मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

भारत के प्रमुख नगर एवं उनके संस्थापक

साथियों आज के अंक में हम आपको भारत के प्रमुख नगर एवं उनके संस्थापक के बारे में बताएंगे तो आईये शुरूआत करते हैं।
1- कोलकाता- जाॅब चारनाक
2 - मुम्बई- गेराल्ङ औगियर
3 - हैदराबाद - कुली कुतुब शाह 
4 - दिल्ली- अनंग तोमर 
5 - अमृतसर- गुरु रामदास 
6 - नई दिल्ली - एडवर्ड लुटियंस 
7 - भोपाल- राजा भोज 
8 - पांडिचेरी- फ्रांसिस केरी 
9 - आगरा- सिकंदर लोदी 
10 - श्रीगंगानगर- गंगासिंह
11- इंदौर- अहिल्याबाई होल्कर 
12 - बीकानेर- राव जोधा के पांचवे पुत्र राव बिका 
13 - धार- राजा भोज 
14 - चुरु - चूहङा जाट 
15 - तुगलकाबाद -मोहम्मद तुगलक 
16 - झुझुनू - झुन्झ जाट 
17 - जयपुर - सबाई राजा जयसिंह 
18 - जैसलमेर- जैसलसिंह (भाटी राजपूत)
19 - सागर - ऊदन शाह 
20 - लखनऊ  - आसफुधौला 
21 - जोधपुर - राव जोधा 
22 - अलवर - राव प्रताप सिंह (कछवाहा शासक)
23- झांसी - वीरसिंह देव
24- अजमेर - अजयराज सिंह 
25- उदयपुर- राणा उदय सिंह 
26- टाटानगर- जमशेदजी टाटा 
27- भरतपुर- राजा सूरजमल 
28- कुम्भलगढ- राजा कुम्भा 
29- पटना- उदयन
30- मुंगेर - चन्द्रगुप्त मौर्य 
31- नालंदा- राजा धर्मपाल 
32- रायपुर - ब्रम्हदेव 
33- दुर्ग- जगतपाल 
34- देहरादून- राम रायपुर (सिख)
35- पुरी- गंग चोल
36- द्वारका- शंकराचार्य 
37- जम्मू - राजा जम्मू लोचन 
37- पूना- शाह जी भोसले 
38- बाड़मेर- बाग भाई 
39- धौलपुर- राजा धवलदेव (तोमर वंश)
40- करौली- राजा अर्जुनपाल 
41- टोंक- अमीर खान पिचकारी
42- बूंदी- राव देशराज 
43- बारां- सोलंकी राजपूत 
44- कोटा- महाराव माधोपुर
45- झालावाङ- झाला जालिमसिंह 
46- चित्तौङगढ- चित्रांगद मौर्य 
47- प्रतापगढ- महारावल प्रतापसिंह 
48- बांसवाडा- जगमाल सिंह 
49- ङूगरपुर- ङूगरसिंह
50- सिरोही- महाराणा रायमल 
51- राजसमंद- महाराणा राजसिंह 
52- मण्ङोर- हरिश्चंद्र प्रतिहार 
52- सवाई माधोपुर- सवाई माधोसिंह 
53- हनुमानगढ- महाराजा सूरत सिंह 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

Awesome G.K ( भारत के प्रधानमंत्री)

साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए भारत के प्रधानमंत्री और उनके कार्यकाल के बारे में बताएंगे।
1-पंडित जवाहरलाल नेहरू(15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964-भारतरत्न)
2- गुलजारीलाल नंदा (कार्यवाहक) भारतरत्न-27 मई 1964 से 9 जून 1964
3- लाल बहादुर शास्त्री-( भारतरत्न मरणोपरांत )
9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966
4- गुलजारीलाल नंदा(कार्यवाहक) 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966
5- इंदिरा गांधी(भारतरत्न) 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977
6- मोरारजी देसाई(भारतरत्न) 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979
7- चौधरी चरण सिंह(भारतरत्न) 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980
8- इंदिरा गांधी- 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984
9- राजीव गांधी(भारतरत्न) 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989
9- विश्वनाथ प्रताप सिंह- 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990
10- चंद्रशेखर- 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991
11- पी.वी नरसिम्हन राव(भारतरत्न)-21 जून 1991 से 16 मई 1996
12- अटल बिहारी बाजपेयी (भारतरत्न)-16 मई 1996 से 1 जून 1996
13- एच.ङी.देवगौङा- 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997
14- इन्द्र कुमार गुजराल- 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998
15- अटल बिहारी बाजपेयी- मार्च 1998 से 22 मई 2004
16- ङा. मनमोहन सिंह-22 जून 2004 से 26 मई 2014
17- नरेंद्र मोदी- 26 मई 2014 से वर्तमान समय तक (2024)

गुरुवार, 9 मई 2024

अक्ल बांटने लगे विधाता

अक्ल बाँटने लगे विधाता, लम्बी लगी कतारी । 
सभी आदमी खड़े हुए थे, कहीं नहीं थी नारी ।।
सभी नारियाँ कहाँ रह गयीं, था ये अचरज भारी । 
पता चला ब्यूटी पार्लर में, पहुँच गयीं थीं सारी ।।
मेकअप की थी गहन प्रक्रिया, एक एक पर भारी । 
बैठी थीं कुछ इन्तजार में, कब आयेगी बारी ।।
उधर विधाता ने पुरूषों में, अक्ल बाँट दी सारी । 
पार्लर से फुर्सत पा कर के, जब पहुँची सब नारी ।।
बोर्ड लगा था स्टॉक ख़त्म है, नहीं अक्ल अब बाकी । 
रोने लगी सभी महिलाएँ, नीन्द खुली ब्रह्मा की ।।
पूछा कैसा शोर हो रहा, ब्रह्मलोक के द्वारे ? 
पता चला कि स्टॉक अक्ल का पुरुष ले गये सारे ।।
ब्रह्मा जी ने कहा देवियों, बहुत देर कर दी है। 
जितनी भी थी अक्ल सभी वो, पुरुषों में भर दी है ।।
लगी चीखने महिलाएँ, ये कैसा न्याय तुम्हारा ? 
कुछ भी करो, चाहिए हमको आधा भाग हमारा ।।
पुरुषों में शारीरिक बल है,हम ठहरी अबलाएँ । 
अक्ल हमारे लिए जरुरी, निज रक्षा कर पाएँ ।।
बहुत सोच दाढ़ी सहला कर, तब बोले ब्रह्मा जी । 
इक वरदान तुम्हे देता हूँ, हो जाओ अब राजी ।।
थोड़ी सी भी हँसी तुम्हारी, रहे पुरुष पर भारी । 
कितना भी वह अक्लमन्द हो, अक्ल जायेगी मारी ।।
एक बोली, क्या नहीं जानते ! स्त्री कैसी होती है ? 
हँसने से ज्यादा महिलाएँ, बिना बात रोती हैं ।।
ब्रह्मा बोले यही कार्य तब, रोना भी कर देगा । 
औरत का रोना भी नर की, बुद्धि को हर लेगा ।।
इक बोली, हमको ना रोना, ना हँसना आता है । 
झगड़े में हैं सिद्धहस्त हम, झगड़ा ही भाता है ।।
ब्रह्मा बोले चलो मान ली, यह भी बात तुम्हारी । 
घर में जब भी झगड़ा होगा, होगी विजय तुम्हारी ।।
जग में अपनी पत्नी से जब कोई पति लड़ेगा । 
पछतायेगा, सिर ठोकेगा आखिर वही झुकेगा ।।
ब्रह्मा बोले सुनो ध्यान से, अन्तिम वचन हमारा ।
तीन शस्त्र अब तुम्हें दे दिये, पूरा न्याय हमारा ।।
इन अचूक शस्त्रों में भी, जो मानव नहीं फँसेगा । 
बड़ा विलक्षण जगतजयी ऐसा नर दुर्लभ होगा ।।
कहे कवि सब बड़े ध्यान से, सुन लो बात हमारी । 
बिना अक्ल के भी होती है, नर पर भारी नारी ।। -😊😊
Radha Radha 🙏🚩🙏

शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

बात में दम

बातहीं से दशरथ मरे, बातही राम फिरे वन जाई, बातही से हरिश्चंद्र सहे दुख, बात की गात में राख सच्चाई, बात ठिकाने नहीं जिंनकी, तिन बाप ठिकाने न जानिऐ भाई।
अर्थात- वचन के कारण ही महाराज दशरथ की मृत्यू हुई, वचन के कारण ही प्रभू श्रीराम को वन जाना पड़ा, वचन के कारण ही राजा हरिश्चन्द्र को दुख झेलने पडे।अतः हमे हर परिस्थित में अपने वचन की रक्षा करनी चाहिए। 

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

भारत के राष्ट्रपति

1 डॉ. राजेंद्र प्रसाद
2 डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
3 डॉ. जाकिर हुसैन
4 वी.वी. गिरी
5 फखरुद्दीन अली अहमद
6 नीलम संजीव रेड्डी
7 ज्ञानी जैल सिंह 
8 आर. वेंकटरमन
9 डॉ. शंकरदयाल शर्मा
10 के. आर. नारायणन
11 डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम
12 प्रतिभा पाटिल
13 प्रणब मुखर्जी
14 ङाॅ रामनाथ कोविंद
15 द्रौपदी मुर्मू

कुछ महत्वपूर्ण दिवस

1 थल सेवा दिवस - 15 जनवरी
2 मातृभाषा दिवस - 21 फरवरी
3 राष्ट्रीय विज्ञान दिवस - 28 फरवरी
4 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस - 8 मार्च
5 विश्व स्वास्थ्य दिवस -7 अप्रैल
6 विश्व दूरसंचार दिवस - 17 मई
7 विश्व पर्यावरण दिवस -5 जून
8 विश्व रक्तदान दिवस -14 जून 
9 अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस - 21 जून
10 राष्ट्रीय झंडा ग्रहण दिवस - 22 जुलाई
11 कारगिल विजय दिवस - 26 जुलाई
12 अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस - 8 सितंबर
13 हिंदी दिवस - 14 सितंबर
14 वायु सेवा दिवस - 8 अक्टूबर
15 संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस - 24 अक्टूबर
16 संविधान दिवस - 26 नवंबर
17 नौसेना दिवस - 4 दिसंबर
18 ध्वज दिवस - 7 दिसंबर
19 मानव अधिकार दिवस  -  10 दिसंबर

रविवार, 1 जनवरी 2023

सप्त-पुरियाॅ

 मोक्षदायिनी सप्तपुरियाॅ की जानकारी 

१ अयोध्या - यह भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है और उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के किनारे पर स्थित है।

२ मथुरा - यह भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि है और उत्तर प्रदेश में यमुना नदी के किनारे पर स्थित है।

३ माया (हरिद्वार)- गंगा नदी के तट पर स्थित उत्तराखंड प्रदेश में प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है।

४ काशी (वाराणसी)- यहां काशी विश्वनाथ का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग प्रतिष्ठित है। यह उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे पर स्थित है।

५ काञ्चीपुरम् - काञ्ची कामकोटि प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है यहां शंकराचार्य का मठ है। यह तमिलनाडु प्र्रदेश में स्थित है।

६ अवंतिका (उज्जैन) - भगवान महाकालेश्वर की ंंनगरी  यह कुंभ मेले का स्थान भी है। यह मध्य प्रदेश में स्थित है।

७ द्वारावती (द्वारकापुरी)- चार धामों में से एक द्वारकापुरी गुजरात प्रदेश में समुद्र तट पर स्थित है।

                      चार धाम

उत्तर - बद्रीनाथ धाम

दक्षिण - रामेश्वरम् धाम

पूर्व - जगन्नाथपुरी धाम ़ ़़़़़़़़़़़़़़़

पश्चिम - द्वारका धाम 

                   कुंभ- स्थल 

१ हरिद्वार- उत्तराखंड- गंगा नदी के तट पर 

२ प्रयागराज- उत्तर प्रदेश- गंगा, यमुना सरस्वती के पावन संगम पर 

३ अवंतिका (उज्जैन) मध्य प्रदेश- क्षिप्रा नदी के तट पर 

४ नासिक- महाराष्ट्र- गोदावरी नदी के तट पर











शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का हिंदी अनुवाद

उसके उपरांत अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण !आप कर्मों के सन्यास की और फिर निष्काम कर्म योग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याण कारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए।।१।। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! कर्मों का संन्यास (अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग) और निष्काम कर्मयोग (अर्थात समत्व बुद्धि से भगवत अर्थ कर्मों का करना) यह दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्म के संन्यास से निष्काम कर्म योग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।।२।। इसलिए हे अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है वह निष्काम कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित हुआ पुरुष सुख पूर्वक संसार रूप बंधन से मुक्त हो जाता है।।३।। हे अर्जुन ! ऊपर कहे हुए सन्यास और निष्काम कर्म योग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं न कि पंडित जन, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल रूप परमात्मा को प्राप्त होता है।।४।। ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगीओं द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और निष्काम कर्मयोग को फल रूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।।५।। परंतु हे अर्जुन ! निष्काम कर्म योग के बिना, सन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भागवत स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।।६।।
वश में किया हुआ है शरीर जिसके  ऐसा जितेंद्रीय और विशुद्ध अंतःकरणवाला एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्कामकर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।।७।। हे अर्जुन ! तत्व को जानने वाला कर साख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सुनता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, तथा आंखों को खोलता और मीचता हुआ भी सब इंद्रियां अपने अपने अर्थो में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ निसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं।।८-९।।
परंतु हे अर्जुन देशहाभिमानीओं द्वारा यह साधन होना कठिन है और निष्काम कर्मयोग सुगम है, क्योंकि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।।१०।। इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्वबुद्धि रहित केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी असक्ती को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।११।।
इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामी  पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है, इसलिए निष्काम कर्मयोग उत्तम है।।१२।।
हे अर्जुन ! वश में है अंतः करण जिसके ऐसा सांख्योग का आचरण करने वाला पुरुष तो निसंदेह न करता हुआ  न करवाता हुआ नौ द्वारों वाले शरीर रूपी घर में सब कर्मों को मन से त्याग कर अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती है ऐसा मानता हुआ आनंद पूर्वक सच्चिदानंद घन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।।१३।।
परमेश्वर भी भूत प्राणियों के न कर्तापन और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है, किंतु परमात्मा के सकाशसे प्रकृति ही बर्तती है अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।।१४।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।।१५।। परंतु जिनका वह अंतःकरणका अज्ञान आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है (अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को साक्षात् कराता है)।।१६।।
हे अर्जुन ! तद्रूप है बुद्धि जिसकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही है निरंतर एकीभाव से स्थिति जिसकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित  हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परम गति को प्राप्त होते हैं।।१७।।
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले ही होते हैं।।१८।।
इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया (अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं) क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है।।१९।। जो पुरुष प्रिय को अर्थात जिस को लोग प्रिय समझते हैं उस को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को अर्थात जिसको लोग अप्रिय समझते हैं उसको प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिरबुद्धि, संशय रहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।।२०।।
बाहर के विषयों में अर्थात सांसारिक भोगों में आसक्ति रहित अंतःकरण वाला पुरुष अंतः करण में जो भागवत ध्यान जनित आनंद है उसको प्राप्त होता है और वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है।।२१।।
जो यह इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख रूप भासते हैं तो भी निसंदेह दुख के ही हेतु हैं और आदि अंत वाले अर्थात अनित्य हैं, इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।२२।।
जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न  हुए वेग को सहन करने में समर्थ है अर्थात काम क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।।२३।।
जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है ऐसा वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव हुआ सांख्योगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है।।२४।।
नाश हो गए हैं सब पाप जिसके तथा ज्ञान करके निवृत हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिसकी एकाग्र हुआ है भगवानके ध्यान में चित्त जिनका ऐसे ब्रह्म वेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।२५।।
काम क्रोध से रहित जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है।।२६।।
हे अर्जुन ! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही त्याग कर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके।।२७।।
जीती हुई है इंद्रियां, मन और बुद्धि जिसकी ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है वह सदा मुक्त ही है।।२८।।
और है अर्जुन ! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपो का भोगने वाला और संपूर्ण लोकों के ईश्वरो  का भी ईश्वर तथा संपूर्ण भूतप्राणियों का सुहृय अर्थात् स्वार्थ रहित प्रेमी ऐसा तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है और सच्चिदानंदघन परिपूर्ण शांत ब्रह्म के सिवा उसकी दृष्टि में और कुछ भी नहीं रहता केवल वासुदेव जी वासुदेव रह जाता है।।२९।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "कर्मसंन्यासयोग" नामक पांचवां अध्याय।।५।।

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पांचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप में बतलाता हूं, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पूरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था वह वेद पाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिए उचित वेद शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच गान में मन लगाया। गीत नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और  उसी से उसका राज भवन में प्रवेश हो गया अब वह राजा के साथ रहने लगा और पराई स्त्रियों को बुला बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से कुछ उच्छृंखल होकर वह एकांत में राजा से दूसरों के दोष बताने लगा। पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ बिहार करने की इच्छा से उन्हीं की खोज में घूमा करती थी। उसने पति को अपने मार्ग का कंटक समझ कर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काट कर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया। प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुंचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ।
अरुणा भी भगंदर रोग से अपने सुंदर शरीर को त्याग कर को नर्क भोगने के पश्चात उसी वन में शुकी हुई । एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से उधर उधर फुदक रही थी इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नको से फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलिया ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्व जन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिर कर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गए। वहां अपने पूर्वकृत पापकर्म याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मों पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे - भगवन ! हम दोनों ने पूर्व जन्म में अत्यंत घृणित पाप संचय किया है फिर हमें मनोवांछित लोकों में भेजने का क्या कारण है? बताइए।
यमराज ने कहा - गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकांतसेवी, ममता रहित, शांत, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे। प्रतिदिन गीता के पांचवें अध्याय का जप करना उनका सदा का नियम था। पांचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे उन्हें महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गए हो। अतः अब तुम दोनों मनोवांछित लोकों को जाओ क्योंकि गीता के पांचवें अध्याय के माहत्म्य  से तुम दोनों शुद्ध हो गए हो श्री भगवान कहते हैं - सब के प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराज के द्वारा इस प्रकार समझाएं जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर बैकुंठधाम को चले गए।

सोमवार, 22 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का हिंदी अनुवाद

इसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।।१।। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजऋषियों ने जाना परंतु है अर्जुन वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लोप हो गया था।।२।। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है।।३।। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण चंद्र महाराज के वचन सुनकर अर्जुन ने पूछा हे भगवन् ! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था यह मैं कैसे जानूं?।।४।।
इस पर श्री कृष्ण महाराज बोले हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं परंतु हे परमतप ! उन सब को तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।।५।। मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदस्य नहीं है मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योग माया से प्रगट होता हूं।।६।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात प्रकट करता हूं।।७।।
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग- युग में प्रकट होता हूं।।८।। इसलिए हे अर्जुन ! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।।९।।
हे अर्जुन ! पहले भी राग भय और क्रोध से रहित अनन्य भाव से मेरे में स्थिति वाले मेरे शरण हुए बहुत से पुरुष ज्ञान रूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।।१०।। क्योंकि हे अर्जुन ! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूं, इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।‌।११।‌। जो मेरे को तत्वों से नहीं जानते हैं वे पुरुष इस मनुष्य लोक मे कर्मों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं और उनके कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती इसलिए तू मेरे को ही सब प्रकार से भज।।१२।।
हे अर्जुन ! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं उनके कर्ता को भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता ही जान।।१३।। क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृह नहीं है इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।।१४।।
तथा पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए हुए कर्म को ही कर।।१५।। परंतु कर्म क्या है और अकर्म क्या है? ऐसे इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा कि जिसको जानकर तू अशुभ अर्थात संसार बंधन से छूट जाएगा।।१६।।
कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जाना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है।।१७।। जो पुरुष कर्म में अर्थात अहंकार रहित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात वास्तव में उनका न होनापन देखें और जो पुरुष कर्म में अर्थात अज्ञानी पुरुषों द्वारा किए हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में भी कर्म को अर्थात त्याग रूप क्रिया को देखे वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।।१८।।
हे अर्जुन ! जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान रूप अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानी जन भी पंडित कहते हैं।।१९।। जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त है वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तव्य अभिमान को त्याग कर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है जीत लिया है अंतः करण और शरीर जिसने तथा त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने ऐसा आशा रहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पापको नहीं प्राप्त होता है।।२१।।
अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और हर्ष शोक आदि द्वन्द्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाववाला  पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।।२२।।
क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले यज्ञ के लिए आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।।२३।।
यज्ञ के लिए आचरण करने वाले पुरुषों में से कोई तो इस भाव से यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात स्त्रुवादिक भी  ब्रह्म है और हवि अर्थात हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है इसलिए ब्रह्म रूप कर्म में समाधिस्थ हुए पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।।२४।।
और दूसरे योगी जन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ को ही अच्छी प्रकार उपवास ते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानी जन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को हवन करते हैं।।२५।।
अन्य योगी जन श्रोतादिक सब इंद्रियों को संयम अर्थात स्वाधीनता रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोक कर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक  विषयों को इंद्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात राग द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्म रूप करते हैं।।२६।।
दूसरे योगी जन संपूर्ण इंद्रियों की चेष्टा को तथा प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई, परमात्मा में स्थिति रूप योग अग्नि में हवन करते हैं।।२७।।
दूसरे कई पुरुष ईश्वर अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं वैसे ही कई पुरुष ँँ  स्वधर्म पालनरूप तपयज्ञ को करने वाले हैं और कई अष्टांगयोग रूप यज्ञ को करने वाले हैं और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञान यज्ञ के करने वाले हैं।।२८।। 
दूसरे योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं वैसे ही अन्य योगी जन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपन की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।।२९।। दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, इस प्रकार यज्ञ द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका ऐसे यह सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।।३०।। हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ! यज्ञों के परिणामस्वरूप  ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मृत्युलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा।।३१।।
ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं उन सब को शरीर मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम कर्म योग द्वारा संसार बंधन से मुक्त हो जाएगा।।३२।।
हे अर्जुन ! सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से ज्ञान रूप यज्ञ सब प्रकार से श्रेष्ठ है क्योंकि हे पार्थ ! संपूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं अर्थात ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।३३।।
इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान वे मर्म को जानने वाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।।३४।।
कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा और है अर्जुन ! जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतन रूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को दिखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय  ही देखेगा।।३५।‌। यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञान रूप नौका द्वारा निसंदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।।३६।‌।
हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म मे कर देता है, वैसे ही ज्ञान रूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।।३७।। इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।।३८।।
हे अर्जुन ! जितेंद्रिय तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।।३९।।
हे अर्जुन ! भागवत विषय को ना जानने वाला तथा श्रद्धा रहित और संशय युक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है उनमें भी संशय युक्त पुरुष के लिए तो न सुख है न यह लोक हैं न परलोक है अर्थात यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।।४०।।
हे धनंजय ! समत्व बुद्धि रूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके ऐसे परमात्मा परायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।।४१।।
इससे हे भरतवंशी अर्जुन ! तू समत्वबुद्धि रूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए, हृदय में स्थित इस अपने संशय को ज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो।।४२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में "ज्ञानकर्मसंन्यासयोग" नामक चौथा अध्याय।।४।।

रविवार, 21 अगस्त 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय का माहात्म्य

श्री भगवान कहते हैं - प्रिय ! अब मैं चौथे अध्याय का महत्व बतलाता हूं सुनो भागीरथी के तट पर वाराणसी नाम की एक पूरी है वहां विश्वनाथ जी के मंदिर में भरत नाम के एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे जो प्रतिदिन आत्म चिंतन में तत्पर हो आनंद पूर्वक गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ किया करते थे। उसके अभ्यास से उनका अंतः करण निर्मल हो गया था। वे शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों से कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समय की बात है, वे तपोधन नगर की सीमा में स्थित देवताओं का दर्शन करने की इच्छा से भ्रमण करते हुए नगर के बाहर निकल गए वहां बेर के दो वृक्ष थे। उन्ही की जड़ में विश्राम करने लगे एक वृक्ष की जड़ में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्ष के मूल में उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गए तब बेर के वे दोनों वृक्ष पांच ही छः दिन के भीतर सूख गए। उनमें पत्ते और डालियां भी नहीं रह गई। तत्पश्चात वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणों के पवित्र ग्रह में दो कन्याओं के रूप में उत्पन्न हुए। वे दोनों कन्याएं जब बढ़कर सात वर्ष की हो गई, तब एक दिन उन्होंने दूर देशों से घूम कर आते हुए भरत मुनि को देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणों में पड़ गई और मीठी वाणी से बोली- मुनि ! आपकी ही कृपा से हम दोनों का उद्धार हुआ है। हमने बेर की योनि त्याग कर मानव शरीर प्राप्त किया है उनके इस प्रकार कहने पर मुनि को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा - पुत्रियों मैंने कब और किस साधन से तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेल के वृक्ष होने में क्या कारण था? क्योंकि इस विषय में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।
तब भी कन्याएं पहले उन्हें अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोली मुनि गोदावरी नदी के तट पर छिन्नपाप नाम का एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्य को पुण्य प्रदान करने वाला है। वह पावनताकी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थ में सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। वे ग्रीष्म ऋतु में प्रज्वलित अग्नियों के बीच में बैठते थे वर्षा काल में जल की धाराओं से उनके मस्तक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाड़े के समय जल में निवास करने के कारण उनके शरीर में हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर भीतर से सदा शुद्ध रहते, समय पर तपस्या करते थे तथा मन और इंद्रियों को संयम में रखते हुए परम शांति प्राप्त करके आत्मा में ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वता के द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे उसे सुनने के लिए साक्षात ब्रह्मा जी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे ब्रह्मा जी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था। अतः उनके आने पर भी वे सदा तपस्या में मग्न रहते थे परमात्मा के ध्यान में निरंतर संलग्न रहने के कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपा को जीवन मुक्त के समान मानकर इंद्र को अपने समृद्धि साली पद के संबंध में कुछ भय हुआ तब उन्होंने उनकी तपस्या में सैकड़ों विघ्न डालने आरंभ किए अप्सराओं के समुदाय से हम दोनों को बुलाकर इंद्र ने इस प्रकार आदेश दिया तुम दोनों उस तपस्वी की तपस्या में विघ्न डालो जो मुझे इंद्र पद से हटाकर स्वयं स्वर्ग का राज्य भोगना चाहता है। इंद्र का यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर जहां पे मुनि तपस्या करते थे आयी। वहां मंद एवं गंभीर स्वर से बचते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनाद के साथ हम दोनों ने अन्य अप्सराओं सहित मधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्मा को वश में करने के लिए हम लोग स्वर, ताल और लय के साथ नृत्य भी करने लगे बीच-बीच में जरा जरा सा आंचल खिसकने पर उन्हें हमारी छाती भी दिख जाती थी। हम दोनों की उम्मत गति काम भाव का उद्दीपन करने वाली थी। किंतु उसने उन निर्विकार चित्त वाले महात्मा के मन में क्रोध का संचार कर दिया तब उन्होंने हाथ से जल छोड़कर हमें क्रोध पूर्वक शाप दिया अरे तुम दोनों गंगा जी के तट पर बेर के वृक्ष हो जाओ। यह सुनकर हम लोगों ने बड़ी विनय के साथ कहा महात्मा हम दोनों पराधीन थी अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है उसे आप क्षमा करें यूं कह कर हमने मुनि को प्रसन्न कर लिया तब उन पवित्र चित्त वाले मुनि ने हमारे साथ उधर की अवधि निश्चित करते हुए कहा भरतमुनि के आने तक ही तुम पर यह सांप लागू होगा उसके बाद तुम लोगों का मृत्यु लोक में जन्म होगा और पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहेगी। मुनि जिस समय हम दोनों बेर वृक्ष के रूप में खड़ी थी उस समय आपने हमारे समीप आकर गीता के चौथे अध्याय का जप करते हुए हमारा उद्धार किया था। अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शाप से ही नहीं इस भयानक संसार से भी गीता के चतुर्थ अध्याय के पाठ द्वारा हमें मुक्त कर दिया।
भगवान कहते हैं - उन दोनों के इस प्रकार कहने पर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजत हो विदा लेकर जैसे आए थे वैसे ही चले गए। तथा वे कन्याएं भी बड़े आदर के साथ प्रतिदिन गीता के चतुर्थ अध्याय का पाठ करने लगी जिससे उनका उद्धार हो गया।

विश्व मैं सर्वाधिक बड़ा, छोटा, लंबा एवं ऊंचा

सबसे बड़ा स्टेडियम - मोटेरा स्टेडियम (नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद 2021),  सबसे ऊंची मीनार- कुतुब मीनार- दिल्ली,  सबसे बड़ी दीवार- चीन की ...