बुधवार, 23 जून 2021

भगवान के दर्शन का फल

रामचरित मानस में स्वयं भगवान ने आपने दर्शन का फल बताया है- 
मम दर्शन फल परम् अनूपा,
जीव पाय निज सहज स्वरूपा।।
अर्थात भगवान के दर्शन का फल यही है कि आप अपने सहज स्वरूप को जान ले।
और जिस दिन आप अपने सहज स्वरूप को जान जायेगे तो समझिए कि आपको भगवान के दर्शन का फल प्राप्त हो गया,
वैसे भी मानस में आया है कि ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन विमल सहज सुख राशि।। ईश्वर तो हर जीव के अंदर विधमान है। वो थे न मुझसे दूर न मैं उन से दूर था, आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।
जिस प्रकार बहुत सारे वर्तन में हम पानी भरते हैं तो वर्तन तो भिन्न भिन्न होते हैं किंतु उनमे पानी एक ही होता है। कबीर जी ने भी इसका एक सुंदर उदाहरण दिया है- कबीरा पानी एक है वर्तन है अनेक न्यारे न्यारे वर्तन में पानी एक को एक। इसलिए सब कहा गया है कि सब रोगों की एक दवाई आपने आपको जानो भाई।

रामायण पढने का आसन तरीका

दोस्तो इस पोस्ट के माध्यम से आज हम आपको रामायण पढ़ने का आसन तरीका बतायेगे रामायण में मूलतः सोरठा, श्लोक,चौपाई, और दोहा होते हैं जिन्हें हम बड़ी ही सुंदरता से गाकर पढ सकते हैं, जो श्रोता तथा वक्ता दोनों के मन को आनंदित करेगा, सबसे पहले सोरठा कैसे पड़ते हैं ये जानते हैं-  जेहि सुमिरत सिद्ध होय गण नायक करिवर बदन। यह एक सोरठा है अब इसे हम अपने आसन तरीके से ऐसे पढेंगे- जेहि सुमिरत सिद्ध होय सियारामा गण नायक करिवर बदन रामा, इसके बाद चौपाई के बारे में जानते हैं- मंगल भवन अमंगलहारी, द्रवहु सो दसरथ अजर बिहारी। छंद को पढ़ना सबसे ज्यादा कठिन होता है परंतु इस प्रकार पढ़ने से आपको कोई कठिनाई नही होगी, जैसे- भय प्रगट कृपाला, दीनदयाला, कौसिल्या हितकारी, या श्री रामचन्द्र, कृपाल भजमन, हरण भव भय हारणम, नव कंज लोचन, कंज मुख कर, कंज पद कन्जारुणम। आशा है आपको हमारी यह पोस्ट पसन्द आएगी और आप भी आसानी से श्री रामायण जी का अध्ययन आसानी से कर पाएंगे। दोस्तो श्लोक संस्कृत में ही होते हैं और हम सभी को थोड़ी बहुत तो संस्कृत तो आती ही है।

शुक्रवार, 18 जून 2021

रामायण एवं सुंदरकांड आवाहन विसर्जन आरती

             ।। आवाहन ।।
जेहि सुमिरत सिद्ध होय सियारामा,
गण नायक करिवर बदन रामा ।
करहुँ अनुग्रह सोई सियारामा,
बुध्दि राशि शुभ गुण सदन रामा ।।
मूक होइ वाचाल सियारामा,
पंगु चढाई गिरिवर गहन रामा।
जासु कृपासु दयाल सियारामा,
द्रवहु सकल कलिमल दहन रामा।।
नील सरोरुह श्याम सियारामा,
तरून अरुन वारिज नयन रामा।
करहु सो मम उर धाम सियारामा,
सदा क्षीरसागर सयन रामा।।
कुंद इंदु सम देह सियारामा,
उमा रमन करुणा अयन रामा।
जाहि दीन पर नेह सियारामा,
करहु कृपा मर्दन मयन रामा।।
वंदहु गुरुपद कंज सियारामा,
कृपासिंधु नर रूप हरि रामा।
महामोह तम पुंज सियारामा,
जासु वचन रविकर निकर रामा।।
वंदहु मुनिपद कंज सियारामा,
रामायन जेहि निर्मयु रामा।
सखर सुकोमल मंजु सियारामा,
दोष रहित दूषन सहित रामा।।
वंदहु चारहु वेद सियारामा,
भव वारिध वो हित सरिस रामा।
जिनहि न सपनेहुँ खेद सियारामा,
बरनत रघुपति विमल यश रामा।।
वंदहु विधि पद रेनू सियारामा,
भवसागर जिन कीन्ह यह रामा।
संत सुधा शशि धेनु सियारामा,
प्रगटे खल विष बारुनी रामा।।
वंदहु अवध भुआल सियारामा,
सत्य प्रेम जेहि राम पद रामा।
बिछुरत दीनदयाल सियारामा,
प्रिय तनु तृन इव पर हरेउ रामा।।
वंदहु पवनकुमार सियारामा,
खलबल पावक ज्ञान घन रामा।
जासु हृदय आगार सियारामा,
बसहि राम सर चापधर रामा।।
रामकथा के रसिक तुम रामा,
भक्ति राशि मतिधीर सियारामा।
आय सो आसन लीजिये रामा,
तेज पुंज कपि वीर सियारामा।।
रामायण तुलसीकृत रामा,
कहहु कथा अनुसार सियारामा।
प्रेम सहित आसन गहेहु रामा,
आवहु पवन कुमार सियारामा
।। सियावर रामचंद्र की जय।।
               
                  ।। विसर्जन ।।
जय जय राजाराम की रामा,
जय लक्ष्मण बलवान सियारामा।
जय कपीस सुग्रीव की रामा,
जय अंगद हनुमान सियारामा।।
जय जय काकभुशुण्डि की रामा,
जय गिरि उमा महेश सियारामा।
जय ऋषि भारद्वाज की रामा,
जय तुलसी अवधेश सियारामा।।
प्रभु सन कहियो दंडवत रामा,
तुमहि कहो कर जोरि सियारामा।
बार बार रघुनाथ कहि रामा,
सुरति करावहु मोरि सियारामा।।
कामहि नारी पयारी जिमि रामा,
लोभहि प्रिय जिमि दाम सियारामा।
तिमि रघुनाथ निरंतर रामा,
प्रिय लागहु मोहि राम सियारामा।।
बार बार वर माँगहु रामा,
हर्ष देहु श्री रंग सियारामा।
पद सरोज अन पायनी रामा,
भक्ति सदा सतसंग सियारामा।।
प्रणत पाल रघुवंश मणि रामा,
करुणा सिंधु खरारी सियारामा।
गए शरण प्रभु राखिहैं रामा,
सब अपराध विसार सियारामा।।
कथा विसर्जन होत है रामा,
सुनो वीर हनुमान सियारामा।
जो जन जहाँ से आये हो रामा,
ते तह करो पयान सियारामा।।
श्रोता सब आश्रम गए रामा,
शम्भु गए कैलाश सियारामा।
रामायण मम हिर्दय में रामा,
सदा करो तुम वास सियारामा।।
रामायण जसु पावन रामा,
गावहि सुनहि जे लोग सियारामा।
राम भगति दृढ़ पावहि रामा,
विन विराग जप योग सियारामा।।
रामायण वैकुण्ठ गई रामा,
सुर गए निज निज धाम सियारामा।
रामचंद्र के पद कमल रामा,
वंदि गए हनुमान सियारामा।।
         ।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

        ।। रामायण जी की आरती ।।
आरती श्री रामायण जी की,
कीरति कलित ललित सिया पी की ।
गावत ब्रम्हदिक मुनि नारद,
बाल्मीकि विज्ञान बिसारद।
सुक सनकादिक सेष अरु सारद,
वरनि पवनसुत कीरति निकी।
गावत वेद पुराण अष्टदस,
छहो शास्त्र ग्रंथन को रस।
मुनिजन धन संतन को सरबस,
सार अंश सम्मत सबहि की।
गावत सतत शम्भु भवानी,
अरु घट सम्भव मुनि विज्ञनी।
व्यास आदि कविवर्ज बखानी,
काकभुशुण्डि गरुड़ के हिय की।
कलिमल हरनि विषय रस फीकी,
सुभग सिंगार मुक्ति जुवती की।
दलन रोग भव मुरी अमी की,
तात मात सब विधि तुलसी की।
आरती श्री रामायण जी की।।






बुधवार, 2 जून 2021

बिना चालक की बस

एक छोटा सा बालक था वह ईश्वर में श्रद्धा रखता था, उसके पिता एक पड़े लिखे व्यक्ति थे, परंतु वह ईश्वर में विश्वास नही रखते थे, बालक कभी कोई सवाल करता तो वह उसे वैज्ञानिक तरीके से समझा देते थे। एक दिन बालक ने पूछा पिता जी इस संसार को कौन चलता है, ये बारिश, गर्मी, सर्दी, अपने समय पर ही क्यों आते हैं, सूर्य चंद्रमा समय से क्यो निकलते हैं कौन है जो इन्हें मैनेज करता है? पिता ने बताया बेटा इसे कोई मैनेज नही करता ये सब अपने आप होता है, दुनिया को कोई नही चलता ये अपने आप चलती है। अगले दिन बालक स्कूल गया वहाँ से थोड़ा लेट हो गया, घर पर पिता परेशान हो गए। थोड़ी देर बाद बालक बालक घर पहुच गया, पिता ने डाँटते हुए पूछा आज स्कूल से लेट कैसे हो गए, बालक मुस्कुराते हुए बोला पिता जी आज स्कूल से बिना ड्राइवर की बस में आया हूँ अब बस को कोई मैनेज तो कर नही रहा था तो वह कहीं भी रुक जाती बड़ी मुश्किल से घर पहुँच पाया हूं। बालक की बात सुनकर पिता को गुस्सा आया और वह बोला बेटा ऐसा भी होता है क्या की बगैर किसी के चलाये बस चलती हो, बालक बोला पिता जी जब इतनी बड़ी दुनिया बगैर किसी के चलाये चल सकती है तो क्या एक छोटी सी बस बगैर ड्राइवर के नही चल सकती। पिता हैरत भरी नजरों से बेटे की तरफ देखने लगा, छोटे से बच्चे ने पिता की आँखे खोल दी।

शनिवार, 29 मई 2021

भक्ति रस धारा

बता रे मन तू क्या ले जाएगा
पाप कपट कर माया जोड़ी
कुटुम कबीला खायेगा ।। बता रे मन तू ।।
आगे नदिया अगम बहत है
उसमे डाला जाएगा
धर्मी धर्मी पर उतर गए
पापी गोता खायेगा ।। बता रे मन तू क्या ।।
लोहे का इक खम्ब गड़ा है
उसमे बांधा जाएगा
बता रे मन तू क्या ले जाएगा।।
                        (2)
मेरे पाँव में पड़ गए छाले,
काली कमली के ओढ़ने वाले।
अपने भगतो को शहदा बना ले,
काली कमली के ओढ़ने वाले।।
गहरी नदिया नाव पुरानी
खेवनहारा वो भी अनाड़ी,
मेरी कश्ती को पार लगा दे
काली कमली के ओढ़ने वाले।। अपने भक्तों को शहदा बना ले,
काली कमली के ओढ़ने वाले ।।
श्याम पिया का एक पता है
साँवली सूरत बाँकी अदा है
बाके बाल है घुघर वाले
काली कमली के ओढ़ने वाले
                        (3)
लहर लहर लहराए हो 
झण्डा बजरंगबली का ।
इस झण्डे को हाथ मे लेकर
सीता की खोज लगाई हो ।। 
।। झण्डा बजरंगबली का ।।
बजरंगबली का मेरे हनुमत लला का
लहर लहर लहराए हो
झण्डा बजरंगबली का।।
इस झण्डे को हाथ मे लेकर
लक्ष्मण की जान बचाई हो
।। झण्डा बजरंगबली का ।।
लहर लहर लहराए हो 
झण्डा बजरंगबली का।।
                       (4)
राम नाम को भज ले बंदे
क्यो करते हो आनाकानी
हम जानी की तुम जानी ।
बालापन हँस खेल बितायो
खेल करे थे मनमानी।। हम जानी की..
आई जवानी खूब कमाया
माया जोड़ी थी मनमानी।। हम जानी की
आये बुढ़ापे कापन लागे
बात तुमने एकइ मानी।। हम जानी की..



शनिवार, 8 मई 2021

अपनी ताकत का कभी घमंड न करे

एक गाँव मे एक पहलवान रहता था। पूरे गाँव मे कोई भी कुश्ती में उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। इस बात का उस पहलवान को बढ़ा ही अभिमान था। वह रोज अपनी पत्नी को परेशान करता पत्नी कुछ बोले तो बोलता देख गाँव मे कोई है मेरे मुकाबले सारे पहलवानों को मैने धूल चटा दी है। रोज रोज की नोक झोंक से परेशान होकर एक दिन पत्नी बोली संसार मे एक से एक शक्तिशाली व्यक्ति है अगर हमारे गॉव में कोई आपका मुकाबला नहीं कर सकता तो आसपास के गाँव मे कोई तो होगा जो आपका मुकाबला कर सके उसकी तलाश कीजिये। अगले दिन पहलवान दूसरे गाँव मे ऐसे पहलवान की तलाश में निकल गया जो कुश्ती में उसका मुकाबला कर सके। चलते चलते जैसे ही दूसरे गाँव की सीमा में पहुँचा तो उसने दूर से देखा कि एक बड़ा सा व्यक्ति सर पर पगड़ी बाधे हल चला रहा है औऱ उसके हल में बैलो की जगह दो शेर जुते हुए है। औऱ उसकी पत्नी टोकरी में रोटी औऱ मटके में पानी लेकर उसके लिए भोजन लेकर आ गयी। तभी उसकी नजर दूर खड़े उस पहलवान पर पड़ी औऱ उसने उसे अपने पास बुलाकर कहा इधर आ जब तक मैं भोजन कर रहा हूँ तब तक तू इन शेरो को पानी पिला कर ले आ। इतना सुनते ही उसके हाथ पैर फूल गए। उसने सोचा कि अगर शेरो के पास गया तो शेर मुझे खा जायेगे औऱ अगर नही गया तो जो व्यक्ति शेरो को हल में जोत सकता है वह मेरा क्या हाल करेगा इतना सोचकर उसने घर की तरफ दौड लगा दी। जब हल चलाने वाले ने उसे भागता हुआ देखा तो उसे बहुत गुस्सा आया कि इसकी इतनी हिम्मत की मेरी बात नही मानी उसने गुस्से में खाना छोड़कर उसके पीछे दौड़ लगा दी। पहलवान दौड़ते हुए अपने घर पहुँचा उसको डरा हुआ देखकर पत्नी ने पूछा क्या हुआ आप इतने डरे हुए औऱ दौड़ते हुए क्यो आ रहे हो। पति ने सारी बात बताई औऱ बोला मुझे बचा ले नही तो आज मेरी मौत निश्चित है। पत्नी बोली चुपचाप मेरी गोद मे सो जाओ औऱ कुछ बोलना मत मैं देखती हूँ उसे आने दो। पति ने वैसा ही किया जैसा पत्नी ने बोला थोड़ी देर बाद हल जोतने वाला व्यक्ति उसे ढूढते हुए वही पहुँच गया औऱ उसकी पत्नी से बोला इधर एक आदमी आया है क्या? पत्नी धीरे से मुंह पर उंगली रखकर बोली चुप अभी मेरा बेटा सो रहा है अगर जाग गया तो रोयेगा औऱ उसका रोना सुनकर मेरे पति आ जायेंगे क्योकि वह अपने बेटे को रोते हुए नही देख सकते। जब उसने उस औरत की गोद मे एक हट्टे कट्टे व्यक्ति को सोते हुए देखा जिसका चेहरा उसके आँचल से ढका हुआ है। उसने सोचा जिसका बेटा ऐसा है तो पिता कैसा होगा। यह सोचकर उसने अपने गाँव की ओर दौड़ लगा दी। उसके जाने के बाद पहलवान ने अपनी गलती के लिए पत्नी से क्षमा माँगी। औऱ प्राण बचाने के लिए धन्यवाद किया।

शुक्रवार, 7 मई 2021

ईश्वर का मंगलमय विधान

एक राज्य में एक मंत्री थे वे हर घटना में ईश्वर की मंगलमय इच्छा देखते थे। एक दिन राजा आपने अस्त्र शस्त्र  का निरीक्षण कर रहे थे। एक तलवार की धार पर उंगली फेर कर धार का निरीक्षण कर रहे थे। धार तेज होने के कारण राजा की उंगली का एक पोर कट गया खून की धार निकल पड़ी जब मंत्री ने देखा तो उनके मुख से अचानक निकल गया चलो ये भी ठीक हुआ मंत्री की बात सुनकर राजा को बड़ा क्रोध आया औऱ उन्होंने मंत्री को कारागार में डाल दिया। जैसे ही मंत्री को कारागार में डाला गया मंत्री ने फिर से कहा चलो ये भी अच्छा हुआ। कुछ दिन के बाद राजा जंगल मे आखेट के लिए गए और रास्ता भटक गए और भीलो के देश मे पहुँच गए। जहाँ कबीले के सरदार ने कोई आयोजन रखा था जिसमे मनुष्य की बलि की आवश्यकता थी और भील किसी मनुष्य की तलाश कर रहे थे तभी उनकी नजर राजा पर पड़ी और वह राजा को बांधकर सरदार के पास ले गए पूजन के बाद वलि की तैयारी शुरू की गई। सरदार ने आदेश दिया कि पहले इसका निरीक्षण करो इसका कोई अंग भंग तो नही क्योकि जब टूटे हुए चावल भगवान को नही चढ़ते तो खंडित मनुष्य की वलि कैसे चढ़ाई जा सकती है। राजा के शरीर का निरीक्षण करने पर राजा की कटी हुई उंगली देखकर भीलो ने राजा को छोड़ दिया। जैसे ही राजा को छोड़ा गया राजा को मंत्री की बात याद आ गयी और वह सीधे मंत्री के पास जा पहुँचे। मंत्री को कारागार से बाहर लाया गया राजा ने मंत्री से पूछा आपने मेरी उंगली कटने पर ये क्यो कहा था कि चलो ये भी ठीक हुआ यह तो मुझे समझ मे आ गया लेकिन जब मैंने आपको कारागार में डाला तब आपने ये क्यो कहा कि चलो ये भी ठीक हुआ? राजा की बात सुनकर मंत्री बोला महाराज पहले तो मैने इसलिए बोला था कि चलो ये भी ठीक हुआ क्योंकि अगर उस दिन आपकी उंगली नही कटती तो आज आपका सिर कट जाता। और दूसरी बार इसलिए बोला था कि मैं आपका सबसे विश्वसनीय मंत्री हूँ और हर समय आपके साथ रहता हूँ। अगर उस दिन आपने मुझे कारागार में नही डाला होता तो आज आप तो उंगली कटी होने के कारण बच गए परंतु मैं नही बचता। मेरी तो आज वलि चढ़ जाती । इसलिए ईश्वर जो भी करता है उसमें कही न कही हमारा हित छुपा रहता है। हमारी शोच जहाँ पर समाप्त होती है वहां से उसकी सोच प्रारम्भ होती है। हम अपने एक मष्तिष्क से सोचते हैं उसके तो अनंत मष्तिष्क है। उसका निर्णय हमे प्रारंभ में कष्टकारी जरूर लगता है किंतु उसमे कहि न कही हमारा हित छुपा रहता है। कोई भी पिता अपने बच्चो के साथ अन्याय नही कर सकता फिर वह तो परम पिता है। ये सारा संसार उसी का है। औऱ हम सब उसके बच्चे। और अगर कोई छोटा बच्चा अपने पिता से मिर्च दिलाने की जिद करने लगे तो क्या पिता उसे मिर्ची दे सकता है। औऱ अगर किसी बच्चे को फोड़ा हो जाता है तो माता पिता हिर्दय पर पत्थर रखकर उसको चीरा लगवा देते हैं ताकि बच्चे को कष्ट से मुक्ति मिल जाये।

गुरुवार, 6 मई 2021

सारा संसार किसका है?

किसी गाँव मे एक एक महात्मा रहते थे। वे बड़े ही शांत, धीर, और हर एक घटना में परमात्मा की इच्छा को देखते थे। उनके चर्चे बहुत दूर दूर तक फैले हुए थे। एक दिन एक व्यक्ति महात्मा के पास आया और बोला हे महात्मा ! मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ कृपया मुझे अपनी शरण मे ले महात्मा बोले- ठीक है आज से तू मेरा शिष्य बन गया। व्यक्ति बोला- परन्तु महात्मा जी मैं चोरी करता हूँ, महात्मा बोले- कोई बात नही। व्यकि बोला - महात्मा जी मैं मास, मदिरा का सेवन करता हूँ। महात्मा बोले- कोई बात नही। व्यकि बोला - महात्मा जी मैं व्यभिचारी हूँ, लूटपाट करता हूँ, यहाँ तक कि धन के लिए लोगो की हत्या तक कर देता हूँ। महात्मा बोले- ठीक है कोई बात नही।
महात्मा की बात सुनकर वह व्यक्ति महात्मा के चरणों मे गिर गया और बोला- महात्मा जी मैंने आपको अपनी सारी बुराई बताई इसके बाद भी आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर रहे हैं ऐसा क्यों? 
महात्मा बोले - ये पृथ्वी किसकी है?
व्यक्ति बोला -भगवान की
महात्मा बोले- ये वायु, जल ,अकाश, सुर्य, चंद्रमा, अन्न सब किसके हैं?
व्यकि बोला- सब भगवान के है।
महात्मा बोले- जब सब कुछ उस परमपिता का है और उसको तुमसे कोई परेशानी नही तो मैं उसके निर्णय के विरुद्ध जाकर क्यो उसके निर्णय पर उंगली उठाऊ।
अगर उसको तुमसे परेशानी होती तो वह क्षण भर में तेरी सांसे रोक देता। मैं कौन होता हूँ उसके निर्णय के विरुद्ध जाने वाला।
वह व्यक्ति महात्मा के चरणों मे पड़ गिड़गिड़ाने लगा।
और एक अच्छा शिष्य औऱ नगरिक बन गया।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

कामदगिरि-चित्रकूट-परिक्रमा

भारतवर्ष तीर्थो का देश है धर्मप्राण भारतीय संस्कृति के भव्य भवन को संभालने वाले सुदृढ आधारस्तंभो के रूप में स्थित इन अगणित पुनीत तीर्थों से शोभित यह धराधाम धन्य-धन्य हो रहा है। हमारे तीर्थ हमारी आस्था के केंद्रबिंदु है।
चित्रकूटधाम-कामदगिरि एक ऐसा ही अरण्यतीर्थ है जो भारतवर्ष का हृदयबिन्दु है। चित्रकूट धाम की परिधि में श्री कामदगिरि स्थित है। यह स्थल सृष्टि के प्रारंभकाल से ही एक अति रमणीक पुनीत सिद्ध तपोवन रहा है।
         ।।कामदगिरि-परिक्रमा।।
चित्रकूट आनेवाला हर श्रद्धालु मंदाकिनी गंगास्नान औऱ कामदगिरि की परिक्रमा जरूर करता है। मान्यता हैं कि भगवान श्रीरामजी वनवास काल मे लक्षण और सीता सहित कामदगिरि का आश्रय लेकर बारह वर्ष तक चित्रकूट में रहे थे। वाल्मीकि रामायण में यह अवधि दस वर्ष मानी गयी हैं।
रघुपति चित्रकूट बसि नाना।
चरित किए श्रुति सुधा समाना।।
अतः श्रद्धालु जन कामदगिरि को साक्षात भगवद्विग्रह मानकर उसका पूजन, अर्चन, दर्शन तथा उसकी परिक्रमा करते हैं 'कामदमनि कामदा कलप तरु' अथवा 'कामदा भे गिरि राम प्रसादा' -जैसी तुलसीदास की उक्तियाँ आज लोकमान्यता का रूप ले चुकी है। अतः कामदगिरि को सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाला देवता माना जाता है। कामदगिरि-परिक्रमा की प्रथा बड़ी प्राचीन हैं।
कामदगिरि के उत्तर द्वार (मुख्य द्वार) मुखारविंद से परिक्रमा प्रारम्भ होती हैं। परिक्रमा मार्ग में प्राचीन एवं नवीन सैकड़ों देवालय है, जिनमे मुखारविंद, भरतमिलाप, बहरा हनुमान तथा पीलीकोठी के मंदिर दर्शनीय है। परिक्रमा से संलग्न लक्ष्मणपहाड़ी की चोटी पर बने लक्ष्मण मंदिर एवं कुँए को देखने श्रद्धालु लोग जाते हैं। कामदगिरि परिक्रमा स्थल हर जाति, धर्म, वर्ग एवं सम्प्रदाय के लिए सदैव खुला रहता है। कामदगिरि की ५ कि०मि०लम्बी परिक्रमा नंगे पैर करने की प्रथा हैं। कुछ लोग लेटकर परिक्रमा करते हैं, जिसे स्थानीय भाषा मे 'दण्डवती-परिक्रमा' कहते हैं।
मान्यता है कि कामदगिरि के दर्शन, पूजन और परिक्रमा करने से लोगो की मनोकामना पूरी होती हैं। दीपावली में कामदगिरि और मंदाकिनी गंगा में दीपदान करने से इच्छित लाभ मिलता हैं तथा सोमवती अमावस्या पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ बनी रहती है।
           ।।विशेषपर्व और मेले।।
सावनझुला, नवरात्र, दीपावली, रामनवमी तथा विवाह पंचमी, प्रायः सभी तीज-त्योहार, सूर्य और चंद्रग्रहण, प्रत्येक मास की अमावस्या और रामायण मेला आदि उत्सव यहाँ मनाये जाते हैं। वर्षभर प्रतिदिन आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ यहाँ बनी रहती है। बुंदेला-पन्ननरेश महाराज छत्रसाल ने सन १६८८ ई० में मुग़लसेनापति अब्दुल हमीद को हराकर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया और पन्ना को अपनी राजधानी बनाया। हिन्दुधर्म और संस्कृति का विशेष प्रेमी पन्नाराज परिवार चित्रकूट धाम की महिमा मंडित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। कहा जाता है। कहा जाता है कि कामदगिरि-परिक्रमा का पक्का मार्ग सर्वप्रथम महाराज छत्रसाल की धर्मपत्नी चंद्रकुवरी ने ही सन १७५२ ई० में बनवाया था। जिसका पुनरुद्धार महाराज अमानसिंह के कार्यकाल में हुआ। महाराज अमानसिंह(१८वी सदी का उत्तरार्द्ध)-ने चित्रकूटधाम-कामदगिरि में अनेक मठो, मंदिरों, कुआँ औऱ घाटो का निर्माण कराया तथा उसमें माफियाँ लगायी। १९वी सदी के पन्ननरेश हिंदुपत ने भी उदार वंश परंपरा का निर्वाह किया और धीरे-धीरे चित्रकूटधाम में पन्ना-राजघराने के द्वारा बनाये गये मठ और मंदिरो की संख्या बहुत बढ़ गयी। इस जनप्रिय राजघराने से सम्मान पाने के कारण इस अवधि में चित्रकूट का महत्व भी जनसामान्य में विशेषरूप से प्रचारित हुआ।
चित्रकूट ऋषिमुनियों की तपस्थली ही नही अपितु हजारो, लाखो लोगो की श्रद्धा का केन्द्रविन्दु भी है।
वही कामद चितकूट स्थली यह।
सियाराम की पुण्यलीला स्थली यह।।
तपो पूत रम्या अरण्य स्थली यह।
सभी के लिये स्वर्ग की स्थली यह।।

श्री हनुमानजी का सेवा व्रत

श्रीरामजी के सेवको में हनुमानजी अद्वतीय है तभी तो भगवान श्रीशंकर जी कहते हैं-
हनुमान सम नही नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(रा०च०मा० ७/५०/८-९)
यद्यपि बड़भागी तो अनेक है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने वाला प्रत्येक प्राणी बड़भागी है क्योंकि-
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
परंतु मनुष्य शरीर प्राप्तकर सच्चे अर्थ में बड़भागी तो वही है जो श्री राम कथा का श्रवण करे-
जे सुनि सादर नर बड़भागी।
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।।
तथा श्री राम कथा का श्रवण करके जो श्री रामानुरागी हो जाते हैं वे मात्र बड़भागी ही नही, अपितु अति बड़भागी है, तभी तो वानर कहते हैं-
हम सब सेवक अति बड़भागी।
संतत सगुन ब्रम्ह अनुरागी।।
जो भक्ति मार्ग पर चलकर भगवान की ओर बढ़ते हैं वे अति बड़भागी है, किंतु भगवान कृपापूर्वक जिसके पास स्वयं चलकर पहुँच जाते हैं वे तो अतिसय बड़भागी है, तभी तो तुलसीदास जी माता अहिल्या के लिए लिखते हैं-
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी।
परन्तु परहित के भाव से प्रभु की सेवा में देहोत्सर्ग कर देने वाले श्रीजटायुजी को भी श्रीरामचरितमानस की भावभरी भाषा मे परम् बड़भागी कहकर संबोधित किया गया है। यथा-
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम् बड़भागी।।
भगवान शंकर जी कहते हैं कि भले ही कोई बड़भागी, अतिशय बड़भागी और परम् बड़भागी बना रहे किंतु-
हनुमान सम नहिं बड़भागी।
क्योकि-
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार  बार प्रभु निज मुख गाई।।
हनुमानजी श्रीरामजीके प्रति सेवाभाव से समर्पित हैं किंतु उन्हें सेवक होने का अभिमान नही है, क्योंकि उनका मन प्रभुप्रीति से भरा है। 'प्रीति सेवकाई' दोनोका उनमे मणिकंचनयोग दिखाई देता है। वे अपने को प्रभु के हाथों का बाण समझते हैं-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
किसीने बाण से पूछा कि तुम्हारे चरण तो है नही फिर भी तुम चलते हो अर्थात साधन के विना तुम्हारी गति कैसे होती है तो बाण ने उत्तर दिया कि मैं आपने चरण से नही वर्ण मै अपने स्वामी के हाथ से चलता हूँ। मैं तो साधन हीन हूँ मेरी गति तो भगवान के हाथ है। इस प्रकार हनुमानजी अपने को श्रीरामजी का बाण समझ कर सेवा करते हुए अपनी प्रत्येक सफलता में भगवान की कृपा का हाथ देखते है। इसलिये जब माता जानकी जी ने उलाहना देते हुए कहा- हनुमान! प्रभु तो अत्यंत कोमलचित हैं, किंतु मेरे प्रति उनके कठोरतापूर्ण व्यवहार का कारण क्या है? 
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
इतना कहते-कहते माता मैथिली अत्यंत व्यथित हो गयी, उनके नेत्र निर्झर हो गये। कण्ठ अवरुद्ध हो गया। अत्यंत कठिनता से वे इतना ही कह पायी की आह ! प्रभु ने मुझे भी भुला दिया।
बचनु न आव नयन भर बारी।
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।।
हनुमानजी ने निवेदन किया माँ ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है तो जानकी माता ने पूछा कि इसका क्या प्रमाण है कि प्रभु ने मुझे भुलाया नही है, तब हनुमानजी ने प्रति प्रश्न करते हुए कहा माता! माता प्रभु ने आपको भुला दिया है इसका क्या प्रमाण है?  जानकी जी ने कहा चित्रकूट में इंद्र पुत्र जयंत ने कौआ बनकर जब मेरे चरण में चोच का प्रहार किया तो प्रभु ने उसके पीछे ऐसा बाण लगाया कि उसे कहि त्राण नही मिला, किंतु आज मेरा हरण करने वाला रावण त्रिकुट पर बसी लंका में आराम से रह रहा है, इसलिए लगता है-
अहह नाथ हौ निपट बिसारी।
तब हनुमानजी ने कहा - माता प्रभु ने जयंत के पीछे तो सींक रूप में बाण लगाया था-
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना।।
माता जी ! सोचिये लकड़ी की छोटी सी सींक, क्या बाण बनी होगी ! जानकी जी बोली पुत्र बात सींक की नही प्रभु के संकल्प की है।
प्रेरित मंत्र ब्रम्हसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा।।
हनुमानजी ने फिर कहा - माता यदि जयंत के पीछे प्रभु ने सींक के रूप में बाण लगा दिया तो क्या यह सम्भव नही कि रावण के पीछे प्रभु ने वानर रूपी बाण लगा दिया हो। हे माता ! आप कृपापूर्वक देखिये तो आपके समक्ष हनुमान के रूप में श्रीरामजी का बाण ही उपस्थित है-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
माता ! प्रभु ने आपको भुलाया नही है आप चिंता न करे-
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदय धीर धरु जरे निसाचर 
जानु।।
अब यहाँ रघुपति बाण से 'जिमि अमोघ रघुपति कर बाना' तथा कृसानु से 'दनुजवनकृशानुं' का संकेत मिलता हैं।
श्री जानकी माता अति प्रसन्न होकर बोली - बेटा ! तुमने  मेरे मन का भ्रम मिटा दिया मैं समझ गई कि रामबाण के रूप में तुम मेरे समक्ष उपस्थित हो। हनुमानजी बोले त्राहि त्राहि माता आप ऐसा न बोले आपको तो पहले से ही ये विदित था कि श्रीरामबान के रूप में यहां हनुमान उपस्थित है। तभी तो आपने रावण को फटकारते हुए कहा था-
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नही रघुवीर बान की।।
उपयुक्त प्रसंग में इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि हनुमानजी अपने को प्रभु का बाण अर्थात उनके हाथ का यंत्र समझते हैं। तभी तो लंकादहन-जैसा दुष्कर करके जब वे जानकी जी के यहां पहुँचे तो तुलसी जी ने लिखा-
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुताँ के आगे ठाढ भयउ कर जोरि।।
करबद्ध मुद्रा में अत्यंत विनम्र लघुरूपधारी अपने लाडले लाल हनुमान जी को देखकर जानकी माता बोली बेटा हनुमान !
लंका जला के जली भी नही हनुमान विचित्र है पूँछ तुम्हारी।
कौन सा जादू 'राजेश' भरा हँसि पुछति है मिथिलेश दुलारी।।
हनुमानजी ने उत्तर दिया-माँ !
बोले कपी हिंय राघव आगे हैं पीछे हैं पूँछ रहस्य हैं भारी।
बानर को भला पूछता कौन श्रीरामजी के पीछे है पूँछ हमारी।।
ऐसे परम् विनम्र श्रीराम-सेवाव्रती हनुमानजी के चरणों मे सत सत नमन।
जिनके लिए स्वंय भगवान शंकर कहते हैं-
हनुमान सम नहि बड़भागी।
नहि कोउ राम चरन अनुरागी।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
(राजेश रामायणी)







सोमवार, 12 अप्रैल 2021

नरको का स्वरूप, नरको में प्राप्त होने वाली विविध यातनाएं तथा नरको में गिराने वाले कर्म एवं जीव की शुभाशुभ गति

श्रीसूतजी ने कहा- पूछे गये आपने प्रश्नों का सम्यक उत्तर सुनकर पक्षीराज गरुड़ अतिसय आह्लादित हो भगवान विष्णु से नरको के स्वरूप को जानने की इच्छा प्रकट की।
गरुड़ ने कहा- हे उपेंद्र! आप मुझे उन नरको का स्वरूप और भेद बताये, जिनमे जाकर पापीजन अत्यधिक दुःख भोगते है।
श्रीभगवान ने कहा- हे अरुण के छोटे भाई
 गरुड़! नरक तो हजारों है। सभी को विस्तृत रूप में बताना सम्भव नही है। अतः मैं आपको मुख्य मुख्य नरको को बता रहा हूँ।
हे पक्षीराज ! तुम मुझसे यह जान लो की 'रौरव' नामक नरक अन्य सभी की अपेक्षा प्रधान है। झूठी गवाही देने वाला और झुठ बोलने वाला व्यक्ति रौरव नरक में जाता है। इसका विस्तार दो हजार योजन है। जांघ भर की गहराई में वहाँ दुस्तर गड्ढा है। दहकते हुए अंगारो से भरा हुआ वह गड्ढा पृथ्वी के समान बराबर(समतल भूमि-जैसा) दिखता है। तीव्र अग्नि से वहाँ की भूमि भी तप्तआँगर जैसी है। उसमें यम के दूत पापियो को डाल देते हैं। उस जलती हुई अग्नि से संतप्त होकर पापी उसी में इधर उधर भागता  है। उसके पैरों में छाले पड़ जाते हैं, जो फूट कर बहने लगते हैं। रात दिन वह पापी पैर उठा उठा कर चलता है।इस प्रकार जब वह उस नरक का विस्तार पार कर लेता है, तब उसे पाप की शुद्धि के लिये उसी प्रकार के दूसरे नरक में भेजा जाता है।
है पक्षीराज! इस प्रकार मैने तुम्हे रौरव नामक प्रथम नरक की बात बता दी। अब तुम महारौरव नरक की बात सुनो। यह नरक पाँच हजार योजन में फैला हुआ है।
वहाँ की भूमि ताँवे के समान वर्ण वाली है।उसके नीचे अग्नि जलती रहती है। वह भूमि विद्युत-प्रभा के समान कांतिमान है। देखने मे वह पापियों को महाभयंकर प्रतीत होती है। यमदूत पापी व्यक्ति के हाथ-पैर बाँधकर उसे उसी में लुढ़का देते हैं और वह लुढ़कता हुआ उसी में चलता है। मार्ग में कौआ, बगुला, भेड़िया, उलूक, मच्छर और बिच्छू आदि जीव-जंतु क्रोधातुर होकर उसे खाने के लिए तत्पर रहते हैं। वह उस जलती हुई भूमि एवं भयंकर जीव-जंतुओं के आक्रमण से इतना संतप्त हो जाता है कि उसकी बुद्धि ही भृष्ट हो जाती है। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगता है तथा बार बार उस कष्ट से बेचैन हो उठता है। उसको वहाँ कही पर भी शांति नही प्राप्त होती। इस प्रकार उस नरकलोक के कष्ट को भोगते हुये पापी के जब हजारो वर्ष बीत जाते हैं, तब कही जाकर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
इसके बाद जो नरक है उसका नाम 'अतिशीत' है। यह स्वभावतः अत्यंत शीतल है। महारौरव नरक के समान ही उसका विस्तार भी बहुत लंबा है। वह गहन अंधकार से व्याप्त रहता है। असहाय कष्ट देने वाले यमदूतों के द्वारा पापिजन लाकर यहां बाँध दिये जाते है। अतः वे एक दूसरे का आलिंगन करके वहाँ की भयंकर ठंडक से बचने का प्रयास करते हैं। उनके दांतो में कटकटाहट होने लगती है। हे पक्षीराज ! उनका शरीर वहाँ की उस ठंडक से काँपने लगता है। वहाँ भूख-प्यास बहुत अधिक लगती है। इसके अतिरिक्त भी उन्हें वहाँ अनेक कष्टो का सामना करना पड़ता है। वहाँ हिमखंड का वहन करने बाली वायु चलती हैं, जो शरीर की हड्डियों को तोड़ देती है। वहां के प्राणी भूख से त्रस्त होकर मज्जा, रक्त और गल रही हड्डियों को खाते हैं। परस्पर भेट होने पर वे सभी पापी एक दूसरे का आलिंगन कर भ्रमण करते रहते हैं। इस प्रकार उस तमसावृत्त नरक में मनुष्य को बहुत से कष्ट झेलने पड़ते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ! जो व्यक्ति अन्यान्य असंख्य पाप करता है वह इस नरक के अतिरिक्त 'निकृन्तन' नाम से प्रसिद्ध दूसरे नरक में जाता है। हे खगेन्द्र ! वहाँ अनवरत कुम्भकार के चक्र के समान चक्र चलते रहते हैं, जिनके ऊपर पापिजनो को खड़ा करके यम के अनुचरो के द्वारा अँगुली में स्थित कालसूत्र से उनके शरीर को पैर से लेकर शिरोभाग तक छेदा जाता है। फिर भी उनका प्राणान्त नही होता। इसमें शरीर के सैकड़ों भाग टूटकर छिन्न -भिन्न हो जाते हैं और पुनः इक्कठे हो जाते हैं। इस प्रकार यमदूत पापकर्मियो को वहाँ हजारो वर्ष तक चक्कर लगवाते है। जब सभी पापो का विनाश हो जाता हैं, तब कही जाकर उन्हें उस नरक से मुक्ति प्राप्त होती है।
अप्रतिष्ट नामका एक अन्य नरक है वहाँ जाने वाले प्राणी असहाय दुख का भोग भोगते है। वहाँ पापकर्मियो के दुख के हेतुभूत चक्र और रहट लगे रहते हैं। जबतक हजारो वर्ष पूरे नही हो जाते, तबतक वह रुकता नही। जो लोग उस चक्र पर बाँधे जाते हैं, वे जल के घट की भाँति उस पर घूमते रहते है। पुनः रक्त का वमन करते हुए उनकी आंते मुख की ओर से हाहर आ जाती है और नेत्र आँतो में घुस जाते हैं। प्राणियों को वहाँ जो दुख प्राप्त होते हैं, वे बड़े ही कष्टकारी है।
हे गरुड़ ! अब 'असिपत्रवन' नामक दूसरे नरक के बारे में सुनो। यह नरक एक हजार योजन में फैला हुआ है। इसकी सम्पूर्ण भूमि अग्नि से व्याप्त होने के कारण अहनिश जलती रहती हैं। इस भयंकर नरक में सात-सात सूर्य अपनी सहस्त्र-सहस्त्र रश्मियों के साथ सदैव तपते रहते हैं, जिनके संताप से वहाँ के पापी हर क्षण जलते ही रहते हैं। इसी नरक के मध्य एक चौथाई भाग में 'शीतस्निग्धपत्र' नाम का एक वन है। है पक्षिश्रेष्ठ ! उसमे वृक्षों से टूटकर गिरे फल और पत्तो के ढेर लगे रहते हैं। मांसाहारी बलवान कुत्ते उसमे विचरण करते रहते है। वे बड़े -बड़े मुख वाले, बड़े-बड़े दांतो वाले तथा व्याघ्र की तरह महाबलवान है। अत्यंत शीत एवं छाया से व्याप्त उस नरक को देखकर भूख - प्यास से पीड़ित प्राणी दुखी होकर करुण क्रंदन करते हुए वहाँ जाते हैं। ताप से तपती हुई पृथ्वी की अग्नि से उनके दोनों पैर जल जाते हैं, अत्यंत शीतल वायु बहने लगती है, जिसके कारण उन पापियों के ऊपर तलवार के समान तीक्ष्ण धार वाले पत्ते गिरते हैं। जलते हुए अग्नि समूह से युक्त भूमि में पापिजन छिन्न -भिन्न होकर गिरते हैं। उसी समय वहाँ के रहने वाले कुत्तों का आक्रमण भी  उन पापियों पर होने लगता है। शीघ्र ही वे कुत्ते रोते हुए उन पापियों के शरीर के माँस को खण्ड- खण्ड करके खा जाते हैं।
हे तात ! असिपत्रवन नामक नरक के विषय को मैने बता दिया। अब तुम महाभयानक 'तृप्तकुम्भ' नामक नरक का वर्णन मुझसे सुनो- इस नरक में चारो ओर  फैले हुए अत्यंत गरम-गरम घड़े है। इनके चारो ओर अग्नि प्रज्वलित रहती है, वे उबलते हुये तैल और लौह के चूर्ण से भरे रहते हैं। पापियों को ले जाकर उन्ही में औधे मुख डाल दिया जाता है। गलती हुई मज्जारूपी जल से युक्त उसी में फूटते हुए अङ्गों वाले पापी काढ़ा के समान बना दिये जाते हैं। तदन्तर भयंकर यमदूत नुकीले हथियारों से उन पापियों की खोपड़ी, आँखों तथा हड्डियों को छेड़कर नष्ट करते हैं। गिद्द उनपर बड़ी तेजी से झपट्टा मारते हैं। उन उबलते हुए पापियो को अपनी चोंच से खीचते है और फिर उसी में छोड़ देते हैं। उसके बाद यमदूत उन पापियों के सिर, स्नायु, द्रवीभूत माँस, त्वचा आदि को जल्दी-जल्दी करछुल से उसी तेल में घूमते हुए उन पापियों का काढ़ा बना डालते हैं।
हे पक्षिन ! यह तप्तकुम्भ-जैसा है उस बात को विस्तार पूर्वक मैने तुम्हें बता दिया। सबसे पहले नरक को रौरव और दूसरे को महारौरव नरक कहा जाता है। तीसरे का नाम अतिशीत एवं चौथे नरक का नाम निकृन्तन है। पाँचवाँ नरक अप्रतिष्ठ, छठा असिपत्रवन एवं सातवाँ तप्तकुम्भ है। इस प्रकार ये सात प्रमुख नरक हैं। अन्य भी बहुत सारे नरक सुने जाते हैं जिनमे पापी अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं। यथा -रोध, सूकर, ताल, तप्तकुम्भ, महाज्वाल, शबल, विमोहन, कृमि, क्रमिभक्ष, लालभक्ष, विषजन, अधःशिर, पुयवह, रुधिरान्ध, विड्भुज, वैतरणी, असिपत्रवन, अग्निज्वाल, महाघोर, संदंश, अभोजन, तमसु, कालसूत्र, लौहतापी, अभिद, अप्रतिष्ठ, तथा अवोचि आदि। ये सभी नरक यम के राज्य में स्थित है। पापिजन पृथक-पृथक रूप से उसमे गिरते हैं। रौरव आदि सभी नरको की अवस्थित इस पृथ्वीलोक से नीचे मानी गयी है। जो मनुष्य गौ की हत्या, भ्रूणहत्या और आग लगने का दुष्कर्म करता है, वह रोध नामक नरक में गिरता है। जो ब्रम्हाघती, मद्धपी तथा सोने की चोरी करता है, वह सूकर नामक नरक में गिरता है। क्षत्रिय और वैश्य की हत्या करने वाला 'ताल' नामक नरक में गिरता है।
जो मनुष्य ब्रम्हाहत्या एवं गुरुपत्नी तथा बहन के साथ सहवास करने की दुसचेष्ठा करता है वह तप्तकुम्भ नामक नरक में जाता है। जो असत्य-सम्भाषण करने वाले राजपुरुष है उनको भी उक्त नरक की प्राप्ति होती है। जो प्राणी निषिद्ध पदार्थों का विक्रेता, मदिरा का व्यापारी है तथा स्वामिभक्त सेवक का परित्याग करता है, वह तप्तलौह नामक नरक को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति कन्या या पुत्रवधू के साथ सहवास करने वाला है, जो वेद-विक्रेता और वेदनिन्दक हैं, वह अंत मे 'महाजवाल' नामक नरक का वासी होता है। जो गुरु का अपमान करता है, शब्दबाण से उनपर प्रहार करता है तथा अगम्या स्त्री के साथ मैथुन करता है वह 'शबल' नामक नरक में गिरता है।
शोर्य-प्रदर्शन में जो वीर मार्यादा का परित्याग करता है वह 'विमोहन' नामक नरक में जाता है। जो दूसरे का अनिष्ट करता है वह उसे 'क्रमिभक्ष' नामक नरक की प्राप्ति होती है। देवता और ब्राम्हण से द्वेष रखने वाला प्राणी 'लालाभक्ष' नरक में जाता है। जो परायी धरोहर का अपहर्ता है तथा जो बाग बगीचों में आग लगता है, उसे 'विषजन्' नामक नरक की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य असत-पात्र से दान लेता है तथा असत प्रतिग्रह लेनेवाला, अयाज्य्याजक और जो नक्षत्र से जीविका उपार्जन करता है वह मनुष्य 'अधःशिर' नामक नरक में जाता है। जो मदिरा माँस आदि का विक्रेता है वह 'पुयवह' नामक घोर नरक में गिरता है। जो कुक्कुट, बिल्ली, सुअर, पक्षी, मृग, भेड़ को बांधता है, वह भी उसी प्रकार के नरक में जाता है। जो ग्रहदाही हैं, बिषदाता है, जो कुड्डाशी हैं, जो सोम विक्रेता है, जो मद्धपी हैं, जो माँस भोजी है तथा जो पशुहंता हैं, वह व्यक्ति 'रुधिरान्ध' नामक नरक में जाता है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। एक ही पंक्ति में बैठे हुए किसी प्राणी को धोखा देकर जो लोग विष खिला देते हैं उन सभी को 'विड्भुज' नामक घोर नरक प्राप्त होता है। मधु निकलने वाला मनुष्य 'वैतरणी' और क्रोधी 'मुत्रसंज्ञक' नामक नरक में जाता है। अपवित्र और क्रोधी 'असिपत्रवन' नामक नरक में जाता है। मृगों का शिकार करने वाला व्याध 'अग्निज्वाल' नामक नरक में जाता है, जहाँ उसके शरीर को कौवे नोच- नोच कर खाते हैं।
यज्ञकर्म में दीक्षित होने पर जो व्रत का पालन नही करता उसे उस पाप से 'संदंश' नरक में जाना पड़ता है। यदि स्वपन में भी संन्यासी या ब्रम्हचारी स्खलित हो जाते है तो वे 'अभोजन' नरक में जाते हैं। जो लोग क्रोध और हर्ष से भरकर वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध कर्म करते हैं उन सबको नरकलोक की प्राप्ति होती है।
सबसे ऊपर भयंकर गर्मी से संतप्त रौरव नामक नरक है। उसके नीचे अत्यंत दुखदायी महारौरव है। उस नरक से नीचे शीतल और उस नरक के बाद नीचे तामस नरक माना गया है। इसी प्रकार बताए गए क्रम में अन्य नरक भी नीचे ही है।
इन नरकलोको के अतिरिक्त भी सैकड़ों नरक है, जिन में पहुँचकर पापी प्रतिदिन पकता है, जलता है, गलता है, विदीर्ण होता है, चुर्ण किया जाता है, गीला होता है, क्वाथ बनाया जाता हैं, जलाया जाता हैं और कहि वायु से प्रताड़ित किया जाता है- ऐसे नरको में एक दिन सौ वर्ष के समान होता है। सभी नरको से भोग भोगने के बाद पापी तिर्यक- योनी में जाता है। ततपश्चात उसको कृमि, कीट, पतंग स्थावर तथा एक खुर वाले गधे की योनि प्राप्त होती है। तदन्तर मनुष्य जंगली हाथी आदि की योनि में जाकर गौ की योनि में पहुँचता है। हे गरुड़ ! गधा, घोड़ा, खच्चर, गौर मृग, शरभ और चमरी- ये छः योनियाँ एक खुर वाली होती है। इसके अतिरिक्त बहुत सी पापाचार-योनियाँ भी है, जिनमे जीवात्मा को कष्ट भोगना पड़ता है। उन सभी योनियों को पाकर प्राणी मनुष्य योनि में आता है और कुबड़ा, कुत्सित, वामन, चाण्डाल और पुलकश आदि नर योनियों में जाता है। अवशिष्ट पाप-पुण्य से समन्वित जीव बार-बार गर्व में जाते है और मृत्यु को प्राप्त होता है। उन सभी पापो के समाप्त हो जाने के बाद प्राणी को सूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय आदि को आरोहिणी -योनि प्राप्त होती है। कभी-कभी वह सत्कर्म से ब्राम्हण, देव और इन्द्रत्व के पद पर भी पहुँच जाता है।
हे गरुड़ ! यम द्वारा निदिष्ट योनि में पुण्यगति प्राप्त करने में जो प्राणी सफल हो जाते है, वे सुन्दर-सुन्दर गीत गाते, वाद्य बजाते और नृत्य आदि करते हुए प्रसन्नचित गंधर्वो के साथ, अच्छे से अच्छे हार, नूपुर आदि नाना प्रकार के आभूषणों से युक्त चन्दन आदि की दिव्य सुगंध और पुष्पों के हार से सुवासित एवं अलंकृत चमचमाते हुए विमान में स्वर्ग लोक को जाते हैं। पूण्य-समाप्ति के पश्चात जब वहाँ से पुनः पृथ्वी लोक पर आते हैं तो राजा अथवा महात्माओ के घर मे जन्म लेकर सदाचार का पालन करते हैं। समस्त भोगो को प्राप्त करके पुनः स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। अथवा पहले के समान आरोहिणि-योनि में जन्म लेकर दुःख भोगते  हैं।
मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्राणी कि मृत्यु तो निश्चित है। पापियों का जीव अधोमार्ग से निकलता है। तदन्तर पृथ्वीतत्व में पृथ्वी, जलतत्व में जल, तेजतत्व में तेज, वायुतत्व में वायु, आकाशतत्व में आकाश तथा सर्वव्यापी मन चंद्र में जाकर विलीन हो जाता है। हे गरुड़ ! शरीर मे काम, क्रोध एवं पंचीन्द्रियाँ है। इन सभी को शरीर का चोर की संज्ञा दी गयी है। काम क्रोध और अहंकार नामक विकार भी उसी में रहने वाले चोर है। उन सभी का नायक मन है। इस शरीर का संहार करने वाला काल है। जो पाप ओर पूण्य से जुड़ा रहता है। जिस प्रकार घर जल जाने पर हम दूसरे घर मे शरण लेते हैं, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियों से युक्त जीव इन्द्रियाधिष्ठात देवताओं के साथ शरीर का परित्याग कर नए शरीर मे प्रविष्ट हो जाता है। शरीर मे रक्त-मज्जादि सात धातुओं से युक्त यह षटकौशिक शरीर है। सभी प्राण, अपान आदि पञ्च वायु, मल-मूत्र, व्याधियाँ, पित्त, श्लेष्म, मज्जा, माँस, मेदा अस्थि, शुक्र और स्नायु- ये सभी शरीर के साथ ही अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं।
हे ताक्षरिय! प्राणियों के विनाश को मैने तुम्हे बता दिया। अब उनके इस शरीर का जन्म पुनः कैसे होता है, उसको मैं तुम्हे बता रहा हूँ।
यह शरीर नसों से आबद्ध, श्रोत्रादिक, इंद्रियों से युक्त और नवद्वारों से समन्वित है। यह सांसारिक विषय वासनाओ के प्रभाव से व्याप्त, काम-क्रोधादि विकार से समन्वित, राग-द्वेष से परिपूर्ण तथा तृष्णा नामक भयंकर चोर से युक्त है। यह लोभ रूपी जाल में फंसा हुआ है। यह माया से भलीभाँति आबद्ध एवं लोभ से अधिष्ठित पुर के समान है। सभी प्राणियों का शरीर इनसे व्याप्त है। जो लोग अपनी आत्मा को नही जानते हैं, वे पशुओ के समान है।
हे गरुड़! चौरासी लाख योनियाँ है और उद्भिज्ज ( पृथ्वी में अंकुरित होनेवाली वनस्पतियाँ) स्वेदज (पसीने से जन्म लेनेवाले जुएँ और लीख आदि कीट), अंडज (पक्षी) तथा जरायुक्त (मनुष्य)- में यह सम्पूर्ण सृष्टि विभक्त है।  ( गरुड़ पुराण-अध्याय-३ )
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विश्व मैं सर्वाधिक बड़ा, छोटा, लंबा एवं ऊंचा

सबसे बड़ा स्टेडियम - मोटेरा स्टेडियम (नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद 2021),  सबसे ऊंची मीनार- कुतुब मीनार- दिल्ली,  सबसे बड़ी दीवार- चीन की ...