हमारा प्रयास हैं कि भारतीय धर्म संस्कृति को अधिक से अधिक लोगो तक पहुचाया जाए। इसी तारतम्य में यह हमारी छोटी सी कोशिश है। प्रस्तुत ब्लॉग में चालीसा, व्रत, एवं आरतियां विभिन्न, हिन्दू ग्रन्थों, पोथी,पुराणों से ब्लॉगर ने अपने परिश्रम से एकत्रित किये हैं यह ब्लॉगर की स्वंय की कृति नही है, अतः इसमें कोई त्रुटि हो तो हम क्षमा प्रार्थी है औऱ उसमे सुधार के लिए आपके सुझाव का स्वागत करते हैं।
शुक्रवार, 29 जुलाई 2022
काल रूपी तलवार सब के ऊपर लटक रही है
एक बार राजा जनक जी से एक ब्राह्मण ने प्रश्न किया कि महाराज आप राजा होकर भी माया से दूर कैसे रहते हैं, राजा जनक जी ने उस ब्राह्मण को समझा कर कहा कि हे ब्राह्मण ! मैं आपके लिए समय आने पर इसका उत्तर दूंगा। कुछ दिन के बाद राजा जनक ने उस ब्राह्मण के लिए अपने महल में भोजन के लिए आमंत्रित किया। तरह तरह के पकवान बनाए गए बहुत ही स्वादिष्ट एवं ब्राह्मण को एक कक्ष में बैठा दिया गया सारी सुविधाएं ब्राह्मण के लिए दी गई और बहुत सी महिलाएं उनके लिए हवा कर रही थी। और ब्राह्मण के सामने भोजन रखे हुए थे पर राजा जनक ने क्या किया की जहां पर ब्राह्मण बैठे हुए थे उसके ऊपर एक पतली रस्सी से एक धारदार तलवार बांध दी। जैसे ही ब्राह्मण का ध्यान उन पर बंधी हुई तलवार पर गया तो वह तलवार बहुत ही कमजोर रस्सी से बंधी हुई थी तो ब्राह्मण का सारा ध्यान भोजन से छूट गया ब्राह्मण खाना तो खा रहे थे पर देख रहे थे उस तलवार के लिए कि कहीं यह तलवार टूट कर गिर ना जाए ऊपर, सारा समय ब्राह्मण उस तलवार को ही देखते रहे जैसे तैसे भोजन समाप्त कर राजा जनक के पास पहुंचे, राजा ने ब्राह्मण से पूछा कि हे ब्राह्मण भोजन कैसे थे खीर कैसी बनी थी मिठाईयां कैसी थी सुख सुविधाएं कैसी थी कैसा लगा आपको आप प्रसन्न तो है न । ब्राह्मण बोला अरे महाराज सारा समय उस तलवार को देखने में ही निकल गया मुझे तो पता ही नहीं चला कि भोजन कैसे हैं कैसा इनका स्वाद है क्या है बस मै सारा समय यही देखता रहा कि कहीं यह तलवार टूट के ऊपर न गिर जाए नहीं तो मेरी मृत्यु निश्चित है। राजा जनक ने मुस्कुरा कर जवाब दिया कि हे ब्राह्मण ! यही आपके प्रश्न का उत्तर है उस दिन आपने मुझसे जो प्रश्न किया था कि महाराज आप इतनी सारी सुख सुविधाएं होते हुए भी ऋषियों जैसा जीवन कैसे व्यतीत करते हैं। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मै प्रति पल उस काल रुपी तलवार को अपनी गर्दन पर लटकते हुए देखता हूं। इसलिए मुझे माया में आसक्ति नहीं होती है।
सोमवार, 25 जुलाई 2022
हनुमान जी के १०८ नाम
१ मारुति
२ अंजनी पुत्र
३ अंजनी कुमार
४ अंजनीलाल
५ अंजनी सुत
६ केसरी नंदन
७ पवनसुत
८ पवनकुमार
९ वायु पुत्र
१० हनुमान
११ पवनतनय
१२ पवनपुत्र
१३ शंकरसुवन
१४ बजरंगबली
१५ कपिश्रेष्ठ
१६ वानर यूथपति
१७ रामदूत
१८ पंचमुखी हनुमान
१९ भीमसेन सहाकृते
२० कपीश्वराय
२१ महाकायाय
२२ कपिसेनानायक
२३ कुमार ब्रह्मचारिणे
२४ महाबलपराक्रमी
२५ वानराय
२६ केसरी सुताय
२७ शोक निवारणाय
२८ अंजनागर्भसंभूताय
२९ विभिषणप्रियाय
३० वज्रकायाय
३१ रामभक्ताय
३२ लंकापुरीविदाहक
३३ सुग्रीव सचिवाय
३४ पिंगलाक्षाय
३५ हरिमर्कटमर्कटाय
३६ रामकथालोलाय
३७ सीतान्वेणकर्ता
३८ वज्रनखाय
३९ रुद्रवीर्य
४० वानरेश्वर
४१ ब्रह्मचारी
४२ आंजनेय
४३ महावीर
४४ हनुमत
४५ मारुतात्मज
४६ तत्वज्ञानप्रदाता
४७ सीतामुद्राप्रदाता
४८ अशोकवहिकक्षेत्रे
४९ सर्ववन्धविमोत्र
५० रक्षाविध्वंसकारी
५१ परविद्यापरिहारी
५२ परमशौर्यविनाशय
५३ परमंत्र निराकर्त्रे
५४ परयंत्र प्रभेदकाय
५५ सर्वग्रह निवासिने
५६ सर्वदुःखहराय
५७ सर्वलोकचारिणे
५८ मनोजवय
५९ पारिजातमूलस्थाय
६० सर्वतंत्ररुपणे
६१ सर्वयंत्रात्मकाय
६२ सर्वरोगहराय
६३ प्रभवे
६४ सर्वविद्यासम्पत
६५ भविष्य चतुरानन
६६ रत्नकुण्डल पाहक
६७ चंचलद्वाल
६८ गर्धवविद्यात्वज्ञ
६९ कारागारविमोक्त्री
७० सर्वबंधमोचकाय
७१ सागरोत्तारकाय
७२ प्रज्ञाय
७३ प्रजापवते
७४ बालार्कसदृशनाय
७५ दशग्रीवकुलान्तक
७६ लक्ष्मण प्राणदाता
७७ महाद्युतये
७८ चिंरजीवने
७९ दैत्यविघातक
८० अक्षहन्त्रे
८१ कालनाभाय
८२ काचनाभाय
८३ पंचवक्त्राय
८४ महातपसी
८५ लंकिनीभंजन
८६ श्रीमते
८७ सिंहिकाप्राणहर्ता
८८ लोकपूज्याय
८९ धीराय
९० शूराय
९१ दैत्यकुलान्तक
९२ सुराचर्चित
९३ महातेजस
९४ रामचूडामणिप्रदाया
९५ कामरुपिणे
९६ मैनाकपूजिताय
९७ मनोजवम
९८ मरुततुल्यवेगयं
९९ जितेन्दियम
१०० बुद्धि निधान
१०१ सकल गुणनिधान
१०२ असुर निकन्दन
१०३ राम दुलारे
१०४ लाल देह
१०५ कपि
१०६ कपिसूर
१०७ बजरंग
१०८ बजरंगी
शनिवार, 23 जुलाई 2022
भगवान शिव शंकर के १०८ नाम अर्थ सहित In Hindi
१ शिव - कल्याण स्वरूप
२ महेश्वर - माया के अधिश्वर
३ शम्भू - आनंद स्वरूप वाले
४ पिनाकी-पिनाक धनुष धारण करने वाले
५ शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
६ वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
७ विरुपाक्ष- विचित्र आंख वाले
८ कपर्दी- जटा जूट धारण करने वाले
९ नीललाहित- नीले और लाल रंग वाले
१० शंकर - का कल्याण करने वाले
११ शूलपाणी - हाथ मैं त्रिशूल धारण करने वाले
१२ खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
१३ विष्णु बल्लभ- भगवान विष्णु के अति प्रिय
१४ शिपिविष्ट- सितुहा मैं प्रवेश करने वाले
१५ अंबिका नाथ- देवी भगवती के पति
१६ नीलकंठ- नीले कंठ वाले
१७ भक्तवत्सल- भक्तों को अत्यंत प्रिय
१८ भव - संसार के रूप मैं प्रकट होने
१९ शर्व- कष्टों का नाश करने वाले
२० त्रिलोकेश- तीनों लोकों के स्वामी
२१ शितिकण्ठ- सफेद कंठ वाले
२२ शिवाप्रिय- पार्वती के प्रिय
२३ उग्र- अत्यंत उग्र रूप वाले
२४ कपाली- कपाल धारण करने वाले
२५ कामारी - कामदेव के शत्रु
२६ सुरसूदन- अंधक दैत्य को मारने वाले
२७ गंगाधर- गंगा जी को धारण करने वाले
२८ ललाटाक्ष- ललाट में आंख वाले
२९ महाकाल- कालों के काल
३० कृपानिधि- करूणा की खान
३१ भीम- भयंकर रूप वाले
३२ परशुहस्त- हाथ में फरसा धारण करने वाले
३३ मृगपाणी- हाथ में हिरण धारण करने वाले
३४ जटाधर- जटा रखने वाले
३५ कैलाशवासी- कैलाश के निवासी
३६ कवची- कवच धारण करने वाले
३७ कठोर - अत्यंत मजबूत देह वाले
३८ त्रिपुरान्तक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
३९ वृषांक - बैल के चिह्न वाली ध्वजा वाले
४० वृषभारुढ - बैल की सवारी करने वाले
४१ भस्मोद्धलितविग्रह- सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
४२ सामप्रिय - साम गान से प्रेम करने वाले
४३ स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
४४ त्रयीमूर्ति - वेद रूपी विग्रह करने वाले
४५ अनीश्वर - जो स्वयं ही सबके स्वामी हैं
४६ सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
४७ परमात्मा - सब आत्माओं में सर्वोच्च
४८ सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र सूर्य अग्नि रूपी नेत्रों वाले
४९ हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
५० यज्ञमय - यज्ञरूप वाले
५१ सोम - उमा के सहित रूप वाले
५२ पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
५३ सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले
५४ विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
५५ वीरभद्र - वीर होते हुए भी शांत स्वरूप वाले
५६ गणनाथ - गणों के स्वामी
५७ प्रजापति - प्रजा का पालन करने वाले
५८ हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
५९ दुर्धुर्ष - किसी से नहीं डरने वाले
६० गिरीश - पर्वतों की स्वामी
६१ गिरीश्वर - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
६२ अनघ - पापरहित
६३ भुजंगभूषण - सांपों के आभूषण वाले
६४ भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
६५ गिरिधन्वा - मेरु पर्वत को धनुष बनाने वाले
६६ पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
६७ भगवान - सर्व समर्थ ऐश्वर्य संपन्न
६८ प्रमयाधिप - प्रथमगणो के अधिपति
६८ मुत्युजय - मृत्यु को जीतने वाले
६९ सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
७० जगद्व्यापी - जगत में व्याप्त होकर रहने वाले
७१ जगतगुरु - जगत् के गुरू
७२ ब्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
७३ महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
७४ चारूविक्रम - सुंदर पराक्रम वाले
७५ रुद्र - भयानक
७६ भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतो के
स्वामी
७७ स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
७८ अहिर्बुध्न्य - कुंडलिनी को धारण करने वाले
७९ दिगंबर - नग्न, आकाश रूपी वस्त्र धारण करने वाले
८० अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
८१ अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
८२ सात्विक - सत्त्व गुण वाले
८३ शुद्धविग्रह - शुद्ध मूर्ति वाले
८४ शाश्वत - नित्य रहने वाले
८५ खण्डपरसु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
८६ अज - जन्म रहित
८७ पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
८८ मृड - सुख स्वरूप वाले
८९ पशुपति - पशुओं के स्वामी
९० देव - स्वयं प्रकाश रूप
९१ महादेव - देवों के देव
९२ अव्यय - खर्च होने पर भी ना घटने वाले
९३ हरि - विष्णु स्वरूप
९४ पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाली
९५ अव्यग्र - कभी भी व्यथित ना होने वाले
९६ दक्षाध्वहर - दक्ष के यज्ञ को ध्वस्त करने वाले
९७ हर - पापों व पापों को हरने वाले
९८ भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
९९ अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
१०० सहस्त्राक्ष - हजार आंखों वाले
१०१ सहस्त्रपाद - हजार पैरों वाली
१०२ अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
१०३ अनंत - देश कालवस्तु रूपी परिछेद से रहित
१०४ तारक - सबको तारने वाले
१०५ परमेश्वर - सबसे परम ईश्वर
१०६ रामेश्वर - राम जी के ईश्वर
१०७ गौरीश - गौरी के ईश्वर
सोमवार, 18 जुलाई 2022
श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)
संजय बोले कि पूर्वोक्त प्रकार से करुणा करके व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१।।
हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि यह ना तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है न कीर्ति को करने वाला है।।२।।
इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप ! सच्चे हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो।।३।।
तब अर्जुन बोले कि हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध करूंगा, क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं।।४।।
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा का अन्य भी भोगना कल्याण कारक समझता हूं, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूंगा।।५।।
और हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।।६।।
इसलिए कायरता रूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं, आपको पूछता हूं जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याण कारक साधन हो वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं इसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।।७।।
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।८।।
संजय बोले हे राजन् ! निंद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कह कर फिर श्री गोविंद भगवान से 'युद्ध नहीं करूंगा' ऐसे स्पष्ट कह कर चुप हो गए।।९।।
उसके उपरांत हे भारतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को हंसते हुए से यह वचन कहे।।१०।।
हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से बचना को कहता है परंतु पंडित जन जिन के प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी शोक नहीं करते हैं।।११।। क्योंकि आत्मा नित्य है इसलिए शोक करना आयुक्त है वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।१२।। किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, इस विषय में धीरपुरुष नहीं मोहित होता है अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा अवस्था रूप स्थूल शरीर का विकास अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकास भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिए तत्व को जानने वाला धीर पुरुष इस विषय में नहीं मोहित होता है।।१३।।
हे कुंतीपुत्र ! सर्दी गर्मी और सुख दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संभोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! उनको तू सहन कर।।१४।। क्योंकि हे पूरुषश्रेष्ठ ! दुख सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष के लिए योग होता है।।१५।।
और हे अर्जुन ! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का अभव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।१६।। इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है।।१७।।
और इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन युद्ध कर।।१८।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।१९।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता और न मरता है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाशत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता है।।२०।।
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किस को मारता है।।२१।।
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीर के वियोग का शोक करता हूं तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को याद कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है।।२२।।
हे अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्र आदि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है और इसको जल गीला नहीं कर सकते हैं और वायु नहीं सुखा सकता है।।२३।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्म है, अल्केद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निसंदेह नित्य सर्वव्यापक अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है।।२४।।
यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय और यह आत्मा विकार रहित अर्थात न बदलने वाला कहा गया है, इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।।२५।।
यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने तो भी हे अर्जुन ! इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।।२६।।
क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ इससे भी तू इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है।।२७।।
यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिए भी शोक करना उचित नहीं, क्योंकि हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं केवल बीच में ही शरीर वाले प्रतीत होते हैं, फिर उस विषय में क्या चिंता है।।२८।। हे अर्जुन ! यह आत्म तत्व बड़ा गहन है इसलिए कोई महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य कि ज्यों देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की ज्यों इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को आश्चर्य की ज्यों सुनता है और कोई कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता।।२९।।
हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए तू शोक करने को योग्य नहीं है।।३०।।
और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।।३१।। हे पार्थ अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवन क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।३२।।
और यदि तू धर्म युक्त संग्राम को नहीं करेगा तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।३३।।
और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।।३४।।
और जिनके तुम बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वह महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे।।३५।।
और तेरी वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे फिर उससे अधिक दुख क्या होगा।।३६।।
इससे युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है क्योंकि या तो मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा इससे हे अर्जुन ! युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।।३७।।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा ना हो तो भी सुख दुख लाभ हानि और जय पराजय को समान समझकर उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।।३८।।
हे पार्थ यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और इसी को अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।।३९।।
इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं होता है, इसलिए इस निष्कामकर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन जन्म मृत्यु रूप महान भय से उद्धार कर देता है।।४०।। हे अर्जुन ! इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है और अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदोंवाली अनंत होती हैं।।४१।।
हे अर्जुन ! जो सकामी पुरुष केवल फलश्रुति में प्रीति रखने वाले स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले इस से बढ़कर और कुछ नहीं है, ऐसे कहने वाले हैं वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली, इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहते हैं।।४२-४३।।
उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले उन पुरुषों के अंतः करण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।।४४।।
हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले अर्थात प्रकाश करने वाले हैं इसलिए तू असंसारी अर्थात निष्कामी और सुख दुख आदि द्वन्द्वों से रहित नित्य वस्तु में स्थित तथा योग क्षेम को ना चाहने वाला और आत्म परायण हो।।४५।।
क्योंकि मनुष्य का सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात जैसे बड़े जलाशय के प्राप्त हो जाने पर जल के लिए छोटे जलाशय की आवश्यकता नहीं रहती वैसे ही ब्रह्मानंद की प्राप्ति होने पर आनंद के लिए वेदों की आवश्यकता नहीं रहती।।४६।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार हो गए फल में कभी नहीं और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी प्रीति न होवे।।४७।।
हे धनंजय ! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और अशुद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर यह समत्व भाव ही योग नाम से कहा जाता है।।४८।।
इस समत्वरूप बुद्धि योग से सकाम कर्म
अत्यंत तुच्छ है इसलिए हे धनंजय समत्व बुद्धि योग का आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन है।।४९।।
समत्व बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को इस लोक में ही त्याग देता है अर्थात उनसे लिपायमान नहीं होता, इससे समत्व बुद्धि योग के लिए ही चेष्टा कर, यह समत्व बुद्धि रूप योग ही कर्मों में चतुरता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।।५०।।
क्योंकि बुद्धि योग युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष अर्थात अमृतमय परम पद को प्राप्त होते हैं।।५१।।
हे अर्जुन जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को बिल्कुल तर जाएगी तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।।५२।।
जब तेरी अनेक प्रकार से सिद्धांतों को सुनने में विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जाएगी तब तू समत्व रूप योग को प्राप्त होगा।।५३।।
इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा हे केशव ! समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है?।।५४।।
उसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।।५५।।
तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेग रहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई हो है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गए हैं राग, भय और क्रोध जिसके ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।।५६।।
और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।५८।।
यद्यपि इंद्रियों के द्वारा विषयों को ना ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु राग नहीं निवृत होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात करके निवृत हो जाता है।।५९।।
और हे अर्जुन ! जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां बलात्कार से हर लेती हैं।।६०।।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे क्योंकि जिस पुरुष के इंद्रियां वश में होती हैं उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।।६१।।
हे अर्जुन ! मन सहित इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिंतन होता है और विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ती हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोध से अविवेक अर्थात मूढभाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।।६३।।
परंतु स्वाधीन अंतः करण वाला पुरुष राग द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अंतः करण की प्रसन्नता अर्थात स्वच्छता को प्राप्त होता है।।६४।।
उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखो का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।।६५।। हे अर्जुन ! साधनरहित पुरुष के अंतः करण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस आयुक्त के अंतः करण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है, फिर शांतिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है।।६६।।
क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है वह एक ही इंद्रिय इस आयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है।।६७।।
इससे हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।६८।।
और है अर्जुन ! संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है उस नित्य शुद्ध बोध स्वरूप परमानंद में भगवत को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान क्षणभंगुर संसारिक सुख में सब भूत प्राणी जागते हैं तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है।।६९।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति संपूर्ण योग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं वह पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है न कि लोगों को चाहने वाला।।७०।।
क्योंकि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित और अहंकार रहित स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शांति को प्राप्त होता है।।७१।। हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है इस को प्राप्त होकर(योगी कभी) मोहित नहीं होता है और अंत काल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।।७२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में 'सांख्ययोग' नामक दूसरा अध्याय।।
शुक्रवार, 15 जुलाई 2022
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का माहात्म्य
श्रीभगवान कहते हैं -- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य का उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अन्य अध्यायों के माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियों के पूजक, स्वाध्यायशील, वेद शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञ क अनुष्ठान करने वाले और तपस्वीयों के सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मणों को कभी सदा रहने वाली शांति ना मिली। वे परम कल्याणमय तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले तपस्वीयों की सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदन्तर एक दिन पृथ्वी पर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकांक्षा रहित, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखने वाले तथा शांतचित्त थे। निरंतर परमात्मा के चिंतन में संलग्न हो वे सदा आनंद विभोर रहते थे। देवशर्मा ने उन नित्य संतुष्ट तपस्वी को शुद्ध भाव से प्रणाम किया और पूछा-- महात्मन् ! मुझे शांतिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी? तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहा वही तुम्हें उपदेश देगा। यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वंदना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राम में पहुंचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा। उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था। उसके नेत्र आनंदातिरेक से निश्चल हो रहे थे-- वह अपलक दृष्टि से देख रहा था। वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकचित हुए परस्पर विरोधी जंतुओं से घिरा था। वहां उद्यान में मंद मंद वायु चल रही थी। मृगो के झुंड शांत भाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनंदमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गए। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया। तदन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य-चित्त से मित्रवान के समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछी- महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी ऐसे उपाय का उपदेश कीजिए जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो। देवशर्मा की बात सुनकर मित्रवान ने एक क्षण तक कुछ विचार किया इसके बाद इस प्रकार कहा विद्वन ! एक समय की बात है मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था। इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी। जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्यु के डरता था इसलिए व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहां से भाग चला। किंतु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस व्याघ्र के पास बेरोकटोक चली गई। फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोली व्याघ्र तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेम पूर्वक खाओ ना। तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है? व्याघ्र बोला- बकरी इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया। भूख प्यास भी मिट गई। इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता।
व्याघ्र के यों कहने पर बकरी बोली ना जाने मैं कैसे निर्भय हो गई हूं। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ। यह सुनकर व्याघ्र ने कहा मैं भी नहीं जानता चलो सामने खड़े हुए इन महापुरुष से पूछें ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहां से चल दिए। उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देख कर मैं बहुत विस्मय में पड़ा था। इतने में ही उन्होंने मुझसे ही आकर प्रश्न किया। वहां वृक्ष की शाखा पर एक वानर राज था उन दोनों के साथ मैंने भी वानर राज से पूछा। विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानर राज ने आदर पूर्वक कहा- अजापाल ! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृतांत सुनाता हूं। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मंदिर है उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्मा जी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्व काल में यहां सुकर्मा नामक एक विद्वान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मंदिर में उपासना करते थे। वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहां निवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ। सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहा विद्वान मैं केवल तत्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूं। आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के यह मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक शिलाखंड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ एवं अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहा ब्राह्मण इससे तुम्हारा आत्मज्ञान संबंधी मनोरथ अपने आप सफल हो जाएगा। यूं कह कर वे विद्वान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अंतर्ध्यान हो गए। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरंतर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे। तदनंतर दीर्घकाल के पश्चात अंतःकरण शुद्ध होकर उन्हें तत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे जहां जहां गए वहां वहां का तपोवन शांत हो गया। उनमें शीतोष्ण और राग द्वेष आदि की बाधाएं दूर हो गई इतना ही नहीं उन स्थानों में भूख प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो।
मित्रवान कहता है- वानर राज के यू कहने पर में प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मंदिर की ओर गया। वहां जाकर शिलाखंड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी की आवृत्ति करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है। अतः भद्र पुरुष तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृत्ति किया करो ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान कहते हैं- प्रिय ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरंदरपुर की राह ली। वहां किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तांत निवेदन किया। और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अंतःकरण वाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे। तब से उन्होंने अनवद्य परम पद को प्राप्त कर लिया लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया।
बुधवार, 13 जुलाई 2022
अथ श्रीमद्भगवद्गीता (प्रथमोऽध्याय:)
नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय, सनातन धर्म में श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोच्च है। श्रीमद्भगवद्गीता का नित्य पाठ करने से मनुष्य मोह माया से मुक्त हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें क्या करना चाहिए यह सिखाती है।
अथ प्रथमोऽध्याय
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।१।।
संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।२।।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।३।।
अत्र शूरा महेषवासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।४।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।५।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।६।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते।।७।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।८।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।९।।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।११।।
तस्य संजनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शखं दध्मौ प्रतापवान्।।१२।।
ततः शंखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।१३।।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।१४।।
पाच्ञन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।।१५।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।१६।।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्रो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।१७।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुःशंखान्दध्मुःपृथक् पृथक्।।१८।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।१९।।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।२०।।
।हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽचृयुत।।२१।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।२२।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्र दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।२३।।
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति।।२५।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।२६।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोथपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान्।।२७।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्मते।
न च शक़ोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।
न काड्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।३२।।
येषामर्थे काडि्क्षतं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।३३।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।३४।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घन्तोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।३५।।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः ःः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।३६।।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धन्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३७।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३९।।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
अधर्मीभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेंय जायते वर्णसंकरः।।४१।।
संकरो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्मेषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।४२।।
दोषैरेतैः कुलन्घानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।४३।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।४४।।
अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।४६।।
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।४७।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।।१।।
शुक्रवार, 1 जुलाई 2022
श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय (हिंदी अनुवाद)
धृतराष्ट्र बोले हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठा हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडू पांडू के पुत्रों ने क्या किया? ।१।
इस पर संजय बोले उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जा कर यह वचन कहा ।२।
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान श्रेष्ठ द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।३।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं जैसे सत्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।४।
और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशी राज, पुरुजित कुंतीभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य।५।
और पराक्रमी योधामन्यु तथा बलवान उत्तममौजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र यह सब ही महारथी हैं।६।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ हमारे पक्ष में भी जो जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए आपके जानने के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उनको कहता हूं।७।
एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। ८।
तथा और भी बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सब के सब युद्ध में चतुर हैं।९।
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।१०।
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोगों सब के सब ही निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। ११।
इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहकी नाद के समान गर्ज कर शंख बजाया।१२।
उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल मृदंग और नृसिंहादि बाजी एक साथ ही बजे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। १३।
उसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी आलौकिक शंख बजाए। १४।
उनमें श्री कृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।१५।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक शंख और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।१६।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सत्यकि।१७।
तथा राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सबने हे राजन ! अलग-अलग शंख बजाए।।१८।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए। १९।
हे राजन ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ऋषिकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रात को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए। २०-२१।
जब तक मैं इन स्थिर हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है।२२।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।२३।
संजय बोले, हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए
महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ ! इन इकट्ठा हुए कौरवों को देख। २४-२५।
उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहोंको, आचार्योंको, मामों को, भाइयों को, मित्रों को, पुत्रों को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुहृदों को भी देखा।२६।
इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे अत्यंत करुणा से युक्त हुए कुंती पुत्र अर्जुन शोक करते हुए यह बोले।२७।
हे कृष्ण ! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच होता है।२८-२९।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।३०।
हे केशव ! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। ३१।
हे कृष्ण ! मैं विजय नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता हे गोविंद ! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।३२।
क्योंकि हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित है, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।३३।
जो कि गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं। ३४।
इसलिए हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। ३५।
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ३६।
इससे हे माधव ! अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।३७।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए यह लोग कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं।३८।
परंतु है जनार्दन ! कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए।३९।
क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दवा लेता है।४०।
तथा हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और हे वाष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।४१।
और वह वर्णसंकर कुल घातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लोप हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। ४२।
और इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घातियों के सनातन धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।४३।
तथा हे जनार्दन ! नष्ट हुए कुल धर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हमने सुना है। ४४।
अहो ! शोक है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हुए हैं जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्धत हुए हैं। ४५।
यदि मुझे शस्त्र रहित ना सामना करने वालों को शस्त्र धारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारे तो वह मारना भी मेरे लिए अति कल्याण कारक होगा।४६।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए। ४७।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल Indian tourist spots Indian tourist spots
साथियों आज के अंक में हम भारत के प्रमुख पर्यटन स्थल के बारे में जानकारी देंगे जहां पर Indian tourist के अलावा all world से tourist भी काफी स...
-
जो सुमिरत सिद्ध होय गण नायक करिवर बदन। करहुँ अनुग्रह सोई बुद्धि राशि शुभ गुण सदन।। < span> मूक होई वाचाल पंगु चढ़ाई गिरिवर गहन। जा...
-
जय जय राजा राम की,जय लक्ष्मण बलवान। जय कपीस सुग्रीव की, जय अंगद हनुमान।। जय जय कागभुशुण्डि की, जय गिरि उमा महेश। जय ऋषि भारद्वाज की,जय तुलसी...