शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का हिंदी अनुवाद

उसके उपरांत अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण !आप कर्मों के सन्यास की और फिर निष्काम कर्म योग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याण कारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए।।१।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! कर्मों का संन्यास (अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग) और निष्काम कर्मयोग (अर्थात समत्व बुद्धि से भगवत अर्थ कर्मों का करना) यह दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्म के संन्यास से निष्काम कर्म योग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।।२।। इसलिए हे अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है वह निष्काम कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित हुआ पुरुष सुख पूर्वक संसार रूप बंधन से मुक्त हो जाता है।।३।। हे अर्जुन ! ऊपर कहे हुए सन्यास और निष्काम कर्म योग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं न कि पंडित जन, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल रूप परमात्मा को प्राप्त होता है।।४।। ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगीओं द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और निष्काम कर्मयोग को फल रूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।।५।। परंतु हे अर्जुन ! निष्काम कर्म योग के बिना, सन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भागवत स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।।६।।
वश में किया हुआ है शरीर जिसके  ऐसा जितेंद्रीय और विशुद्ध अंतःकरणवाला एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्कामकर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।।७।। हे अर्जुन ! तत्व को जानने वाला कर साख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सुनता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, तथा आंखों को खोलता और मीचता हुआ भी सब इंद्रियां अपने अपने अर्थो में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।।८-९।।
परंतु हे अर्जुन देशहाभिमानीओं द्वारा यह साधन होना कठिन है और निष्काम कर्मयोग सुगम है, क्योंकि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।।१०।। इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धि रहित केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी असक्ती को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।११।।
इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामी  पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है, इसलिए निष्काम कर्मयोग उत्तम है।।१२।।
हे अर्जुन ! वश में है अंतः करण जिसके ऐसा सांख्योग का आचरण करने वाला पुरुष तो निसंदेह न करता हुआ  न करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती है ऐसा मानता हुआ आनंद पूर्वक सच्चिदानंद घन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।।१३।।
परमेश्वर भी भूत प्राणियों के न कर्तापन और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है, किंतु परमात्मा के सकाशसे प्रकृति ही बर्तती है अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।।१४।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।।१५।। परंतु जिनका वह अंतःकरणका अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है (अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को साक्षात् कराता है)।।१६।।
हे अर्जुन ! तद्रूप है बुद्धि जिसकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही है निरंतर एकीभाव से स्थिति जिसकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित  हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं।।१७।।
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।।१८।।
इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया (अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं) क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है।।१९।। जो पुरुष प्रिय को अर्थात जिस को लोग प्रिय समझते हैं उस को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को अर्थात जिसको लोग अप्रिय समझते हैं उसको प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिरबुद्धि, संशय रहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।।२०।।
बाहर के विषयों में अर्थात सांसारिक भोगों में आसक्ति रहित अंतःकरण वाला पुरुष अंतः करण में जो भागवत ध्यान जनित आनंद है उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।।२१।।
जो यह इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख रूप भासते हैं तो भी निसंदेह दुख के ही हेतु हैं और आदि अंत वाले अर्थात अनित्य हैं, इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।२२।।
जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न  हुए वेग को सहन करने में समर्थ है अर्थात काम क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।।२३।।
जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है ऐसा वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव हुआ सांख्योगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।।२४।।
नाश हो गए हैं सब पाप जिसके तथा ज्ञान करके निवृत हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिसकी एकाग्र हुआ है भगवानके ध्यान में चित्त जिनका ऐसे ब्रह्म वेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।२५।।
काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।।२६।।
हे अर्जुन ! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्याग कर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके।।२७।।
जीती हुई है इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।।२८।।
और है अर्जुन ! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपो का भोगने वाला और संपूर्ण लोकों के ईश्वरो  का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूतप्राणियों का सुहृय अर्थात् स्वार्थ रहित प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है और सच्चिदानंदघन परिपूर्ण शांत ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में और कुछ भी नहीं रहता केवल वासुदेव जी वासुदेव रह जाता है।।२९।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मसंन्यासयोग" नामक पांचवां अध्याय।।५।।

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पांचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूं, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पूरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था वह वेद पाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच गान में मन लगाया। गीत नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और  उसी से उसका राज भवन में प्रवेश हो गया अब वह राजा के साथ रहने लगा और पराई स्त्रियों को बुला बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से कुछ उच्छृंखल होकर वह एकांत में राजा से दूसरों के दोष बताने लगा। पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ बिहार करने की इच्छा से उन्हीं की खोज में घूमा करती थी। उसने पति को अपने मार्ग का कंटक समझ कर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काट कर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया। प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुंचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगंदर रोग से अपने सुंदर शरीर को त्याग कर को नर्क भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई । एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से उधर उधर फुदक रही थी इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नको से फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलिया ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्व जन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गए। वहां अपने पूर्वकृत पापकर्म याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे - भगवन ! हम दोनों ने पूर्व जन्म में अत्यंत घृणित पाप संचय किया है फिर हमें मनोवांछित लोकों में भेजने का क्या कारण है? बताइए।
यमराज ने कहा - गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकांतसेवी, ममता रहित, शांत, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे। प्रतिदिन गीता के पांचवें अध्याय का जप करना उनका सदा का नियम था। पांचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे उन्हें महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गए हो। अतः अब तुम दोनों मनोवांछित लोकों को जाओ क्योंकि गीता के पांचवें अध्याय के माहत्म्य  से तुम दोनों शुद्ध हो गए हो श्री भगवान कहते हैं - सब के प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाएं जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर बैकुंठधाम को चले गए।

सोमवार, 22 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का हिंदी अनुवाद

इसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।।१।। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजऋषियों ने जाना परंतु है अर्जुन वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लोप हो गया था।।२।। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।।३।। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण चंद्र महाराज के वचन सुनकर अर्जुन ने पूछा हे भगवन् ! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था यह मैं कैसे जानूं?।।४।।
इस पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं परंतु हे परमतप ! उन सब को तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।।५।। मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदस्य नहीं है मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योग माया से प्रगट होता हूं।।६।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात प्रकट करता हूं।।७।।
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग- युग में प्रकट होता हूं।।८।। इसलिए हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।।९।।
हे अर्जुन ! पहले भी राग भय और क्रोध से रहित अनन्य भाव से मेरे में स्थिति वाले मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।।१०।। क्योंकि हे अर्जुन ! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं, इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।‌।११।‌। जो मेरे को तत्वों से नहीं जानते हैं वे पुरुष इस मनुष्य लोक मे कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती इसलिए तू मेरे को ही सब प्रकार से भज।।१२।।
हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।।१३।। क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृह नहीं है इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।।१४।।
तथा पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।।१५।। परंतु कर्म क्या है और अकर्म क्या है? ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा कि जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार बंधन से छूट जाएगा।।१६।।
कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।।१७।। जो पुरुष कर्म में अर्थात अहंकार रहित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात वास्तव में उनका न होनापन देखें और जो पुरुष कर्म में अर्थात अज्ञानी पुरुषों द्वारा किए हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थात त्याग रूप क्रिया को देखे वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।।१८।।
हे अर्जुन ! जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान रूप अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानी जन भी पंडित कहते हैं।।१९।। जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त है वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तव्य अभिमान को त्याग कर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है जीत लिया है अंतः करण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने ऐसा आशा रहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता है।।२१।।
अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाववाला  पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।।२२।।
क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले यज्ञ के लिए आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।।२३।।
यज्ञ के लिए आचरण करने वाले पुरुषों में से कोई तो इस भाव से यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात स्त्रुवादिक भी  ब्रह्म है और हवि अर्थात हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है इसलिए ब्रह्म रूप कर्म में समाधिस्थ हुए पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।।२४।।
और दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपवास ते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानी जन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।।२५।।
अन्य योगी जन श्रोतादिक सब इंद्रियों को संयम अर्थात स्वाधीनता रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोक कर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक  विषयों को इंद्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्म रूप करते हैं।।२६।।
दूसरे योगी जन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टा को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई, परमात्मा में स्थिति रूप योग अग्नि में हवन करते हैं।।२७।।
दूसरे कई पुरुष ईश्वर अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं वैसे ही कई पुरुष ँँ  स्वधर्म पालनरूप तपयज्ञ को करने वाले हैं और कई अष्टांगयोग रूप यज्ञ को करने वाले हैं और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान यज्ञ के करने वाले हैं।।२८।। 
दूसरे योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं वैसे ही अन्य योगी जन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपन की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।।२९।। दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, इस प्रकार यज्ञ द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका ऐसे यह सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।।३०।। हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञों के परिणामस्वरूप  ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मृत्युलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा।।३१।।
ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं उन सब को शरीर मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्म योग द्वारा संसार बंधन से मुक्त हो जाएगा।।३२।।
हे अर्जुन ! सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञान रूप यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।३३।।
इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान वे मर्म को जानने वाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।।३४।।
कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा और है अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतन रूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को दिखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय  ही देखेगा।।३५।‌। यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञान रूप नौका द्वारा निसंदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।।३६।‌।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म मे कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।।३७।। इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।।३८।।
हे अर्जुन ! जितेंद्रिय तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।।३९।।
हे अर्जुन ! भागवत विषय को ना जानने वाला तथा श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है उनमें भी संशय युक्त पुरुष के लिए तो न सुख है न यह लोक हैं न परलोक है अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।।४०।।
हे धनंजय ! समत्व बुद्धि रूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके ऐसे परमात्मा परायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।।४१।।
इससे हे भरतवंशी अर्जुन ! तू समत्वबुद्धि रूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए, हृदय में स्थित इस अपने संशय को ज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।।४२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "ज्ञानकर्मसंन्यासयोग" नामक चौथा अध्याय।।४।।

रविवार, 21 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - प्रिय ! अब मैं चौथे अध्याय का महत्व बतलाता हूं सुनो भागीरथी के तट पर वाराणसी नाम की एक पूरी है वहां विश्वनाथ जी के मंदिर में भरत नाम के एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे जो प्रतिदिन आत्म चिंतन में तत्पर हो आनंद पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अंतः करण निर्मल हो गया था। वे शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर के बाहर निकल गए वहां बेर के दो वृक्ष थे। उन्ही की जड़ में विश्राम करने लगे एक वृक्ष की जड़ में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गए तब बेर के वे दोनों वृक्ष पांच ही छः दिन के भीतर सूख गए। उनमें पत्ते और डालियां भी नहीं रह गई। तत्पश्चात वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणों के पवित्र ग्रह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए। वे दोनों कन्याएं जब बढ़कर सात वर्ष की हो गई, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूम कर आते हुए भरत मुनि को देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गई और मीठी वाणी से बोली- मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है। हमने बेर की योनि त्याग कर मानव शरीर प्राप्त किया है उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा - पुत्रियों मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेल के वृक्ष होने में क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।
तब भी कन्याएं पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोली मुनि गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्य को पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनताकी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्वलित अग्नियों के बीच में बैठते थे वर्षा काल में जल की धाराओं से उनके मस्तक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते थे तथा मन और इंद्रियों को संयम में रखते हुए परम शांति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे उसे सुनने के लिए साक्षात ब्रह्मा जी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे ब्रह्मा जी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था। अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे परमात्मा के ध्यान में निरंतर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपा को जीवन मुक्त के समान मानकर इंद्र को अपने समृद्धि साली पद के संबंध में कुछ भय हुआ तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्न डालने आरंभ किए अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इंद्र ने इस प्रकार आदेश दिया तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो जो मुझे इंद्र पद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है। इंद्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर जहां पे मुनि तपस्या करते थे आयी। वहां मंद एवं गंभीर स्वर से बचते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगे बीच-बीच में जरा जरा सा आंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी। हम दोनों की उम्मत गति काम भाव का उद्दीपन करने वाली थी। किंतु उसने उन निर्विकार चित्त वाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोध पूर्वक शाप दिया अरे तुम दोनों गंगा जी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहा महात्मा हम दोनों पराधीन थी अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें यूं कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे साथ उधर की अवधि निश्चित करते हुए कहा भरतमुनि के आने तक ही तुम पर यह सांप लागू होगा उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु लोक में जन्म होगा और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहेगी। मुनि जिस समय हम दोनों बेर वृक्ष के रूप में खड़ी थी उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शाप से ही नहीं इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।
भगवान कहते हैं - उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजत हो विदा लेकर जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तथा वे कन्याएं भी बड़े आदर के साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगी जिससे उनका उद्धार हो गया।

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का हिंदी अनुवाद

इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया कि हे जनार्दन ! यदि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान आपके श्रेष्ठ मान्य हैं तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ।।१।। तथा आप मिले हुए से वचन से मेरी बुद्धि को मोहित सी करते हैं, इसलिए  उस एक बात को निश्चय करके कहिए कि जिससे मैं कल्याण को प्राप्त होऊं।।२।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान श्री कृष्ण महाराज बोले हे निष्पाप अर्जुन ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कहीं गई है, ज्ञानियोंकी ज्ञान योग से और योगियों की निष्काम कर्मयोग से ।‌‌।३।। परंतु किसी भी मार्ग के अनुसार कर्मों को स्वरूप से त्यागने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मनुष्य ना तो कर्मों के ना करने से निष्क्रियता को प्राप्त होता है और ना कर्मों को त्यागने मात्र से भगवत साक्षात्कार रूप सिद्धि को प्राप्त होता है।‌।४।। तथा सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग हो भी नहीं सकता क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है,निसंदेह सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा पर परवश हुए कर्म करते हैं।‌‌।५।। इसलिए जो मूढ़बुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को हठ से रोककर इंद्रियों के भोगों को मन से चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी  कहा जाता है।।६।। और हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्म योग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है ।। ७।। इसलिए तू शास्त्र विधि से नियत किए हुए स्वधर्म रूप कर्म को कर क्योंकि कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।।८।। हे अर्जुन बंधन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है, क्योंकि यज्ञ अर्थात विष्णु के निमित्त किए हुए कर्म के सिवा अन्य कर्म में लगा हुआ ही यह मनुष्य कर्मों द्वारा बंधता है, इसलिए हे अर्जुन ! आसक्ति से रहित हुआ, उस परमेश्वर के निमित्त कर्म का भली प्रकार आचरण  कर।।९।।  कर्म न करने से तू पाप को भी प्राप्त होगा, क्योंकि प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इक्षित कामनाओं के देने वाला होवे।।१०।। तथा तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें, इस प्रकार आपस में कर्तव्य समझकर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होवोगे।।११।‌।  तथा यज्ञ द्वारा बढाये हुए देवता लोग तुम्हारे लिए बिना मांगे ही प्रिय भोगों को देंगे, उनके द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष इनके लिए बिना दिए ही भोगता है वह निश्चय चोर है।।१२।। कारण कि यज्ञ से शेष बचे हुए अन्य को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं और जो पापी लोग अपने शरीर पोषण के लिए ही पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं।।१३।‌‌। क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्य से उत्पन्न होते हैं और अन्य की उत्पत्ति वृष्टि से होती है तथा वृष्टि यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।।१४।। तथा उस कर्म हो तुम वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है इससे सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं।।१५।।
हे पार्थ ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है अर्थात शास्त्र अनुसार कर्मों को नहीं करता है वह इंद्रियों के सुख को भोगने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।१६।।
परंतु जो मनुष्य आत्मा ही मैं प्रीति वाला और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।।१७।।
क्योंकि इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और ना किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा उसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध नहीं है तो भी उसके द्वारा केवल लोक हितार्थ कर्म किए जाते हैं।।१८।।
इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार आचरण कर क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।१९।‌।
इस प्रकार जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित  कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं इसलिए तथा लोक संग्रह को देखता हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है।।२०।।
क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी उस उसके ही अनुसार बर्तते हैं, वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसी के अनुसार बर्तते हैं।।२१।।
इसलिए हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्तव्य नहीं है तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य वस्तु प्राप्त नहीं है तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूं।।२२।।
क्योंकि यदि मैं सावधान हुआ कदाचित कर्म में न बर्तू  तो हे अर्जुन ! सब प्रकार से मनुष्य मेरे बर्ताव के अनुसार बर्तते हैं अर्थात बरतने लग जाएं।।२३।।
तथा यदि मैं कर्म ना करूं तो यह सब लोग भ्रष्ट हो जाएं और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का हनन करूं अर्थात मारने वाला बंनू।।२४।।
इसलिए हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए ज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान भी लोक शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करें।।२५।।
ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले ज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में आ श्रद्धा उत्पन्न ना करें किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।।२६।।
हे अर्जुन ! वास्तव में संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं तो भी अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष, मैं कर्ता हूं ऐसे मान लेता हैं।।२७।।
परंतु हे महाबाहु गुणविभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानी पुरुष संपूर्ण गुण में बर्तते हैं ऐसे मानकर नहीं आसक्त  होता है।।२८।।
और प्रकृति के गुणो से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार ना समझने वाले मूर्खों को अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलाएं मान ना करें।।२९।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू ध्याननिष्ट चित्त से संपूर्ण कर्मों को मुझ में समर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर संताप रहित हुआ युद्ध कर।।३०।।
हे अर्जुन ! जो कोई भी मनुष्य दोष बुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुआ सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।।३१।।
और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानो में मोहित चित्तवालों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान।।३२।।
क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हट क्या करेगा।।३३।‌। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ में अर्थात सभी इंद्रियों के भोगों में स्थित जो राग और द्वेष है उन दोनों के बस में नहीं होवे, क्योंकि  इसके वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।।३४।।
इसलिए उन दोनों को जीतकर सावधान हुआ स्वधर्म का आचरण करें क्योंकि अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।।३५।‌।
इस पर अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण ! फिर यह पुरुष बलात्कार से लगाए हुए के सदृश्य ना चाहता हूआ भी किससे प्रेरा हुआ पाप का आचरण करता है?।।३६।।
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह ही महाअशन  अर्थात अग्नि के सदृश्य भोगों से न तृप्त होने वाला और बड़ा पापी है, इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।।३७।।
जैसे धुएं से  अग्नि और मलसे दर्पण ढक जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका हुआ है वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है।।३८।।
और हे अर्जुन ! इस अग्नि सदृश्य ना पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है।।३९।।
इंद्रियां मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान कहे जाते हैं और यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके इस जीवात्मा को मोहित करता है।।४०।।
इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इंद्रियों को वश में कारके  ज्ञान और विज्ञान के नाश करने वाले इस काम पापी को निश्चय पूर्वक मार।।४१।।
और यदि तू समझे कि इंद्रियों को रोककर कामरूप वैरी को मारने की मेरी शक्ति नहीं है तो तेरी यह भूल है क्योंकि इस शरीर से तो इंद्रियों को परे कहते हैं और इंद्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यंत परे है वह आत्मा है।।४२।।
किस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात सूक्ष्म तथा सब प्रकार बलवान और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहु ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को मार।।४३।‌।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मयोग" नामक तीसरा अध्याय।।३।।
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शनिवार, 20 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान कहते हैं - प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनिए  की वृत्ति में मन लगाया। उसे पराई स्त्रीयों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवो की हिंसा किया करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया। वहां से धन कमा कर घर की ओर लौटा। बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अंधकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए। उसके  धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।
उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था। उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी। जब वे नहीं आए तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़ कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोजकर्ता मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदन्तर  एक दिन एक मनुष्य से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान था। बहुत कुछ सोच विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया। मार्ग में सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्ष के नीचे पहुंचा जहां उसके पिता मारे गए थे। उस स्थान पर उसने संध्योपासना  की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया। इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिता को भयंकर आकाश में देखा, फिर तुरंत ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुंदर विमान दिखाई दिया, जो महान तेज से व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएं लगी थी। उसके तेज से समस्त दिशाएं आलोकित हो रही थी। यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गई। उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किए विराजमान देखा। उनके शरीर पर पीतांबर शोभा पा रहा था और मुनि जन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात उसने पिता से यह सारा वृत्तांत पूछा। उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-बेटा ! दैव बस में मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुस्त्यज कर्मबंधन से मुझे छुड़ा दिया। अतः अब घर लौट जाओ, क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है।
पिता के यूं कहने पर पुत्र ने पूछा- तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइए। तब पिता ने उससे कहा - अनघ ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाई ने भी किया था। इससे वह घोर नरक में पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सब का भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए, यही मेरा मनोरथ है। बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवो को संकल्प करके दे दो। इससे भी समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो स्वल्प काल में ही  श्री विष्णु के परम पद को प्राप्त हो जाएंगे। पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहा- तात यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार कर दूंगा।
यह सुनकर उनके पिता बोले बेटा एवमस्तु, तुम्हारा कल्याण हो, मेरा अत्यंत प्रिय कार्य संपन्न हो गया। इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गए। तत्पश्चात वह भी लौट कर जन्स्थान में आया और परम सुंदर भगवान श्री कृष्ण के मंदिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेश अनुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ  करने लगा। उसने नारकी जीवो का उद्धार करने की इच्छा से गीता पाठ जनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया। इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नारकी जीवो को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गए यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारो से उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले- धर्मराज हम लोगों के लिए सब ओर आनंद ही आनंद है। इस प्रकार सत्कार करके पितृलोक के सम्राट परम बुद्धिमान यमने विष्णुदूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा।
तब विष्णुदूतों ने कहा- यमराज ! शेष शैया पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है। भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं। और यह आज्ञा देते हैं कि आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें। अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह  आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा।  तत्पश्चात मदोन्मत्त नारकी जीवो को नर्क से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले। यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहां छीर सागर है वहां जा पहुंचे उसके भीतर कोटि कोटि सूर्य के समान कांतिमान नील कमल दल के समान श्यामसुंदर लोकनाथ जगतगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया भगवान का तेज उनकी सैया बने हुए शेषनाग के फलो की मणियों के प्रकाश से दोगुना हो रहा था। वे आनंद युक्त दिखाई दे रहे थे उनका ह्रदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन  से प्रेम पूर्वक उन्हें बार-बार निहार रही थी। चारों ओर योगी जन भगवान की सेवा में खड़े थे। उन योगियों की आंखों के तारे ध्यानस्थ होने के कारण निश्चल प्रतीत होते थे। देवराज इंद्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्मा जी के मुख से निकले हुए वेदांत वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे। भगवान पूर्णता है संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे। जीवो में से जिन्होंने योग साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था उन सब को एक ही साथ वे कृपा दृष्टि से निहार रहे थे। भगवान अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत को आनंद पूर्ण दृष्टि से अनुमोदित कर रहे थे। शेषनाग की प्रभा से उद्भासित  एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किए नीलकमल के सदृश श्याम वर्ण वाले श्री हरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चांदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान की झांकी करके यमराज विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
यमराज बोले - संपूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अंतः करण अत्यंत निर्मल है । आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है। आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको नमस्कार है। अपने बल और वेग के कारण जो अत्यंत दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेंद्रो का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है। पालन के समय सत्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है। समस्त देहधारियों की पातक राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है। जिनके ललाटवरती ् नेत्रों के तनिक सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती है उन रूद्र रूप धारी आप परमेश्वर को नमस्कार है। आप संपूर्ण विश्व के गुरु आत्मा और महेश्वर हैं अतः समस्त वैष्णव जनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं।
आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते माया तथा माया जनित दोनों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता आप की महिमा का अंत नहीं है। क्योंकि आप असीम है फिर आप वाणी से विषय कैसे हो सकते हैं अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहा जगतगुरु आपके आदेश से इन जीवो को गुण रहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो उसे बताइए। उनके यू कहने पर भगवान मधुसूदन मेंघ के समान गंभीर वाणी द्वारा मानो अमृत रस से सींचते  हुए बोले- धर्मराज ! तुम सब के प्रति समान भाव रखते हुए लोको का पाप से उद्धार कर रहे हो। तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिंत हूं। अतः  तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ। यों कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। यमराज भी अपनी पूरी को लौट आए। तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवो का नरक से उद्धार करके स्वयं विशेष विमान द्वारा श्री विष्णु धाम को चला गया।

सोमवार, 15 अगस्त 2022

प्रसिद्ध मुहावरे, कहावतें एवं लोकोक्तियां

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं प्रसिद्ध मुहावरे कहावतें एवं लोकोक्तियां।
१ चोर चोर मौसेरे भाई = बुरे लोग समान होते हैं।
२ हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और = दोहरा चरित्र
३ नाको चने चवाना = परेशान करना
४ अंधे पीसे कुत्ते खाऐ = लापरवाही करना
५ अंधों में काना राजा = मूर्खो के बीच अल्पज्ञानी होना।
६ ऊट की चोरी न्योर न्योर कर नही होती = राज न छिपना।
७ लमथनू और दुधार पैसा कम और उधार = कम कीमत में अच्छी वस्तु की इच्छा।
८ गुड होता तो गुलगुले बनाते तेल मंगाते उधार मगर आटा नही है = कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ की इच्छा रखना।
९ पेड़ी भली न कोस की, सुता भली न एक, कर्जा भलौ न बाप को जो विधि राखे टेक = यात्रा थोड़ी भी भली नही होती,
बेटी एक भी अच्छी नही होती (अगर वह कुलटा हो), और कर्ज चाहे पिता से ही क्यो न लिया गया हो अच्छा नहीं होता है।
१० देह जाने पाप पुण्य आप जाने आपदा, गीता का ज्ञान कृष्ण जाने माता जाने को पिता
इंसान स्वयं ही अपने पाप पुण्य को जानता है, दुख को दुख सहने वाला ही जानता है, गीता के गूढ़ रहस्य भगवान कृष्ण ही जानते हैं, माता ही बच्चे के पिता को जानती है।
११ लड़के से लड़की भली दो कुलवंती होय, नाम उछारे माई बाप को देश बढ़ाई होय
अगर लड़की कुलवंती है तो लड़के से ज्यादा माता पिता का नाम रोशन कर सकती हैं क्योंकि लड़का तो एक कुल से जुड़ा हुआ होता है जबकि लड़की दो कुल से।
१२ लड़का वो मर जाय जो कुल में दाग लगाऐ,
ब्राह्मण वो मर जाय जो मदिरा पीवे और खो प्यावै,
क्षत्रिय वो मर जाय जो रण में पीठ दिखावै।।
१३ प्याज की गांठ खो बार हजारक सिंधु की धार में धोय मंगाई,
केसर की पुट लाखिन दीन्ही मगर जब खोली सो वास प्याज की आयी।
१४ फूल्हि फल्हि न बैत यथपि सुधा बरसहि जलद,
मूर्ख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि बिरंच सम।।

भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल Indian tourist spots Indian tourist spots

साथियों आज के अंक में हम भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल के बारे में जानकारी देंगे जहां पर Indian tourist के अलावा all world से tourist भी काफी स...