बुधवार, 7 अप्रैल 2021

कर्म का फल निश्चित है

मध्यप्रदेश के एक गाँव मे एक व्यक्ति अपने परिवार के साथ रहता था। परिवार में दो बेटे दो बेटियां और पति पत्नी रहते थे। 20 एकड़ जमीन पर किसानी करके वह अपना परिवार चलता था। मुख्य सड़क पर उसका एक प्लाट था। और एक मकान था। इसके पास एक बंदूक भी थी। परिवार हँसी खुशी से रहता था। पर उस व्यक्ति में एक बुराई थी वह निरीह प्राणियों को मारकर रोज आपने घर उनका मास पका कर खाता था। उसके कंधे पर बंदूक हमेशा टगी रहती। धीरे धीरे बच्चे बड़े हो गए बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी। पर पिता की बंदूक कंधे से नही उतरी वह निरन्त शिकार करता रहा। बड़ा बेटा पास ही के एक गाँव मे एक बड़े किसान के यहाँ ट्रेक्टर चलने का काम करने लगा। अभी चार दिन ही बीते थे काम करते हुए की एक दिन ट्रेक्टर पलट गया और उसकी मृत्यु हो गयी। अभी उसकी शादी को एक वर्ष भी नही हुआ था। दुर्घटना बीमा के पैसे लेकर पिता ने छोटे बेटे के साथ बड़ी बहू की शादी कर दी। छोटा बेटा गाँव का नामी चोर शराबी बन गया। एक दिन अपने पिता से गाड़ी दिलाने की जिद करने लगा पिता के लाख मना करने पर भी वह जिद पर अड़ा रहा। औऱ एक दिन अपनी बहिन की गाड़ी उठा लाया बहिन को पैसों की जरूरत थी तो वह बोला आप गाड़ी मुजे दे दो में पिता जी से पैसे दिलवा दूँगा। बहिन ने ये सोच कर गाड़ी दे दी कि अगर पैसे नही दिए तो पिता जी से बात करके गाड़ी किसी और को बेच देगे। छोटा बेटा गाड़ी लेकर घर आ गया एक दिन सुबह सुबह गाड़ी लेकर घर से निकला ही था कि थोड़ी दूर जाकर गाड़ी एक टेंकर से इतनी जोर से टकराई की उसकी घटना स्थल पर ही मौत हो गयी। टेंकर पकड़ा गया। फिर से दुर्घटना बीमा के पैसे के पैसे मिल गए। अभी इस हादसे को कुछ ही समय बीता था कि एक दिन पिता गायो को लेकर पानी पिलाने जा रहा था अचानक गाय ने दौड़ लगाई पिता भी उसके पीछे पीछे भागा तभी सामने से एक कार आ रही थी वह बायीं तरफ से दाई तरफ भागा और जाकर कार की बायीं तरफ ऐसा टकराया की उसके दोनों हाथ के पंजे सीधे के सीधे रह गए कुछ अंदरूनी चोटे भी आई। कार पकड़ी गई कार के मालिक ने एक वर्ष तक इलाज करवाया लेकिन उसकी जान नही बची। फिर से दुर्घटना बीमा के पैसे मिले। अब परिवार में सास बहू और छोटे बेटे की एक लड़की और एक लड़का रह गए। एक दिन सास अपने बीमार नाती को लेकर शहर के अस्पताल से लौट रही थी कि रास्ते मे जीप पलट गई और दोनों की घटना स्थल पर ही मौत हो गयी। चुकी सवारी ढोने वाली गाड़ी थी तो फिर दोनों की मृत्यु के बाद बहु को फिर दुर्घटना बीमा मिला। अब परिवार में सिर्फ बहु और बेटी शेष रह गए। बाकी पूरा परिवार उजड़ गया।
परिवार में सभी मासाहारी थे। 




गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

सुन्दरकाण्ड-- मूल- पाठ ( Sundarkand-mool paath )

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपको लेकर आए हैं श्रीरामचरितमानस का चतुर्थ सोपान
अर्थात सुंदरकाण्ड, सुंदरकाण्ड श्रीरामचरितमानस का सबसे सुंदर प्रसंग है। सुंदरकाण्ड के दोहे अपने आप में मंत्र है। सुंदरकांड में ६० दोहे हैं।

शान्तं शाश्वतंप्रमेयमनघं निर्वानशान्तिप्रद
 ब्रम्हाशम्भूफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यम विभूमं।
रामाख्यम जगदीश्वरम सुरगुरूम माया मनुष्यम हरिम
वन्देअहम करुणाकरं रघुवरं भूपाल चूड़ामणिम ।। १ ।।
नान्या स्पृहा रघुपते ह्रदयेअस्मदीये सत्यं वदामि च भवानख़िलान्तरात्मा ।
भक्ति प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कमादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।। २ ।।
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।३।।
                 ।। चौपाई ।।
जामवंत के बचन सुहाए। 
सुन हनुमंत ह्रदय अति भाए।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।
जब लगि आवों सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।
सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तै मैनाक होहि श्रम हारी।।
                     ( दोहा १ )
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रणाम।
राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।
                      ।। चौपाई ।।
जात पवनसुत देवन्ह देखा। 
जानै कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहि बाता।।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवन कुमारा।।
राम काजु करि फिर मैं आवों।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावों।।
तब तव बदन पैठिहउँ आई ।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
जोजन भर तेहि बदन पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहि ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहि आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।
                  ( दोहा - २ )
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।
                   ।। चौपाई ।।
निसिचर एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाही।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहिं बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृन्द देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागे।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा।
कनक कोट कर परम् प्रकासा।।
                   【 छन्द 】
कनक कोटि विचित्र मनि कृत 
सुन्दरायतना  घना ।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं
चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर
रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल
सेन बरनत नहिं बनै।।१।।
बन बाग उपवन बाटिका
सर कूप बापीं सोहहीं।।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या
रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल
समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि
एक एकन्ह तर्जहीं।।२।।
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन
नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज
खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की
कथा कछु एक है कही।
रघुवीर सर तीरथ सरीरन्हि
त्याग गति पैहहिं सही।।३।।
                   (दोहा ३)
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौ निसि नगर करौ पइसार।।
                  【चौपाई】
मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
जानहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर आहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
पुनि सँभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर विनय ससंका।।
जब रावनहि ब्रम्हा बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।
                    ( दोहा 4 )
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
                 【 चौपाई 】
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
ह्रदय राखि कोसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं सितलाई।
गरूड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ -तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।
                   ( दोहा ५ )
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देख हरष कपिराइ।
                    【 चौपाई 】
लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा।
तेहिं समय बिभीषनु जागा।।
राम राम तेहि सुमिरन कीन्हा।
ह्रदय हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई ।
मोरें ह्रदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह राम दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी।।
                ( दोहा ६ )
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।
                      【चौपाई 】
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीति।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति।।
कहहु कवन मैं परम् कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
                    ( दोहा ७ )
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुवीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गन भरे बिलोचन नीर।।
                   【 चौपाई 】
जानतहूँ अस स्वामी बिसारी।
फिरहिं ते काहे होहिं दुखारी।।
ऐहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन अशोक सीता रह जहवाँ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति ह्रदय रघुपति गुन श्रेनी।।
                   ( दोहा ८ )J
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम् दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।
                 【 चौपाई 】
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौ का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा।।
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दाम भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम् सनेही।।
सुनु दसमुख खधोत प्रकासा।
कबहुँ की नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोहि।।
                ( दोहा ९ )
आपुहि सुनि खधोत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।
                【 चौपाई 】
सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहीं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।
चंद्रहास हरु  मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।
सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहुबिधि त्रासहु जाई।।
मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।
                【 दोहा १० 】
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिशाचिनी वृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद।।
                     ( चौपाई )
त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेक।।
सबनहो बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना।।
सपनें बानर लंका जारि।
जातुधन सेना सब मारी।।
खर आरुढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सर खंडित भुज बीसा।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाईं।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरी।
जनकसुता के चरनन्हि परी।।
                ( दोहा ११ )
जहँ तहँ गई सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीते मोहि मारिहि निसिचर पोच।।
                   ( चौपाई )
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगनि तैं मोरी।।
तजौं देह करू बेगि उपाई।
दुसह बिरहु नहि सहि जई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला।।
देखियत प्रकट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करू हरु मम सोका।।
नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगनि जनि करहि निदाना।।
देखि परम् बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता।।
              【 सोरठा १२ 】
कपि करि हिरदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।
                     ( चौपाई )
तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद ह्रदयँ अकुलानी।।
जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहि जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद्र गुन बरनै लागा।
सुनतहि सीता कर दुख भागा।।
लागी सुनैं श्रवण मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो पगट होति किन भाई।।
तब हनुमंतन निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।।
राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भई संगति जैसे।।
              【 दोहा १३ 】
कपि के वचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।
                     ( चौपाई )
हरिजन जानि प्रीति आति गढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जल जाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपालु रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम् बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तब दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
               【 दोहा 14 】
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
                    ( चौपाई )
कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहु सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानु।
कालनिसा सम निसि ससि भानु।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिता।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाही।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहि तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई।।
                  【 दोहा १५ 】
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।
                      ( चौपाई )
जौ रघुवीर होति सुधि पाई।
करते नहि बिलंबु रघुराई।।
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
अबहि मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित आइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मार तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
है सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलबना।।
मोरें हृदय परम् संदेहा।
सुनि कपि प्रकट कीन्हि निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
              【 दोहा १६ 】
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप  ते गरुड़हिं खाइ परम् लघु व्याल।।
                   ( चौपाई )
मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहु।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहि बिपिन रखवारी।
परम् सुभट रजनीचर भारी।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाही।
जौ तुम सुख मानहु मन माहीं।।
                【 दोहा १७ 】
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।
                  ( चौपाई )
चलेउ नाइ सिरु पैठउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारे कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहि अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।
                 【 दोहा १८ 】
कछु मारेसि कछु Tमर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।
                   ( चौपाई )
सुनि सुत बध लंकेश रिसाना।
पठऐसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
चला इन्द्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दइ  निज अंगा।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीती न जाइ प्रभंजन जाया।।
             【 दोहा १९ 】
ब्रम्ह अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौ न ब्रम्हसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।
                    (चौपाई)
ब्रम्हबान कपि कहुँ तेहि मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखि कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि ले गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ज्ञानी।।
तासु दूत किं बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरे सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
           【 दोहा २० 】
कपिहिं बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।
                 ( चौपाई )
कह लंकेस कवन तै कीसा।
केहि के बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।
मारे निसिचर केहि अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुनु रावन ब्रम्हांड निकाया।
पाइ जासु बल विरचित माया।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन।।
धरइ जो बिबिध देइ सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।
हर को दंड कठिन जेहि भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बंधे सकल अतुलित बलसाली।।
           【 दोहा २१ 】
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
                 ( चौपाई )
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बाली सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
खायउँ फल प्रभु लागि भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम् प्रिय स्वामी।
मारहि मोहि कुमारग गामी।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराकर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै।।
              【 दोहा २२ 】
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।
                  ( चौपाई )
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्याग मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखारी।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।
             【 दोहा २३ 】
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधू भगवान।।
                  ( चौपाई )
जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमे कपि गुर बड़ ज्ञानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मति भ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना।
बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।।
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गुसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर।।
               【 दोहा २४ 】
कपि के ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु 
लगाइ।।
                    ( चौपाई )
पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
बचन सुनत कपि मन मुसकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ पजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउँ परम् लघु रूप तुरंता।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं।।
             【 दोहा २५ 】
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत 
उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
                ( चौपाई ) 
देह बिसाल परम् हरू आई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पुलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।
              【 दोहा २६ 】
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगे ठाढ भयउ कर जोरि।।
                 ( चौपाई )
मातु मोहि दीजै कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरन कामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
कहु कपि केहि बिधि राखों प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना।।
तोहि देखि सीतल भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
            【 दोहा २७ 】
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरन कमल सिरुनाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
                 ( चौपाई )
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।।
मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाएं।।
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।
           【 दोहा २८ 】
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुने सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।
                ( चौपाई )
जो न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपा भा काजु बिसेषी।।
नाथ काज कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।।
राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठें दोउ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
            【 दोहा २९ 】
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना 
पुंज।
पूँछी कुसलनाथ अब कुसल देखि पद कंज।।
                  ( चौपाई )
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुन नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोई बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमारा सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हिंय लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्राण की।।
            【 दोहा ३० 】
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहि प्रान केहि बाट।।
                   ( चौपाई )
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हि।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दिन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहि अपराध नाथ हौ त्यागी।।
अबगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी।।
सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।
             【 दोहा ३१ 】
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।
                    ( चौपाई )
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत तोहि उरनि मैं नाही।
देखेउँ करि बिचार मन माही।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता।।
             【 दोहा ३२ 】
सुनि कपि वचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।
                  ( चौपाई )
बार बार प्रभु चहइ उठवा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगवा।
कर गहि परम् निकट बैठावा।।
कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग कै बड़ि मनुसाई।
साखा ते साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।
सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोर प्रभुताई।।
              【 दोहा ३३ 】
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वाँनलहि जारि सकइ खलु तूल।।
                   ( चौपाई )
नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम् सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
सुनि कपि बचन कहहिं कपि बृन्दा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा।।
अब बिलंबु केहि कारन कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ ते भवन चले सुर हरषी।।
                【 दोहा ३४ 】
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।
                    ( चौपाई )
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं।।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनै पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा।।
नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करही।।
               ( छंद )
चिक्करही दिग्गज डोल महि गिरि
लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्व सुर मुनि
नाग किंनर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट
बहुकोटि कोटिन्ह धावहीं।
जयराम प्रबल प्रताप कोसलनाथ
गुन गन गावहीं।।१।।
सहि सक न भार उदार अहिपति
बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पुष्ट
कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति
जानि परम् सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो
लिखित अबिचल पावनी।।२।।
              【 दोहा ३५ 】
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर 
तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।
                   (चौपाई )
उहाँ निसाचर रहहि ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हे।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हे।।
              【 दोहा ३६ 】
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।
                    ( चौपाई )
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहि लोकप जाकीं त्राता।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयहु कंत पर बिधि बिपरीता।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहु।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहु।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं।।
                 【 दोहा ३७ 】
सचिव बैद गुर तीनि जौ प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं 
नास।।
                    ( चौपाई )
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जान बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता।।
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।
सो परनारि लिलार गुसाई।
तजउ चउथि के चंद कि नाई।।
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
              【 दोहा ३८ 】
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहि जेहि संत।।
                   ( चौपाई )
तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेश्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता।।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रकट समुझु जियँ रावन।।
           【 दोहा ३९ (क)( ख) 】
बार बार पद लगाउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभुसन कहीं पाइ सुअवसरु तात।।
                      ( चौपाई  )
माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
सुमति कुमति सब के उर रहही ।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहां कुमति तहँ बिपति निदाना।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।
               【 दोहा ४० 】
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।
                   ( चौपाई )
बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी।।
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा कंत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजे हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाई कहत अस भयऊ।।
               【 दोहा ४१ 】
रामु सत्य संकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।
                   ( चौपाई )
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयू हीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी।।
रावन जबहि बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
देखिहउँ जाइ चरन जल जाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषि नारी।
दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।
             【  दोहा  ४२ 】
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतू रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
                    ( चौपाई )
एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिन्धु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई।।
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना।।
               【 दोहा  ४३ 】
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।
                   ( चौपाई )
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहि ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबही।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौ पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौ सभीत आवा सरनाई।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।
               【 दोहा ४४ 】
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।
                     ( चौपाई )
सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
दूरिहि ते देखे दौऊ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
सिंध कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा।।
              【 दोहा ४५ 】
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राही त्राही आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
                    ( चौपाई )
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
अनुज सहित मिलि ढिंग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।।
               【 दोहा ४६ 】
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।
                  ( चौपाई )
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मतसर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरे चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाही।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।
               【 दोहा ४७ 】
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।
                     ( चौपाई )
सुनु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौ नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सध्ध तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँधि बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाही।
हरष सोक भय नहिं मन माही।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसे।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरे।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
                【 दोहा ४८ 】
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृण 
नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विज पद प्रेम।।
                     ( चौपाई )
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे।।
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं आघात श्रवनामृत जानी।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रहीं।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहिं प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
         【 दोहा ४९ (क ) (ख़)】
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर 
प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु 
अखंड।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
                    ( चौपाई )
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिन पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गम्भीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई।।
              【 दोहा ५० 】
प्रभु तुम्हार कुलगुरु जलधि कहहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।
                     ( चौपाई )
सखा कही तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौ होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ  एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रथम प्रणाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहि आए।
पाछें रावन दूत पठाए।।
             【 दोहा ५१ 】
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।
                    ( चौपाई )
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमारा हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस की आना।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।
               【 दोहा ५२ 】
कहेहु मुख़ागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा काल तुम्हार।।
                   ( चौपाई )
तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंका आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।
              【 दोहा ५३ 】
की भइ भेट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपुदल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।
                  ( चौपाई )
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसे।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिका काटै लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे।।
पूँछेहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह मंह तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।
              【 दोहा ५४ 】
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद 
बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
                    ( चौपाई )
ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं।।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहिं जीतै रन माहीं।।
परम् क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधल बिसाला।।
मर्दि गर्द मिलवहि दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका।।
              【 दोहा ५५ 】
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम।।
                    ( चौपाई ) 
राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं की गाई।।
सक सर एक सोषि सत सागर।
तब भ्रातहिं पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुन सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौ असि मति सहाय कृत कीसा।।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
रामानुज दीन्हि यह पाती ।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचवन।।
        【 दोहा ५६ (क) (ख) 】
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।
                    ( चौपाई )
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहीं।
उर अपराध न एकउ धरिहीं।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे।।
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपा आपनि गति पाई।।
रिषि अगस्त कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
             【 दोहा ५७ 】
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीती।।
                     ( चौपाई )
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीति।।
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सम बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा।।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
               【 दोहा ५८ 】
काटहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेंहिं पइ नव नीच।।
                    ( चौपाई )
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हारी कीन्ही।।
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाव सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोर बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सुहाई।।
               【 दोहा ५९ 】
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।
                    ( चौपाई )
नाथ निल नल कपि दौ भाई।
लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भरे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
एहिं सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पायोधि सिधावा।।
                   【छंद】
निज भवन गवनेउ सिंधु
श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति
दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन
बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना।।
               【 दोहा ६० 】
सकल सुमंगल दायक रघुनायक 
गुनगान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।

कलियुग के समस्त पापो का नाश करने वाले श्रीरामचरितमानस का यह पाँचवाँ सोपान सम्पूर्ण हुआ।
             ।।सुंदरकांड सम्पूर्ण।।
                ।।जय सियाराम।।
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सोमवार, 15 मार्च 2021

माँ लक्ष्मी जी की आरती ( maa lakshmi ji ki aarti )

जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशदिन सेवत, मैया जी को निशदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
उमा,रमा,ब्राम्हणी, तुम ही जग माता।
सूर्य चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
दुर्गा रूप निरंजनी सुख सम्पति दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत, रिद्धि सिद्धि धन पाता।। ॐ जय लक्ष्मी माता-2
तुम पाताल निवासिनी तुम ही शुभदाता।
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी भवनिधि की त्राता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
जिस घर मे तुम रहती, सब सद्गुण आता।
सब सम्भव हो जाता, मन नही घबराता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
तुम विन यज्ञ न होवे, वस्त्र न कोई पाता।
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
शुभगुण मन्दिर सुन्दर, क्षीरोदधि जाता।
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नही पाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता-2
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई नर गाता।
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता।।
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशदिन सेवत, मैया जी को निशदिन सेवत।
हरि विष्णु विधाता।।

श्री रामायण जी की आरती ( shri ramayan ji ki aarti)

आरती श्री रामायण जी की ।
कीरति कलित ललित सिया पी की।।
गावत ब्रम्हादिक मुनि नारद।
बालमीक बिज्ञान बिसारद।।
सुक सनकादि सेष अरु सारद।
बरनि पवनसुत कीरति निकी।।
गावत बेद पुरान अष्टदस।
छओ सास्त्र सब ग्रथन को रस।।
मुनि जन धन संतन को सरबस।
सार अंस संमत सबही की।।
गावत संतत शम्भू भवानी।
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।।
व्यास आदि कबिबर्ज बखानी।
कागभुशुण्डि गरुण के ही की।।
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी।
सुभग सिंगार मुक्ति जुवती की।।
दलन रोग भव मूरी अमी की।
तात मात सब विधि तुलसी की।।

श्री रामायण विसर्जन (shri ramayan visarjan)


जय जय राजा राम की,जय लक्ष्मण बलवान।
जय कपीस सुग्रीव की, जय अंगद हनुमान।।
जय जय कागभुशुण्डि की, जय गिरि उमा महेश।
जय ऋषि भारद्वाज की,जय तुलसी अवधेश।।
प्रभु सन कहियो दंडवत, तुमहि कहौ कर जोर।
बार-बार रघुनाथ कहि सुरति करावहु मोर।।
कामहि नारि पियार जिमि,लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहि राम।।
बार-बार वर मागहु हर्ष देहु श्री रंग।
पद सरोज अन पयनी भगति सदा सतसंग।।
प्रणत पाल रहगुवंश मणि करुणा सिंधु खरारि।
गये शरण प्रभु राखिहैं सब अपराध बिसार।।
कथा विसर्जन होत हैं सुनो वीर हनुमान।
जो जन जहाँ से आये हैं ते तः करो पयान।।
श्रोता सब आश्रम गए शम्भु गए कैलाश।
रामायण मम हिर्दय में सदा करो तुम वास।।
रामायण जसु पावन गावहि सुनहि जे लोग।
राम भगति दृढ पावहि विन विराग जप जोग।।
रामायण बैकुण्ठ गई सुर गए निज निज धाम।
रामचंद्र के पद कमल बंदि गये हनुमान।।
।।सियावर रामचंद्र की जय।।
।।उमा पति महादेव जी की जय।।
।।पवनसुत हनुमानजी की जय।।
।।गोस्वामी तुलसीदास जी की जय।।
।।बोलो भाई सब संतो की जय।।
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रविवार, 14 मार्च 2021

श्री रामायण आवाहन ( Shri Ramayan Aavahan)


 जो सुमिरत सिद्ध होय गण नायक करिवर बदन।
करहुँ अनुग्रह सोई बुद्धि राशि शुभ गुण सदन।।
< span>
मूक होई वाचाल पंगु चढ़ाई गिरिवर गहन।
जासु कृपासु दयाल द्रवहु सकल कलिमल दहन।।/div>
नील सरोरुह श्याम तरुन अरुन वारिज नयन।
करहु सो मम उर धाम सदा क्षीरसागर सयन।।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुणा अयन।
जाहि दिन पर नेह करहुँ कृपा मर्दन मयन।।
बंदहु गुरुपद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महा मोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।।
बंदहु मुनिपद कंज रामायन जेहि निर मयऊ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित।।
बंदहु चारहु वेद भव वारिध वो हित सरिस।
जिनहि न सपनेहु खेद बरनत रघुपति विमल यश।।
बंदहु विधि पद रेनु भवसागर जिन कीन्ह यह।
संत सुधा शशि छेनू प्रगटे खल विष बारुनी।।
बंदहु अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन ईव पर हरेऊ।।
बंदहु पवन कुमार खल वन पावक ज्ञान घन।
जासु ह्र्दय आगार बसहि राम सर चाप धर।।
राम कथा के रसिक तुम, भक्ति राशि मति धीर।
आय सो आसन लीजिये, तेज पुंज कपि वीर।।
रामायण तुलसीकृत कहऊ कथा अनुसार।
प्रेम सहित आसन गहऊ आवहु पवन कुमार।।
 ।। सियावर रामचंद्र जी की जय ।।
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वैभवलक्ष्मी व्रत कथा ( Vaibhav lakshmi vrat katha )

किसी शहर में लाखों लोग रहते थे। सभी अपने अपने कामो में रत रहते थे। किसी को किसी की परवाह नहीं थीं। भजन कीर्तन भक्ति-भाव, दया-माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गए थे। शहर में बुराई बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी, डकैती आदि बहुत से अपराध शहर में होते थे। इसके बाद भी शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे। ऐसे ही लोगो मे शीला और उसके पति की गृहस्थी मानी जाती थी।शीला धार्मिक प्रवृत्ति की औऱ संतोषी स्वभाव वाली थी। उसका पति भी विवेकी औऱ सुशील था। शीला और उसका पति कभी किसी की बुराई नहीं करते थे। औऱ प्रभु भजन में अच्छी तरह से समय व्यतीत कर रहे थे। शहर के लोग उसकी गृहस्थी की सराहना करते थे। देखते ही देखते समय बदल गया। शीला का पति बुरे लोगो से दोस्ती कर बैठा। अब वह जल्दी से जल्दी करोड़पति होने के सपने देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चल पड़ा। उसकी हालत रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी हो गई। शराब, जुआ, रेस, चरस, गांजा आदि बुरी आदतों में शीला का पति भी फस गया। दोस्तो के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। इस प्रकार उसने अपना सबकुछ जुए में गवा दिया। शीला को पति के वर्ताव से बहुत दुख हुआ किन्तु वह भगवान पर भरोसा कर सबकुछ सहने लगी। वह अपना अधिकांश समय प्रभु भक्ति में बिताने लगी। अचानक एक दिन दोपहर में किसी ने उसके द्वार पर दस्तक दी। शीला ने दरवाजा खोला तो देखा कि एक माँ जी खड़ी थी। उनके चहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आँखों मे मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य चेहरा करुणा औऱ प्यार से छलक रहा था। उनको देखते ही शीला के मन मे अपार शांति छा गई। शीला के रोम रोम में आनंद छा गया। शीला उन माँ जी को आदर के साथ घर मे ले आई। घर मे बिठाने के लिए कुछ नही था अतः शीला ने सकुचाकर एक फ़टी हुई चादर पर उनको बिठाया।
माँ जी ने कहा क्यो शीला मुझे पहचाना नही? शीला ने सकुचाते हुए कहा माँ आपको देखते ही खुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता हैं कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ़ रही थी वे आप ही है पर मैं आपको पहचान नही सकती। माँ जी ने हँसकर कहा क्यो? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन कीर्तन होते है, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते हैं। पति गलत रास्ते पर चला गया तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी औऱ दुख की मारी वह लक्ष्मी जी के मंदिर में नही जाती थी। बाहर के लोगो से नजरे मिलते भी उसे बहुत शर्म आती थी। उसने याददाश्त पर जोर डाला पर वह माँ जी याद नही आ रही थी। तभी माँ जी ने कहा तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर गीत गाती थी। अभी अभी तू दिखाई नही देती थी इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नही आती है? कहि बीमार तो नही हो गई है न? ऐसा सोचकर मैं तुझसे मिलने चली आयी हूँ। माँ जी के अति प्रिय शब्दों से शीला का दिल पिघल गया उसकी आँखों में आँसू आ गए। माँ जी के सामने वह बिलख बिलख कर रोने लगी।
माँ जी ने कहा- बेटी! सुख औऱ दुख तो धूप छाव जैसे होते हैं। धैर्य रखो बेटी! औऱ तुझे परेशानी क्या है? तेरे दुख की बात मुझे सुना। तेरा मन हल्का हो जायेगा। माँ जी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली।
उसने माँ जी से कहा- माँ मेरी गृहस्थी में भरपूर खुशियां औऱ सुख था मेरे पति भी सुशील थे। अचानक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति बुरी संगत में फस गए औऱ बुरी आदतों के शिकार हो गए तथा अपना सबकुछ गवा बैठे हैं तथा हम रास्ते के भिखारी जैसे बन गए हैं।
यह सुनकर माँ जी ने कहा:- ऐसा कहा जाता है कि कर्म की गति न्यारी होती है, हर इंसान को अपने कर्मो का फल भुगतना ही पड़ता है। इसलिए तू चिंता मत कर। अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आएंगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त हैं। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम औऱ करुणा का अवतार हैं। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है। इसलिए तू धैर्य रखकर माँ लक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सबकुछ ठीक हो जाएगा। 'माँ लक्ष्मी जी का व्रत' करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने पूछा: माँ! लक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता हैं, वह मुझे समझाइये मैं यह व्रत अवश्य करुँगी।
● व्रत की विधि-
माँ जी ने कहा:- बेटी! माँ लक्ष्मी जी का व्रत बहुत सरल है। इसे "वरदलक्ष्मी" व्रत या "वैभवलक्ष्मी" व्रत भी कहा जाता है। इस व्रत को करने वाले कि सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। वह सुख, सम्पत्ति, औऱ यश प्राप्त करता है। ऐसा कहकर माँ जी व्रत की विधि कहने लगी बेटी! 'वैभवलक्ष्मी' व्रत बैसे तो सीधा सादा व्रत है। किंतु कुछ लोग इसे गलत तरीके से करते हैं अतः उसका फल नही मिलता। कई लोग कहते हैं की सोने के गहने की हल्दी कुमकुम से पूजा करो बस व्रत हो गया। पर ऐसा नहीं है। कोई भी व्रत शास्त्रीय विधि से करना चाहिए। तभी उसका फल मिलता है। सच्ची बात यह है  सोने के गहने की विधि से पूजा करनी चाहिए। व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि से करनी चाहिए। यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिए। प्रातः काल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो औऱ सारा दिन जय माँ लक्ष्मी का रटन करो। किसी की चुगली नही करनी चाहिए। शाम को पूर्व दिशा में मुख करके आसन पर बैठ जाओ। सामने पाटा रखकर उस पर रूमाल रखो। रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो उस पर तांबे का कलश रखकर, उस पर एक कटोरी रखो। उसमे एक सोने का गहना रखो, सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा, अगर वह भी न हो तो नगद रुपया भी चलेगा। बाद में घी का दीपक जलाकर अगरबत्ती जलाकर रखे। माँ लक्ष्मी जी के बहुत से स्वरूप है और माँ लक्ष्मी जी को श्रीयंत्र बहुत प्रिय हैं। अतः वैभवलक्ष्मी में पूजन विधि करते समय सर्व प्रथम 'श्री यंत्र ' औऱ लक्ष्मी जी के विविध स्वरूपो का सच्चे मन से दर्शन करो। उसके बाद "लक्ष्मी स्तवन" का पाठ करो। बाद में कटोरी में रखे हुए गहने अथवा रुपये को हल्दी कुमकुम चावल चढ़ाकर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ। शाम को किसी मीठी चीज का प्रसाद बनाकर उसका प्रसाद रखो। न हो तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है। फिर आरती करके ग्यारह वार सच्चे मन से जय माँ लक्ष्मी बोलो बाद में ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का संकल्प करो औऱ आपकी जो भी मनोकामना हो उसे पूरी करने की माँ लक्ष्मी जी से प्रार्थना करो। फिर माँ का प्रसाद बाट दो औऱ थोड़ा प्रसाद अपने लिए रख लो। अगर आप मे शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और केवल प्रसाद खाकर शुक्रवार का व्रत करो। न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय भोजन करे। अगर थोड़ी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हैं। बाद में कटोरी में रखे गहने अथवा रुपये को संभालकर आपने पास रखे और कलश के जल को तुलसी में डाल दें, चावल पक्षियों को डाल दें। इस प्रकार शास्त्रीय विधि से व्रत करने से इसका फल अवश्य ही मिलता है। इस व्रत के प्रभाव से सभी प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता है। संतान न हो तो संतान की प्राप्ति होती है। सोभग्यवती स्त्री का शौभाग्य अखण्ड रहता है। कुँवारी कन्या को मनभावन पति मिलता है। शीला यह सुनकर आनन्दित हो गई। फिर पूछा माँ! आपने "वैभवलक्ष्मी" व्रत की जो शास्त्रीय विधि बताई है वैसे मैं अवश्य करुँगी। किन्तु उसकी उद्यापन किस प्रकार करनी चाहिये? कृपा कर बताइये,
◆ उद्यापन विधि:-
माँ जी ने कहा:- ग्यारह या इक्कीस जितने का संकल्प लिया हो उतने शुक्रवार यह वैभवलक्ष्मी व्रत पूरी श्रद्धा से करे। अंतिम शुक्रवार को खीर का नैवेद्य बनाये। पूजन विधि जैसी हर शुक्रवार को करते हैं वैसी ही करनी चाहिए। पूजन के बाद श्रीफल फोड़ो औऱ कम से कम सात कन्याओं अथवा सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगाकर वैभवलक्ष्मी व्रत की एक एक पुस्तक उपहार में देनी चाहिए। औऱ सबको खीर का प्रसाद देना चाहिए। फिर धनलक्ष्मी स्वरूप वैभवलक्ष्मी स्वरूप माँ लक्ष्मी जी की छवि को प्रणाम करें। माँ लक्ष्मी जी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है। प्रणाम करते हुए भावुकता से मन ही मन माँ की प्रार्थना करते हुए कहे कि हे माँ धनलक्ष्मी! हे माँ वैभवलक्ष्मी! मैने सच्चे मन से आपका व्रत पूर्ण किया है तो हे माँ! हमारी मनोकामना पूर्ण कीजिये। हमारा सबका कल्याण कीजिए। जिसे संतान न हो उसे संतान देना, सौभाग्यशाली स्त्रियों का सौभाग्य अखंड कीजिए। कुँवारी कन्याओ को मन भावन वर दीजिए। आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उसकी सभी विपत्ति दूर करना। सबको सुखी करना हे माँ! आपकी महिमा अपरंपार है। माँ जी से व्रत की विधि सुनकर शीला भावविभोर हो गई। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया। उसने आँखे बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि हे वैभवलक्ष्मी मैं भी माँ जी की बताई शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी व्रत इक्कीस शुक्रवार तक करुँगी। शीला ने संकल्प करके आँखे खोली तो सामने कोई नही था वह विस्मित हो गई कि माँ जी कहा गई? यह माँ जी कोई और नही साक्षात लक्ष्मी जी ही थी। शीला लक्ष्मी जी की भक्त थी इसलिए अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए माँ लक्ष्मी देवी जी माँ  जी का रूप धारण कर शीला के पास आई थी ।
● शीला का व्रत करना औऱ उसका फल प्राप्त करना।
दूसरे दिन शुक्रवार था। प्रातः काल स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला मन ही मन श्रद्धा औऱ पूरे भाव से जय माँ लक्ष्मी का मन ही मन रटन करने लगी। सारा दिन किसी की चुगली नही की। शाम हुई तब हाथ पैर धोकर शीला पूर्व दिशा में मुँह करके बैठी। घर मे पहले तो सोने के बहुत से गहने थे पर पति ने सारे गहने गिरवी रख दिये थे। पर नाक की कील बच गई थी। शीला ने नाक की कील निकालकर उसे धोकर कटोरी में रख दिया। सामने पाटे पर मुट्ठी भर चावल रखकर उस पर तांबे का कलश जल भरकर रख दिया। उसके ऊपर कील वाली कटोरी रख दी। फिर विधि पूर्वक वंदन, स्तमवन, पूजन आदि किया और घर मे थोड़ी सी शक्कर थी वह प्रसाद में रख कर वैभवलक्ष्मी का व्रत किया औऱ यह प्रसाद पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में अंतर आ गया। उस दिन उसने शीला को सताया नही उसे मारा नही। शीला को बहुत आनंद हुआ उसके मन मे वैभवलक्ष्मी व्रत के लिए श्रद्धा औऱ बढ़ गई। शीला ने पुर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक व्रत किया। इक्कीसवें शुक्रवार को विधि पूर्वक उद्यापन करके सात स्त्रियों को वैभवलक्ष्मी व्रत की सात पुस्तकें उपहार में दी। फिर माता के धनलक्ष्मी स्वरूप की छवि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी- हे माँ धनलक्ष्मी! मैंने आपका वैभवलक्ष्मी व्रत करने का संकल्प लिया था वह व्रत आज पूर्ण किया है। हे माँ! मेरी हर विपत्ति को दूर करो। हम सबका कल्याण करो। जिसे संतान न हो उसे संतान देना। सौभाग्यशाली स्त्रियों का सौभाग्य अखंड रखना। कुँवारी कन्याओं को मनभावन पति देना। जो कोई आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे। उसकी सब विपत्तियों को दूर करना। सबको सुखी करना। हे माँ! आपकी महिमा अपरंपार है। ऐसा बोलकर लक्ष्मी जी के धनलक्ष्मी स्वरूप को प्रणाम किया।
इस प्रकार शास्त्रीय विधि से शीला ने श्रद्धा से व्रत किया औऱ तुरंत ही उसे फल मिला। उसका पति सही रास्ते पर चलने लगा औऱ अच्छा आदमी बन गया तथा कड़ी मेहनत से व्यवसाय करने लगा। धीरे धीरे समय परिवर्तित हुआ औऱ उसने शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए घर मे धन की बाढ़ सी आ गयी। घर मे पहले जैसी सुख-शांति छा गई।
वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी शास्त्रीय विधि से वैभवलक्ष्मी का व्रत करने लगी।
हे माँ! धनलक्ष्मी आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुई उसी तरह आपका व्रत करने वाले सभी भक्तों पर प्रसन्न होना सबको सुख-शांति देना। जय माँ धनलक्ष्मी जय माँ वैभवलक्ष्मी। https://newssaransha.blogspot.com saransha newssaransha

गुरुवार, 11 मार्च 2021

श्री दुर्गा चालीसा एवं दुर्गा जी की आरतियाँ (Shri Durga Chalisa & Durga Ji Ki Artiyan)

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
 नमो नमो अम्बे दुख हरनी।।
निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूँ लोक फैली उजयरी।।
शशि ललाट मुख महाविशाला।
नेत्र लाल भुकुटी विकराला।।
रूप मातु को अधिक सुहावे।
दरश करत जन अति सुख पावे।।
तुम संसार शक्ति लै कीन्हा।
पालन हेतु अन्न धन दीना।।
अन्नपूर्णा हुई तुम जग पाला।
तुम ही आदि सुंदरी वाला।।
प्रलयकाल सब नासन हारी।
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी।।
शिव योगी तुमरे गुण गावे।
ब्रह्म विष्णु तुम्हें नित ध्यावे।।
रूप सरस्वती को तुम धारा।
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा।।
धरयो रूप नरसिह को अम्बा।
प्रगट हुई फाड् कर खम्बा।।
रक्षा करी प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो।।
लक्ष्मी रूप धरो जग माही।
श्री नारायण अंग समाही।।
क्षीरसिन्धु में करत विलासा।
दयासिन्धु दीजे मन आशा।।
हिंगलाज में तुम्ही भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी।।
मातंगी अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी वगला सुख दाता।।
श्री भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न भाल भव दुख निवारिणी।।
केहरि वाहन सोह भवानी।
लांगुर वीर चलत अगवानी।।
कर में खप्पर खड़ग विराजे।
जाको देख काल डर भाजे।।
सोहे अस्त्र औऱ त्रिशूला।
जाते उठत शत्रु हिय शूला।।
नगरकोट में तुम्ही विराजत।
तिहु लोक में डंका वाजत।।
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे।
रक्तबीज शंखन संहारे।।
महिषासुर नृप अति अभिमानी।
जेहि अघ भार मही अकुलानी।।
रूप कराल कालीका धारा।
सेना सहित तुम तेहि संहारा।।
परी गाढ़ संतन पर जब जब।
भई सहाय मातु तुम तब तब।।
अमरपुरी अरु बासव लोका।
तब महिमा सब रहे अशोका।।
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हे सदा पूजे नर नारी।।
प्रेम भक्ति से जो यश गावे।
दुख दरिद्र निकट नही आवे।।
ध्याबे तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म मरण ताकौ छुटि जाई।।
योगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी।।
शंकर अचरज तप कीन्हा।
काम अरु क्रोध जीत सब लीन्हा।।
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।
काहू काल नही सुमिरो तुमको।।
शक्ति रूप को मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो।।
शरणागत हुई कीर्ति बखानी।
जय जय जय जगदम्ब भवानी।।
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दाई शक्ति नही कीन्ह विल्मवा।
मोको मातु कष्ट अति घेरो।
तुम विन कौन हरे दुख मेरो।।
आशा तृष्णा निपट सतावै।
मोह मदादिक सब बिनशाबे।
शत्रु नाश कीजै महारानी।
सुमिरौ इकचित तुम्हे भवानी।।
करो कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि सिद्धि दे करहु निहाला।।
जब लगि जिऊ दया फल पाऊ।
तुम्हरो यश में सदा सुनाऊ।।
दुर्गा चालीसा जो गावै।
सब सुख भोग परम् पद पावै।।
देवीदास शरण निज जानी।
करहु कृपा जगदम्ब भवानी।।
।। इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ।।
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          *श्री दुर्गा जी की आरती*
जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन ध्यावत हरि ब्रम्हा शिवरी।।
जय अम्बे गौरी....
माँग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को।
उज्ज्वल से दोऊ नैना, चंद्रवदन नीको।।
जय अम्बे गौरी....
कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजै।
रत्न पुष्प गल माला, कंठन पर साजै।।
जय अम्बे गौरी.....
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्परधारी।
सुर-नर मुनिजन सेवत, तिनके दुःख हारी।।
जय अम्बे गौरी.....
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर, राजत समज्योति।।
जय अम्बे गौरी....
शुम्भ निशुम्भ बिडारे, महिषासुर घाती।
धूम्र विलोचन नैना, निशिदिन मदमाती।।
जय अम्बे गौरी.....
चण्ड–मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।
मधु कैटभ दोऊ मारे, सुर भयहीन करे।।
जय अम्बे गौरी.....
ब्राम्हणी, रुद्राणी, तुम कमला रानी।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी।।
जय अम्बे गौरी.....
चौसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैरू।
बाजत ताल मृदंगा, अरु बाजत डमरू।।
जय अम्बे गौरी....
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हर्ता, सुख सम्पत्ति करता।।
जय अम्बे गौरी......
भुजचारी अति शोभित, रक्ताम्बर धारी।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी।।
जय अम्बे गौरी......
अम्बे जी की आरती जो कोई नर गावैं।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावै।।
जय अम्बे गौरी....
         *माँ दुर्गा जी की आरती*
अम्बे तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्परवाली,
तेरे ही गुण गाये भारती, ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती।
तेरे भक्तजनों पर माता भीड़ पड़ी है भारी।
दानव दल पर टूट पडो माँ करके सिंह सवारी।।
सौ सौ सिंहो सी तू बलशाली, हे दस भुजाओ वाली,
दुखियों के दुखड़े निवारती। 
ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती
माँ बेटे का है इस जग में बड़ा ही सुंदर नाता।
पूत कपूत सुने है पर न माता सुनी कुमाता।
सब पर करुणा बरसाने वाली, 
अमृत बरसाने वाली, दुखियो के दुखड़े निवारती।
ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती
नही माँगते धन और दौलत न चाँदी न सोना,
हम तो मांगे माँ तेरे मन मे इक छोटा सा कौना।
सबकी बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली,
सतियो के सत को सँवारती।
ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती




बुधवार, 10 मार्च 2021

।। श्री रुद्राष्टक ।। (shri rudrashtak)

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुम व्यापकं ब्रम्हवेदस्वरूम।
निजं निर्गुणम निर्विकल्पं निरिहम चिदकाशमाकावासम भजेहम ।।१।।
निराकारमोकारमूलम तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम।
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारम नतोहम।।२।।
तुषाराद्रि संकाश गौरम गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्रीशरीरम।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लसभदलबालेंदु कंठे भुजंगा।।३।।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं निलकंठम दयालम।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।४।।
प्रचंडं प्रकृष्टम प्रगल्भं परेशं अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।
त्रयः शूल निर्मूलम शूलपाणिम भजेहम भवानीपतिम भावगम्यम।।५।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानंद संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।६।।
न यावत उमानाथ पदरविंदम भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत सुखम शांति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम।।७।।
न जानामि योगम जपं नैव पूजां नतोहं सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम।
जरा जन्म दुःखो घतातप्यमानम प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो।।८।।
रुद्राष्टकम्मिदम प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठंति नरा भक्त्या तेषा शंभु: प्रसीदति।।
।। इति श्री गोस्वामी तुलसीदास कृतं श्रीरूद्राष्टकम सम्पूर्णम।।

मंगलवार, 9 मार्च 2021

।। श्री गणेश चालीसा ।। एवं ।।श्री गणेश जी की आरती।।(Shri Ganesh Chalisa & shri ganesh ji ki aarti)

दोहा- जय गणपति सदगुण सदन, कविवर बदन कृपाल।
विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजा लाल।।
चौपाई- जय जय जय गणपति गणराजू।
            मंगल भरण करण शुभ काजू।।
जय गजबदन सदन सुख दाता।
विश्व विनायक बुद्धि विधाता।।
वक्रतुण्ड सुचि शुण्ड सुहावन।
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन।।
राजित मणि मुक्तन उर माला।
सवर्ण मुकुट सिर नयन विशाला।।
पुस्तक पाणी कुठार त्रिशूलं।
मोदक भोग सुगंधित फुलं।।
सुन्दर पीतांबर तन साजित।
चरण पादुका मुनि मन राजित।।
धनि शिवसुवन षडानन भ्राता।
गौरी ललन विश्व विधाता।।
ऋद्धि सिद्धि तव चवर डुलावे।
मूसक वाहन सोहत द्वारे।।
कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी।
अति शुचि पावन मंगलकारी।।
एक समय गिरिराज कुमारी ।
पुत्र हेतू तप कीन्हा भारी।।
भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा।
तब पहुच्चो तुम धरि द्विज रूपा।।
अतिथि जान के गौरी सुखारी।
वहु विधि सेवा कीन्ह तुम्हारी।।
अति प्रसन्न ह्व तुम वर दीन्हा।
मातु पुत्र हित जौ तप कीन्हा।।
मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला।
बिना गर्भ धारण यहि काला।।
गणनायक गुण ज्ञान निधाना।
पूजित प्रथम रूप भगवाना।।
अस कहि अंतर्ध्यान रूप ह्व।
पालन पर बालक स्वरूप ह्व।।
बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना।
लखि मुख सुख नही गौरी समाना।।
सकल मगन सुख मंगल गावहि।
नभ ते सुरन सुमन वर्षावहीँ।।
शम्भू उमा बहु दान लुटावहिं।
सुर मुनि जन सूट देखन आवहि।।
लख अति आनन्द मंगल साजा।
देखन भी आए शनि राजा।।
निज अवगुण गुनि शनि मन माही।
बालक देखन चाहत नाही।।
गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो।
उत्सव मोर न शनि तुहि भायो।।
कहन लगे शनि मन सकुचाई।
का करिहौ शिशु मोहि दिखाई।।
नही विश्वास उमा कर भयऊ।
शनि सो बालक देखन कहेउँ।।
पडतहिं शनि दृग कोण प्रकासा।
बालक सिर उड़ गयो आकाशा।।
गिरिजा गिरी विकल ह्व धरणी।
सो दुख दशा गयो नही वरणी।।
हाहाकार मचो कैलाशा।
शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा।।
तुरन्त गरुण चढ़ विष्णु सिधाए।
काट चक्र सो गज सिर लाए।।
बालक के धड़ ऊपर धरयो।
प्राण मंत्र पढ़ शंकर डारयो।।
नाम गणेश शम्भू तब कीन्हे।
प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे।।
बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा।
पृथ्वी की पदक्षिणा लीन्हा।।
चले षड़ानन भरमि भुलाई।
रची बैठे तुम बुद्धि उपाय।।
चरण मातु पितु के धर लीन्हा।
तिन के सात प्रदक्षिणा कीन्हा।।
धन्य गणेश कहि शिव हिय हरषे।
नभते सुरन सुमन बहु बरसे।।
तुम्हारी महिमा बुद्धि बढाई।
शेष सहस मुख सकै न गाई।।
मैं मतिहीन मलीन दुखारी।
करहु कौन विधि विनय तुम्हारी।।
भजत रामसुन्दर प्रभू दासा।
लख प्रयाग ककरा दुर्वासा।।
अब प्रभू दया दीन पर कीजै।
अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजे।।
दोहा- श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करे धर ध्यान। (https://newssaransha.blogspot.com)
नित नव मंगल ग्रह बसै, लहै जगत कल्याण।। (news saransha)
सम्वत अपन शास्त्र दस ऋषि पंचमी दिनेश।
पूरन चालीसा भयो मंगलमूर्ति गणेश।।
(saransha) 
        ।। श्री गणेश जी की आरती ।।
जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
एक दांत दयावंत, चार भुजा धारी।
माथे सिंदूर सोहे, मूस की सवारी।।
जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा,
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
पान चढ़े फूल चढ़े, और चढ़े मेवा।
लडुअन का भोग लगे, संत करे सेवा।
जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा,
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
अंधन को आँख देत, कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।।
जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा,
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
दीनन की लाज रखो, शम्भू सुतकारी।
कामना को पूरी करो, जाऊ बलिहारी।।
जय गणेश जय गणेश, जय गणेश देवा,
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
       ।।श्री गणेश जी की आरती।।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा।
माता जाकीं पार्वती पिता महादेवा।।
जय गणेश देवा...
एकदंत दयावंत चार भुजा धारी।
मस्तक सिंदूर सोहे मुस की सवारी।।
जय गणेश देवा....
पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डू का भोग लगे संत करे सेवा।।
जय गणेश देवा...
अंधन को आँख देत कोढ़िन को काया।
वाझन को पुत्र देत निर्धन को माया।।
जय गणेश देवा....
दीनन की लाज रखो शम्भू सुतकारी।
कामना को पूरा करो जाऊ बलिहारी।।
जय गणेश देवा....
सूर श्याम शरण आये सफल करो सेवा।
माता जाकीं पार्वती पिता महादेव।।
जय गणेश देवा...

रविवार, 26 अप्रैल 2020

संकल्प शक्ति

संकल्प शक्ति एक बार भगवान गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के साथ विचरण कर रहे थे तभी उन्हें एक चट्टान दिखी चट्टान को देखकर एक शिष्य बोला गुरुदेव वो देखिये सामने एक चट्टान है क्या चट्टान से बड़ा कोई होता है बुद्ध मुस्कुराते हुए बोले हाँ वत्स लोहा, लोहा चट्टान को तोड़ सकता है शिष्य बोला तो गुरुदेव लोहे से बड़ा कौन होता है बुद्ध बोले आग, आग लोहे को पिघला सकती है तो फिर आग से बड़ा कौन होता है शिष्य बोला गुरुदेव बोले पानी, पानी आग को बुझा सकता है शिष्य फिर से बोला तो पानी से बड़ा कोंन है गुरुदेव बुद्ध मुस्कुराते हुए बोले वैसे तो संसार मे एक से बढ़कर एक शक्तिशाली है परन्तु इंसान की संकल्प शक्ति से बड़ा कुछ भी नही इंसान अगर निश्चय करले तो कुछ भी कर सकता है। 

विश्व मैं सर्वाधिक बड़ा, छोटा, लंबा एवं ऊंचा

सबसे बड़ा स्टेडियम - मोटेरा स्टेडियम (नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद 2021),  सबसे ऊंची मीनार- कुतुब मीनार- दिल्ली,  सबसे बड़ी दीवार- चीन की ...