।
                   ( चौपाई )
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंका आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।
              【 दोहा ५३ 】
की भइ भेट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपुदल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।
                  ( चौपाई )
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसे।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिका काटै लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे।।
पूँछेहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह मंह तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।
              【 दोहा ५४ 】
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद 
बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
                    ( चौपाई )
ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं।।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहिं जीतै रन माहीं।।
परम् क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधल बिसाला।।
मर्दि गर्द मिलवहि दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका।।
              【 दोहा ५५ 】
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम।।
                    ( चौपाई ) 
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं की गाई।।
सक सर एक सोषि सत सागर।
तब भ्रातहिं पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुन सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौ असि मति सहाय कृत कीसा।।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
रामानुज दीन्हि यह पाती ।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचवन।।
        【 दोहा ५६ (क) (ख) 】
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।
                    ( चौपाई )
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहीं।
उर अपराध न एकउ धरिहीं।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे।।
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपा आपनि गति पाई।।
रिषि अगस्त कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
             【 दोहा ५७ 】
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीती।।
                     ( चौपाई )
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीति।।
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सम बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा।।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
               【 दोहा ५८ 】
काटहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेंहिं पइ नव नीच।।
                    ( चौपाई )
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हारी कीन्ही।।
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाव सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोर बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सुहाई।।
               【 दोहा ५९ 】
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।
                    ( चौपाई )
नाथ निल नल कपि दौ भाई।
लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भरे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
एहिं सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पायोधि सिधावा।।
                   【छंद】
निज भवन गवनेउ सिंधु
श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति
दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन
बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना।।
               【 दोहा ६० 】
सकल सुमंगल दायक रघुनायक 
गुनगान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।

कलियुग के समस्त पापो का नाश करने वाले श्रीरामचरितमानस का यह पाँचवाँ सोपान सम्पूर्ण हुआ।
             ।।सुंदरकांड सम्पूर्ण।।
                ।।जय सियाराम।।
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