वश में किया हुआ है शरीर जिसके ऐसा जितेंद्रीय और विशुद्ध अंतःकरणवाला एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्कामकर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।।७।। हे अर्जुन ! तत्व को जानने वाला कर साख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सुनता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, तथा आंखों को खोलता और मीचता हुआ भी सब इंद्रियां अपने अपने अर्थो में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।।८-९।।
परंतु हे अर्जुन देशहाभिमानीओं द्वारा यह साधन होना कठिन है और निष्काम कर्मयोग सुगम है, क्योंकि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।।१०।। इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धि रहित केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी असक्ती को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।११।।
इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है, इसलिए निष्काम कर्मयोग उत्तम है।।१२।।
हे अर्जुन ! वश में है अंतः करण जिसके ऐसा सांख्योग का आचरण करने वाला पुरुष तो निसंदेह न करता हुआ न करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती है ऐसा मानता हुआ आनंद पूर्वक सच्चिदानंद घन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।।१३।।
परमेश्वर भी भूत प्राणियों के न कर्तापन और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है, किंतु परमात्मा के सकाशसे प्रकृति ही बर्तती है अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।।१४।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।।१५।। परंतु जिनका वह अंतःकरणका अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है (अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को साक्षात् कराता है)।।१६।।
हे अर्जुन ! तद्रूप है बुद्धि जिसकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही है निरंतर एकीभाव से स्थिति जिसकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं।।१७।।
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।।१८।।
इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया (अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं) क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है।।१९।। जो पुरुष प्रिय को अर्थात जिस को लोग प्रिय समझते हैं उस को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को अर्थात जिसको लोग अप्रिय समझते हैं उसको प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिरबुद्धि, संशय रहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।।२०।।
बाहर के विषयों में अर्थात सांसारिक भोगों में आसक्ति रहित अंतःकरण वाला पुरुष अंतः करण में जो भागवत ध्यान जनित आनंद है उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।।२१।।
जो यह इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख रूप भासते हैं तो भी निसंदेह दुख के ही हेतु हैं और आदि अंत वाले अर्थात अनित्य हैं, इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।२२।।
जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है अर्थात काम क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।।२३।।
जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है ऐसा वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव हुआ सांख्योगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।।२४।।
नाश हो गए हैं सब पाप जिसके तथा ज्ञान करके निवृत हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिसकी एकाग्र हुआ है भगवानके ध्यान में चित्त जिनका ऐसे ब्रह्म वेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।२५।।
काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।।२६।।
हे अर्जुन ! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्याग कर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके।।२७।।
जीती हुई है इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।।२८।।
और है अर्जुन ! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपो का भोगने वाला और संपूर्ण लोकों के ईश्वरो का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूतप्राणियों का सुहृय अर्थात् स्वार्थ रहित प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है और सच्चिदानंदघन परिपूर्ण शांत ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में और कुछ भी नहीं रहता केवल वासुदेव जी वासुदेव रह जाता है।।२९।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मसंन्यासयोग" नामक पांचवां अध्याय।।५।।