सोमवार, 18 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय (हिंदी अनुवाद)

संजय बोले कि पूर्वोक्त प्रकार से करुणा करके व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्र वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा।।१।।
हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ ? क्योंकि यह ना तो श्रेष्ठ पुरुषों से आचरण किया गया है, न स्वर्ग को देने वाला है न कीर्ति को करने वाला है।।२।।
इसलिए हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप ! सच्चे हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो।।३।।
तब अर्जुन बोले कि हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति किस प्रकार बाणों को करके युद्ध करूंगा, क्योंकि हे अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं।।४।।
इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा का अन्य भी भोगना कल्याण कारक समझता हूं, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोगों को ही तो भोगूंगा।।५।।
और हम लोग यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेष्ठ है अथवा यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र  हमारे सामने खड़े हैं।।६।।
इसलिए कायरता रूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं, आपको पूछता हूं जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याण कारक साधन हो वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं इसलिए आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिए।।७।।
क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन-धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं जो कि मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।।८।।
संजय बोले हे राजन् ! निंद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कह कर फिर श्री गोविंद भगवान से 'युद्ध नहीं करूंगा' ऐसे स्पष्ट कह कर चुप हो गए।।९।।
उसके उपरांत हे भारतवंशी धृतराष्ट्र ! अंतर्यामी श्री कृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को हंसते हुए से यह वचन कहे।।१०।।
हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से बचना को कहता है परंतु पंडित जन जिन के प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी शोक नहीं करते हैं।।११।। क्योंकि आत्मा नित्य है इसलिए शोक करना आयुक्त है वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और  न ही ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।१२।। किंतु जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, इस विषय में धीरपुरुष नहीं मोहित होता है अर्थात जैसे कुमार, युवा और जरा अवस्था रूप स्थूल शरीर का विकास अज्ञान से आत्मा में भासता है, वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होना रूप सूक्ष्म शरीर का विकास भी अज्ञान से ही आत्मा में भासता है, इसलिए तत्व को जानने वाला धीर पुरुष इस विषय में नहीं मोहित होता है।।१३।।
हे कुंतीपुत्र ! सर्दी गर्मी और सुख दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संभोग तो क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन ! उनको तू सहन कर।।१४।। क्योंकि हे पूरुषश्रेष्ठ ! दुख सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को यह इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते वह मोक्ष के लिए योग होता है।।१५।।
और हे अर्जुन ! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत्  का अभव नहीं है, इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।।१६।।  इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है।।१७।।
और इस नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन युद्ध कर।।१८।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।१९।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता और न मरता है अथवा न यह आत्मा हो करके फिर होने वाला है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाशत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी यह नाश नहीं होता है।।२०।। 
हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किस को मारता है।।२१।।
और यदि तू कहे कि मैं तो शरीर के वियोग का शोक करता हूं तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को याद कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीर को प्राप्त होता है।।२२।। 
हे अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्र आदि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है और इसको जल गीला नहीं कर सकते हैं और वायु नहीं सुखा सकता है।।२३।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्म है, अल्केद्य और अशोष्य  है तथा यह आत्मा निसंदेह नित्य सर्वव्यापक अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है।।२४।।
यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय  और यह आत्मा विकार रहित अर्थात न बदलने वाला कहा गया है, इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।।२५।।
यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने तो भी हे अर्जुन ! इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।।२६।।
 क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ इससे भी तू इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है।।२७।।
यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिए भी शोक करना उचित नहीं, क्योंकि हे अर्जुन ! संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं केवल बीच में ही शरीर वाले प्रतीत होते हैं, फिर उस विषय में क्या चिंता है।।२८।। हे अर्जुन ! यह आत्म तत्व बड़ा गहन है इसलिए कोई महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य कि ज्यों देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की ज्यों इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को आश्चर्य की ज्यों सुनता है और कोई कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता।।२९।।
हे अर्जुन ! यह आत्मा सब के शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए तू शोक करने को योग्य नहीं है।।३०।।
और अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने को योग्य नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध  से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण कारक कर्तव्य क्षत्रिय के लिए नहीं है।।३१।। हे पार्थ अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवन क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।३२।।
और यदि तू धर्म युक्त संग्राम को नहीं करेगा तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।।३३।।
और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।।३४।।
और जिनके तुम बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वह महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे।।३५।।
और तेरी वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे फिर उससे अधिक दुख क्या होगा।।३६।।
इससे युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है क्योंकि या तो मरकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा इससे हे अर्जुन ! युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।।३७।।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा ना हो तो भी सुख दुख लाभ हानि और जय पराजय को समान समझकर उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।।३८।।
हे पार्थ यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञान योग के विषय में कही गई और इसी को अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।।३९।।
इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं होता है, इसलिए इस निष्कामकर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन जन्म मृत्यु रूप महान भय से उद्धार कर देता है।।४०।। हे अर्जुन ! इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है और अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदोंवाली अनंत होती हैं।।४१।।
हे अर्जुन ! जो सकामी  पुरुष केवल फलश्रुति में प्रीति रखने वाले स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले इस से बढ़कर और कुछ नहीं है, ऐसे कहने वाले हैं वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली, इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभा युक्त वाणी को कहते हैं।।४२-४३।।
उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले उन पुरुषों के अंतः करण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।।४४।।
हे अर्जुन ! सब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वाले अर्थात प्रकाश करने वाले हैं इसलिए तू असंसारी अर्थात निष्कामी और सुख दुख आदि द्वन्द्वों से रहित नित्य वस्तु में स्थित तथा योग क्षेम को ना चाहने वाला और आत्म परायण हो।।४५।।
क्योंकि मनुष्य का सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है अच्छी प्रकार ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण का भी सब वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात जैसे बड़े जलाशय के प्राप्त हो जाने पर जल के लिए छोटे जलाशय की आवश्यकता नहीं रहती वैसे ही ब्रह्मानंद की प्राप्ति होने पर आनंद के लिए वेदों की आवश्यकता नहीं रहती।।४६।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार हो गए फल में कभी नहीं और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी प्रीति न होवे।।४७।।
 हे धनंजय ! आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और अशुद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर यह समत्व भाव ही योग नाम से कहा जाता है।।४८।।
इस समत्वरूप बुद्धि योग से सकाम कर्म
अत्यंत तुच्छ है इसलिए हे धनंजय समत्व बुद्धि योग का आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन है।।४९।।
समत्व बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य-पाप दोनों को इस लोक में ही त्याग देता है अर्थात उनसे लिपायमान नहीं होता, इससे समत्व बुद्धि योग के लिए ही चेष्टा कर, यह समत्व बुद्धि रूप योग ही कर्मों में चतुरता है अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।।५०।।
क्योंकि बुद्धि योग युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से छूटे हुए निर्दोष अर्थात अमृतमय परम पद को प्राप्त होते हैं।।५१।।
हे अर्जुन जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को बिल्कुल तर जाएगी तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।।५२।।
जब तेरी अनेक प्रकार से सिद्धांतों को सुनने में विचलित हुई बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल और स्थिर ठहर जाएगी तब तू समत्व रूप योग को प्राप्त होगा।।५३।।
इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा हे केशव ! समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है?।।५४।।
उसके उपरांत श्री कृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।।५५।।
तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेग रहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई हो है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गए हैं राग, भय और  क्रोध जिसके ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।।५६।।
और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।५८।।
यद्यपि इंद्रियों के द्वारा विषयों को ना ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं परंतु राग नहीं निवृत होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात करके निवृत हो जाता है।।५९।।
और हे अर्जुन ! जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन  स्वभाव वाली इंद्रियां बलात्कार से हर लेती हैं।।६०।।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे क्योंकि जिस पुरुष के इंद्रियां वश में होती हैं उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।।६१।।
हे अर्जुन ! मन सहित इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिंतन होता है और विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ती हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है क्रोध से अविवेक अर्थात मूढभाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।।६३।।
परंतु स्वाधीन अंतः करण वाला पुरुष राग द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अंतः करण की प्रसन्नता अर्थात स्वच्छता को प्राप्त होता है।।६४।।
उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखो का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।।६५।। हे अर्जुन ! साधनरहित पुरुष के अंतः करण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस आयुक्त के अंतः करण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है, फिर शांतिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है।।६६।।
क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है वैसे ही विषयों में  विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है वह एक ही इंद्रिय इस आयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है।।६७।।
इससे हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।६८।।
और है अर्जुन ! संपूर्ण भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है उस नित्य शुद्ध बोध स्वरूप परमानंद में भगवत को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान क्षणभंगुर संसारिक  सुख में सब भूत प्राणी जागते हैं तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है।।६९।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति संपूर्ण योग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं वह पुरुष परम शांति को प्राप्त होता है न कि लोगों को चाहने वाला।।७०।।
क्योंकि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित और अहंकार रहित स्पृहारहित  हुआ बर्तता है, वह शांति को प्राप्त होता है।।७१।। हे अर्जुन ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है इस को प्राप्त होकर(योगी कभी) मोहित नहीं होता है और अंत काल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।।७२।।
इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में 'सांख्ययोग' नामक दूसरा अध्याय।।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का माहात्म्य

श्रीभगवान  कहते हैं -- लक्ष्मी ! प्रथम अध्याय के माहात्म्य  का उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अन्य अध्यायों के माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशा में वेदवेत्ता ब्राह्मणों के पुरन्दरपुर नामक नगर में श्रीमान देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियों के पूजक, स्वाध्यायशील, वेद शास्त्रों के विशेषज्ञ, यज्ञ क अनुष्ठान करने वाले और तपस्वीयों के सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्यों के द्वारा अग्नि में हवन करके दीर्घकाल तक देवताओं को तृप्त किया, किंतु उन धर्मात्मा ब्राह्मणों को कभी सदा रहने वाली शांति ना मिली। वे परम कल्याणमय तत्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियों के द्वारा सत्य संकल्प वाले तपस्वीयों की सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदन्तर एक दिन पृथ्वी पर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकांक्षा रहित, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखने वाले तथा शांतचित्त थे। निरंतर परमात्मा के चिंतन में संलग्न हो वे सदा आनंद विभोर रहते थे। देवशर्मा ने उन नित्य संतुष्ट तपस्वी को शुद्ध भाव से प्रणाम किया और पूछा-- महात्मन् ! मुझे शांतिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी? तब उन आत्मज्ञानी संत ने देवशर्मा को सौपुर ग्राम के निवासी मित्रवान का, जो बकरियों का चरवाहा था, परिचय दिया और कहा वही तुम्हें उपदेश देगा। यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वंदना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राम में पहुंचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा। उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था। उसके नेत्र आनंदातिरेक  से निश्चल हो रहे थे-- वह अपलक दृष्टि से देख रहा था। वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकचित हुए परस्पर विरोधी जंतुओं से घिरा था। वहां उद्यान में मंद मंद वायु चल रही थी। मृगो के झुंड शांत भाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनंदमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गए। मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया। तदन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य-चित्त से मित्रवान के समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछी- महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी ऐसे उपाय का उपदेश कीजिए जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो। देवशर्मा की बात सुनकर मित्रवान ने एक क्षण तक कुछ विचार किया इसके बाद इस प्रकार कहा विद्वन ! एक समय की बात है मैं वन के भीतर बकरियों की रक्षा कर रहा था। इतने में ही एक भयंकर व्याघ्र पर मेरी दृष्टि पड़ी। जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्यु के डरता था इसलिए व्याघ्र को आते देख बकरियों के झुंड को आगे करके वहां से भाग चला। किंतु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदी के किनारे उस व्याघ्र के पास बेरोकटोक चली गई। फिर तो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे इस अवस्था में देखकर बकरी बोली व्याघ्र तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीर से मांस निकालकर प्रेम पूर्वक खाओ ना। तुम इतनी देर से खड़े क्यों हो? तुम्हारे मन में मुझे खाने का विचार क्यों नहीं हो रहा है? व्याघ्र बोला- बकरी इस स्थान पर आते ही मेरे मन से द्वेष का भाव निकल गया। भूख प्यास भी मिट गई। इसलिए पास आने पर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता।
व्याघ्र के यों कहने पर बकरी बोली ना जाने मैं कैसे निर्भय हो गई हूं। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ। यह सुनकर व्याघ्र ने कहा मैं भी नहीं जानता चलो सामने खड़े हुए इन महापुरुष से पूछें ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहां से चल दिए।  उन दोनों के स्वभाव में यह विचित्र परिवर्तन देख कर मैं बहुत विस्मय में पड़ा था। इतने में ही उन्होंने मुझसे ही आकर प्रश्न किया। वहां वृक्ष की शाखा पर एक वानर राज था उन दोनों के साथ मैंने भी वानर राज से पूछा। विप्रवर ! मेरे पूछने पर वानर राज ने आदर पूर्वक कहा- अजापाल ! सुनो, इस विषय में मैं तुम्हें प्राचीन वृतांत सुनाता हूं। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बड़ा मंदिर है उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्मा जी का स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्व काल में यहां सुकर्मा नामक एक विद्वान महात्मा रहते थे, जो तपस्या में संलग्न होकर इस मंदिर में उपासना करते थे। वे वन में से फूलों का संग्रह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को स्नान कराकर उन्हीं से उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधना का कार्य करते हुए सुकर्मा यहां निवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप किसी अतिथि का आगमन हुआ। सुकर्मा ने भोजन के लिए फल लाकर अतिथि को अर्पण किया और कहा विद्वान मैं केवल तत्वज्ञान की इच्छा से भगवान शंकर की आराधना करता हूं। आज इस आराधना का फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुष ने मुझ पर अनुग्रह किया है। सुकर्मा के यह मधुर वचन सुनकर तपस्या के धनी महात्मा अतिथि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक शिलाखंड पर गीता का दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मण को उसके पाठ एवं अभ्यास के लिए आज्ञा देते हुए कहा ब्राह्मण इससे तुम्हारा आत्मज्ञान संबंधी मनोरथ अपने आप सफल हो जाएगा। यूं कह कर वे विद्वान तपस्वी सुकर्मा के सामने ही उनके देखते-देखते अंतर्ध्यान हो गए। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेश के अनुसार निरंतर गीता के द्वितीय अध्याय का अभ्यास करने लगे। तदनंतर दीर्घकाल के पश्चात अंतःकरण शुद्ध होकर उन्हें तत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई।  वे जहां जहां गए वहां वहां का तपोवन शांत हो गया। उनमें शीतोष्ण और राग द्वेष आदि की बाधाएं दूर हो गई इतना ही नहीं उन स्थानों में भूख प्यास का कष्ट भी जाता रहा तथा भय का सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्याय का जप करने वाले सुकर्मा ब्राह्मण की तपस्या का ही प्रभाव समझो।
मित्रवान कहता है- वानर राज के यू कहने पर में प्रसन्नता पूर्वक बकरी और बाघ के साथ उस मंदिर की ओर गया। वहां जाकर शिलाखंड पर लिखे हुए गीता के द्वितीय अध्याय को मैंने देखा और पढ़ा। उसी की आवृत्ति करने से मैंने तपस्या का पार पा लिया है। अतः भद्र पुरुष तुम भी सदा द्वितीय अध्याय की ही आवृत्ति किया करो ऐसा करने पर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।
श्रीभगवान कहते हैं- प्रिय ! मित्रवान के इस प्रकार आदेश देने पर देवशर्मा ने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरंदरपुर की राह ली। वहां किसी देवालय में पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्मा को पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तांत निवेदन किया। और सबसे पहले उन्हीं से द्वितीय अध्याय को पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अंतःकरण वाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धा के साथ द्वितीय अध्याय का पाठ करने लगे। तब से उन्होंने अनवद्य परम पद को प्राप्त कर लिया लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्याय का उपाख्यान कहा गया।

बुधवार, 13 जुलाई 2022

अथ श्रीमद्भगवद्गीता (प्रथमोऽध्याय:)

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अध्याय, सनातन धर्म में श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोच्च है। श्रीमद्भगवद्गीता का नित्य पाठ करने से मनुष्य मोह माया से मुक्त हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें क्या करना चाहिए यह सिखाती है।
            अथ प्रथमोऽध्याय
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।१।।
                  संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।२।।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।३।।
अत्र शूरा महेषवासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।४।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।५।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।६।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते।।७।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।८।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।९।।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।११।।
तस्य संजनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शखं दध्मौ प्रतापवान्।।१२।।
ततः शंखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।१३।।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।१४।।
पाच्ञन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।।१५।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।१६।।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्रो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।१७।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुःशंखान्दध्मुःपृथक् पृथक्।।१८।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।१९।।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।२०।।
।हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
                  अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽचृयुत।।२१।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।२२।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्र दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।२३।।
                  संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।२४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति।।२५।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।२६।।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोथपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान्।।२७।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
                अर्जुन उवाच
दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।२८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्मते।
न च शक़ोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।३०।।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।।
न काड्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।३२।।
येषामर्थे काडि्क्षतं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।३३।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।३४।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घन्तोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।३५।।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः ःः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।३६।।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धन्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३७।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।३८।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।३९।।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।४०।।
अधर्मीभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेंय जायते वर्णसंकरः।।४१।।
संकरो नरकायैव कुलन्घानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्मेषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।४२।।
दोषैरेतैः कुलन्घानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।४३।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।४४।।
अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।४६।।
                  संजय उवाच 
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।४७।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः।।१।।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

श्रीमद्भगवद्गीता प्रथम अध्याय (हिंदी अनुवाद)

धृतराष्ट्र बोले हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठा हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडू पांडू के पुत्रों ने क्या किया? ।१।
इस पर संजय बोले उस समय राजा दुर्योधन ने व्यू रचना युक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जा कर यह वचन कहा ।२।
हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान श्रेष्ठ द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडू पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए।३।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं जैसे सत्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।४।
और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशी राज, पुरुजित कुंतीभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य।५।
और पराक्रमी योधामन्यु तथा बलवान उत्तममौजा,  सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र यह सब ही महारथी हैं।६।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ हमारे पक्ष में भी जो जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए आपके जानने के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं उनको कहता हूं।७।
एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा। ८।
तथा और भी बहुत से शूरवीर  अनेक प्रकार के शस्त्र अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सब के सब युद्ध में चतुर हैं।९।
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है।१०।
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोगों सब के सब ही निसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। ११।
इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहकी नाद के समान गर्ज कर शंख बजाया।१२।
उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल मृदंग और नृसिंहादि बाजी एक साथ ही बजे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। १३।
उसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी आलौकिक शंख बजाए। १४।
उनमें श्री कृष्ण महाराज ने पाच्ञजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।१५।
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक शंख और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।१६।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखंडी और धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सत्यकि।१७।
तथा राजा द्रुपद और द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु इन सबने हे राजन ! अलग-अलग शंख बजाए।।१८।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिए। १९।
हे राजन ! उसके उपरांत कपिध्वज अर्जुन ने खड़े हुए धृतराष्ट्र पुत्रों को देखकर उस शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ऋषिकेश श्री कृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत ! मेरे रात को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए। २०-२१।
जब तक मैं इन स्थिर हुए युद्ध की कामना वालों को अच्छी प्रकार देख लूं कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है।२२।
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में कल्याण चाहने वाले जो जो यह राजा लोग इस सेना में आए हैं उन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।२३।
संजय बोले, हे धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए
 महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने और संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके ऐसे कहा कि हे पार्थ ! इन इकट्ठा हुए कौरवों को देख। २४-२५।
उसके उपरांत पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित हुए पिता के भाइयों को, पितामहोंको, आचार्योंको, मामों को, भाइयों को, मित्रों को, पुत्रों को तथा मित्रों को, ससुरो को और सुहृदों को भी देखा।२६।
इस प्रकार उन खड़े हुए संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे अत्यंत करुणा से युक्त हुए कुंती पुत्र अर्जुन शोक करते हुए यह बोले।२७।
हे कृष्ण ! इस युद्ध की इच्छा वाले खड़े हुए स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच होता है।२८-२९।
तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं।३०।
हे केशव ! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। ३१।
हे कृष्ण ! मैं विजय नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता हे गोविंद ! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।३२।
क्योंकि हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित है, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं।३३।
जो कि गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के और वैसे ही दादा, मामा, ससुर, पोते, साले तथा और भी संबंधी लोग हैं। ३४।
इसलिए हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीन लोक के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। ३५।
हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। ३६।
इससे हे माधव ! अपने बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।३७।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए यह लोग कुल के नाशकृत दोष को और मित्रों के साथ विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं।३८।
परंतु है जनार्दन ! कुल के नाश करने से होते हुए दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए।३९।
क्योंकि कुल के नाश होने से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश होने से संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दवा लेता है।४०।
तथा हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और हे वाष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।४१।
और वह वर्णसंकर कुल घातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। लोप हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। ४२।
और इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल घातियों के सनातन धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।४३।
तथा हे जनार्दन ! नष्ट हुए कुल धर्म वाले मनुष्यों का अनंत काल तक नर्क में वास होता है ऐसा हमने सुना है। ४४।
अहो ! शोक है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हुए हैं जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्धत हुए हैं। ४५।
यदि मुझे शस्त्र रहित ना सामना करने वालों को शस्त्र धारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारे तो वह मारना भी मेरे लिए अति कल्याण कारक होगा।४६।
संजय बोले कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए। ४७।


मंगलवार, 28 जून 2022

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य हिंदी में यह माहात्म्य पद्मपुराण के उत्तराखण्ड से लिया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का माहात्म्य
श्री पार्वती जी ने कहा- भगवन् ! आप सभी तत्वों के ज्ञाता हैं आपकी कृपा से मुझे श्री विष्णु संबंधी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोक का उद्धार करने वाले हैं। देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हूं जिसका श्रवण करने से श्रीहरि में भक्ति बढ़ती है।
श्री महादेव ने बोले - जिनका श्री विग्रह अलसी के फूल की भांति श्याम वर्ण का है, पक्षीराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महा विष्णु कि हम उपासना करते हैं। एक समय की बात है, मूर दैत्य के नाशक भगवान विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुख पूर्वक विराजमान थे। उस समय समस्त लोकों को आनंद देने वाली भगवती लक्ष्मी ने आदर पूर्वक प्रश्न किया।
श्री महालक्ष्मी जी ने पूछा - भगवन् ! आप संपूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं इसका क्या कारण है?
श्री भगवान बोले - सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूं अपितु तत्व का अनुसरण करने वाली अंतर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूं। देवि ! यह वही तेज है जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धि के द्वारा अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग शोक से रहित, अखंड आनंद का पुंज, निष्पन्द तथा द्वैतरहित है।
इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूं।
देवेश्वरी ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूं।
श्री लक्ष्मी जी ने कहा- ऋषिकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कुतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्व समर्थ हैं इस प्रकार की स्थिति में हो कर भी यदि आप उस परम तत्व से भिन्न है तो मुझे उसका बोध कराइए।
श्री भगवान बोले - प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अंत से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परम आनंद स्वरूप होने के कारण एकमात्र सुंदर है। वही मेरा ईश्वरीय रुप है। आत्मा का एकत्व ही सब के द्वारा जानने योग्य है। गीता शास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है।
अमित तेजस्वी भगवान विष्णु के यह वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करते हुए कहा - भगवन् ! यदि आप का स्वरूप स्वयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुंच से बाहर है तो गीता कैसे उस का बोध कराती है? मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिए।
श्री भगवान बोले - सुन्दरि ! सुनो मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूं। क्रमशः पांच अध्याय को तुम पांच मुख जानो, दस अध्याय को दस भुजाएं समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरण कमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वाड्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।
यह ध्यान मात्र से ही महान पातको का नाश करने वाली है। जो उत्तम बुद्धि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है।
श्री लक्ष्मी जी ने पूछा- देव ! सुशर्मा कौन था? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई?
श्री भगवान बोले - प्रिये ! सुशर्मा बड़ी छोटी बुद्धि का मनुष्य था। पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य एवं क्रूरता पुर्ण कर्म करने वाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था। वह ना ध्यान करता था ना जप, ना होम करता था ना अतिथियों का सत्कार।
वह लंपट होने के कारण विषयों के सेवन में ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने अपने जीवन काल का  दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन मूड बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिए किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था। इसी बीच में कॉल रूप धारी काले सांप ने उसे डस लिया। सुशर्मा की मृत्यु हो गई। तदनंतर वह अनेक नर्कों में जा वहां की यातनाएं भोगकर मृत्यु लोक में लौट आया और वहां वह बोझ ढोने वाला बैल हुआ। उस समय किसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिए उसे खरीद लिया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात - आठ वर्ष बिताए। एक दिन पंगु ने किसी ऊंचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया। इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्छित हो गया। उस समय वहां कोतुहल वश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गए। उस जन समुदाय में से किसी पुण्य आत्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिए उसे अपना पुण्य दान किया। तत्पश्चात कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने अपने पुण्यो को याद करके उन्हें उसके लिए दान किया। उस भीड़ में एक वैश्या भी खड़ी थी।
उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा देखी उस बैल के लिए कुछ त्याग किया।
तदनंतर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गए। वहां यह विचार कर कि यह वेश्या के दिए हुए पुण्य से पुण्यवान्  हो गया है, उसे छोड़ दिया गया। फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शीलवाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ।
उस समय भी उसे अपने पूर्व जन्म की बातों का स्मरण बना रहा। बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करने वाले कल्याण तत्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया। और उसके दान की बात  बतलाते हुए उसने पूछा- तुमने कौन सा पुण्य दान किया था? वेश्या ने उत्तर दिया- वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढता है। उससे मेरा अंतःकरण पवित्र हो गया है। उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिए दान किया था। इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा।
तब उस तोते ने अपने पूर्व जन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना प्रारंभ किया।
शुक बोला-- मैं विद्वान होकर भी विद्वता के अभिमान से मोहित रहता था। मेरा राग द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्या भाव रखने लगा। फिर समय अनुसार मेरी मृत्यु हो गई और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा। इसके बाद इस लोक में आया सद्गुरु की अत्यंत निंदा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ। पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया। एक दिन में ग्रीष्म ऋतु में तपे हुए मार्ग पर पड़ा था वहां से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाए और महात्माओं के आश्रम में एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वही मुझे पढ़ाया गया ऋषि यों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे। उन्हीं से सुनकर में भी बारंबार पाठ करने लगा। इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेलिए ने  मुझे वहां से चुरा लिया। तत्पश्चात इस देवी ने मुझे खरीद लिया। यही मेरा वृतांत है जिसे मैंने आप लोगों से बता दिया। पूर्व काल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था जिससे मैंने अपने पाप को दूर किया है। फिर उसी से इस वैश्या का भी अंतःकरण शुद्ध हुआ है। और उसी के पुण्य से यह द्विज श्रेष्ठ सुशर्मा भी पाप मुक्त हुए हैं। इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीता के प्रथम अध्याय के माहत्म्य  की प्रशंसा करके वे तीनों निरंतर अपने अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे। फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गए। इसलिए जो गीता के प्रथम अध्याय को पड़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है उसे इस भवसागर को पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती।

सोमवार, 27 जून 2022

रामचरितमानस में कुल कितने दोहे है?

नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपको श्री रामचरितमानस के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं आशा है आपको जरूर पसंद आएगी।
रामचरितमानस में कुल कितने दोहे हैं?
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में कुल १०७४(1074)
दोहे हैं।
रामचरितमानस में कुल कितने अध्याय है?
रामचरितमानस में कुल कितने काण्ड हैं?
श्रीरामचरितमानस में कुल सात काण्ड (अध्याय) है।
बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड,लंकाकाण्ड,
उत्तरकाण्ड,
बालकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
बालकाण्ड में कुल ३६१(361) दोहे हैं।
अयोध्याकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
अयोध्याकाण्ड में कुल ३२६(326) दोहे हैं।
अरण्यकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
अरण्यकाण्ड में कुल ४६(46) दोहे हैं।
किष्किन्धाकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
किष्किन्धाकाण्ड में कुल ३०(30) दोहे हैं।
सुन्दरकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
सुन्दरकाण्ड में कुल ६०(60) दोहे हैं।
लंकाकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
लंकाकांड में कुल १२१(121) दोहे हैं।
उत्तरकाण्ड में कुल कितने दोहे हैं?
उत्तरकाण्ड में कुल १३०(130) दोहे हैं।
रामचरितमानस की प्रथम चौपाई कौन सी है?
बंदउॅ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू।।
अर्थ- गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूं जो सुरुचि सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पुर्ण हैं। वह अमर मूल का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करने वाला है।
रामचरितमानस में कुल कितने श्लोक है?
रामचरितमानस में कुल २७(27) श्लोक हैं।
रामचरितमानस में कुल कितनी चौपाईयां है?
रामचरितमानस में कुल ४६०८ चौपाईयां है
रामचरितमानस में कुल कितने सोरठा है?
रामचरितमानस में कुल २०७ सोरठा है
रामचरितमानस में कुल कितने छंद है?
रामचरितमानस में कुल ८६ छंद है
रामचरितमानस में राम शब्द कितनी बार आया है?
रामचरितमानस में राम शब्द १४४३ बार आया है
रामचरितमानस में सीता शब्द कितनी बार आया है?
रामचरितमानस में सीता शब्द १४७ बार आया है।
रामचरितमानस में जानकी शब्द कितनी बार आया है?
रामचरितमानस में जानकी शब्द ६९ बार आया है।
रामचरितमानस में बैदेही शब्द कितनी बार आया है?
रामचरितमानस में बैदेही शब्द ५१ बार आया है 


रविवार, 26 जून 2022

किष्किन्धाकाण्ड-अर्थ-सहित-Kishkindhakand-In-hindi-Arth-Sahit

नमस्कार साथियों आज हम आपके लिए लेकर आए हैं श्रीरामचरितमानस का चतुर्थ सोपान किष्किन्धाकाण्ड हिंदी अर्थ सहित,
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस के चतुर्थ सोपान किष्किन्धाकाण्ड मैं कुल ३० दोहा है।
                 विषय सूची
* मंगलाचरण,
*श्रीरामजी से हनुमान जी का मिलना और रामजी सुग्रीव की मित्रता,
*सुग्रीव का दुःख सुनना, बालि वध की प्रतिज्ञा,
*श्रीरामजी का मित्र लक्षण वर्णन
* सुग्रीव का वैराग्य
* बालि-सुग्रीव-युध्द, बालि-उद्धार
* तारा का विलाप, तारा को श्री राम जी द्वारा उपदेश और सुग्रीव का राज्याभिषेक तथा अंगद को युवराज पद
* वर्षा-ऋतु-वर्णन
*शरद्-ऋतु-वर्णन
*श्रीरामजी की सुग्रीव पर नाराज़गी, लक्ष्मण जी का कोप
*सुग्रीव राम संवाद और सीताजी की खोज में बंदरों का प्रस्थान
* गुफा मै तपस्विनी के दर्शन
* वानरों का समुंदतट पर पहुंचना, सम्पाती से भेंट और बातचीत
*समुद्र लांघने का परामर्श, जामवंत का हनुमान जी को बल याद दिलाकर उत्साहित करना
*श्रीरामगुण का माहात्म्य
               ।।श्री गणेश नमः।।
                  चतुर्थ सोपान
              किष्किन्धाकाण्ड
                      श्लोक
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढयौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सध्दर्मवमौं हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि न:।।१।।
कुंद पुष्प और नील कमल के समान सुंदर गौर एवं श्याम वर्ण अत्यंत बलवान विज्ञान के धाम शोभा संपन्न श्रेष्ठ धनुर्धर वेदों के द्वारा वन्दित गौ एवं ब्राह्मणों के समूह के प्रिय माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए श्रेष्ठ धर्म के लिए कवच स्वरूप सबके हितकारी श्री सीता जी की खोज में लगे हुए पथिक रूप रघुकुल के श्रेष्ठ श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी दोनों भाई निश्चय ही हमें भक्तिप्रद हों।
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिन: पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्।।२।।
बे सुकृति धन्य है जो वेद रूपी समुद्र से उत्पन्न हुए कलयुग के मल को सर्वथा नष्ट कर देने वाले, अविनाशी, भगवान श्री शंभू के सुंदर एवं श्रेष्ठ मुखरूपी चंद्रमा में सदा शोभायमान, जन्म मरण रूपी रोग के औषध, सब को सुख देने वाले और श्री जानकी जी के जीवन स्वरूप श्री राम नाम रूपी अमृत का निरंतर पान करते रहते हैं।
सो०- मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर।
जहॅ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न।।
जहां श्री शिव पार्वती बसते हैं, उस काशी को मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और पापों का नाश करने वाली जानकर उसका सेवन क्यों ना किया जाए?
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस।।
जिस भीषण हलाहल विष से सब देवता गण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया रे मंद मन ! तू उन शंकर जी को क्यों नहीं भजता उनके समान कृपालु कौन है?
आगे चले बहुरि रघुराया।
रिष्यमूक पर्बत निअराया।।
तहॅ रह सचिव सहित सुग्रीवा।
आवत देख अतुल बल सींवा।।
श्री रघुनाथ जी फिर आगे चले ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहां मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को आते देख कर-
अति सभीत कह सुनु हनुमाना।
पुरुष जुगल बल रूप निधाना।।
धरि बटु रूप देखु तैं जाई।
कहेसु जानि जियॅ सयन बुझाई।।
सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले हे हनुमान ! सुनो यह दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझा कर कह देना।
पठए बालि होहिं मन मैला।
भागौं तुरत तजौ यह सैला।।
बिप्र रूप धरि कपि तहॅ गयऊ।
माथ नाइ पूछत अस भयऊ।।
यदि वे मन के मलिन बालि के भेजे हुए हो तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊं हनुमान जी ब्राह्मण का रूप धर कर वहां गए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे-
को तुम स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा।।
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।।
हे वीर ! सांवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो छत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी ! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण बन में विचर रहे हैं?
मृदुल मनोहर सुंदर गाता।
सहत दुसह बन आतप बाता।।
की तुम्ह तीनि देव महॅ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ।।
मन को हरण करने वाले आपके सुंदर, कोमल अंग है, और आप वन के दु:सह धूप और वायु को सह रहे। क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवताओं में से कोई है या आप दोनों नर और नारायण हैं।
दो०- जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।।१।।
अथवा आप जगत के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?
कोसलेस दसरथ के जाए।
हम पितु बचन मानि बन आए।।
नाम राम लछिमन दोउ भाई।
संग नारि सुकुमारि सुहाई।।
हम कौसल राज दशरथ जी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आये हैं। हमारे राम लक्ष्मण नाम है, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी।
इहाॅ हरि निसचर बैदेही।
बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही।।
आपन चरित कहा हम गाई।
कहहु बिप्र निज कथा बुझाई।।
यहां राक्षस ने जानकी को हर लिया है। हे ब्राह्मण ! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया अब हे ब्राह्मण ! अपनी कथा समझा कर कहिये।
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।
सो सुख उमा जाइ नहिं बरना।।
पुलकित तन मुख आव न बचना।
देखत रुचिर बेष कै रचना।।
प्रभु को पहचान कर हनुमान जी उनके चरण पकड़ कर पृथ्वी पर गिर पड़े हे पार्वती ! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख देख रहे हैं।
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही।
हरष हृदयॅ निज नाथहि चीन्ही।।
मोर न्याउ मैं पूछा साई।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाई।।
फिर धीरज धरकर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। हे स्वामी ! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं ?
तव माया बस फिरउॅ भुलाना।
ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।।
मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूं, इसी से मैंने अपने स्वामी को नहीं पहचाना।
दो०- एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।२।।
एक तो मैं यूं ही मंद हूं, दूसरे मोह के वश में हूं, तीसरे ह्रदय का कुटिल और अज्ञान हूं, फिर हे दीनबंधु भगवान ! प्रभु ने भी मुझे भुला दिया।
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें।।
नाथ जीव तव मायाॅ मोहा।
सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा।।
हे नाथ यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में ना पड़े हे नाथ ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है।
ता पर मैं रघुबीर दोहाई।
जानउॅ नहिं कछु भजन उपाई।।
सेवक सुत पति मातु भरोसें।
रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें।।
उस पर हे रघुवीर ! मैं आपकी दुहाई करके कहता हूं कि मैं भजन साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन पोषण करते ही बनता है।
अस कहि परेउ चरन अकुलाई।
निज तन प्रगटि प्रीति उर छाई।।
तब रघुपति उठाइ उर लावा।
निज लोचन जल सींचि जुडावा।।
ऐसा कहकर हनुमान जी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्री रघुनाथ जी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया।
सुनु कपि जियॅ मानसि जनि ऊना।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना।।
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ।।
हे कपि सुनो मन में ग्लानी मत मानना तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं पर मुझको सेवक प्रिय है क्योंकि वह अनन्य गति होता है।
दो०- सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत।।३।।
और हे हनुमान ! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूं और यह चराचर जगत मेरे स्वामी भगवान का रूप है।
देखि पवनसुत पति अनुकूला।
हृदयॅ हरष बीती सब सूला।।
नाथ सैल पर कपिपति रहई।
सो सुग्रीव दास तव अहई।।
स्वामी को अनुकूल देखकर पवनकुमार हनुमान जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुख जाते रहे। हे नाथ ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता है वह आपका दास है।
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे।
दीन जान तेहि अभय करीजे।।
सो सीता कर खोज कराइहि।
जहॅ तहॅ मरकट कोटि पठाइहि।।
हे नाथ ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिये। वह सीता जी की खोज करा देगा और जहां-तहां करोड़ों वानरों को भेजेगा।
एहि बिधि सकल कथा समुझाई।
लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाईं।।
जब सुग्रीव राम कहुॅ देखा।
अतिसय जन्म धन्य करि लेखा।।
इस प्रकार सब बातें समझा कर हनुमान जी ने दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव ने श्री रामचंद्र जी को देखा तो अपने जन्म को अत्यंत धन्य समझा।
सादर मिलेउ नाइ पद माथा।
भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा।।
कपि कर मन बिचार एहि रीती।
करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती।।
सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। श्री रघुनाथ जी भी छोटे भाई सहित उनसे गले लग कर मिले। सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता ! क्या यह मुझसे प्रीति करेंगे?।
दो०- तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरि प्रीति दृढाइ।।४।।
तब हनुमान जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी।
कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा।
लछिमन राम चरित सब भाषा।।
कह सुग्रीव नयन भरि बारी।
मिलिहि नाथ मिथलेसकुमारी।।
दोनों ने प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मण जी ने श्री रामचंद्र जी का सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहां हे नाथ ! मिथिलेश कुमारी जानकी जी मिल जाएंगी।
मंत्रिन्ह सहित इहाॅ एक बारा।
बैठ रहेउॅ मैं करत बिचारा।।
गगन पंथ देखी मैं जाता।
परबस परी बहुत बिलपाता।।
मैं एक बार यहां मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराये के बस में पड़ी हुई बहुत विलाप करती हुई सीता जी को आकाश मार्ग से जाते देखा था।
राम राम हा राम पुकारी।
हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी।।
मागा राम तुरत तेंहि दीन्हा।
पट उर लाइ सोच अति कीन्हा।।
हमें देखकर उन्होंने 'राम ! राम ! हा राम ! पुकार कर वस्त्र गिरा दिया था। श्री राम जी ने उसे मांगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर श्री रामचंद्र जी ने बहुत ही सोच किया।
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
तजहु सोच मन आनहु धीरा।।
सब प्रकार करिहउॅ सेवकाई।
जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई।।
सुग्रीव ने कहा हे रघुवीर ! सुनिए, सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूंगा, जिस उपाय से जानकी जी आकर आपको मिले।
दो०- सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव।।५।।
कृपा के समुद्र और बल की सीमा श्री राम जी शाखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए। हे सुग्रीव ! मुझे बताओ तुम वन में किस कारण रहते हो ?
नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई।
प्रीति रहि कछु बरनि न जाई।।
मयसुत मायावी तेहि नाऊॅ।
आवा सो प्रभु हमरें गाऊॅ।।
हे नाथ ! बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभु ! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था एक बार वह हमारे गांव में आया।
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा।
बाली रिपु बल सहइ न पारा।।
धावा बालि देखि सो भागा।
मैं पुनि गयउॅ बंधु संग लागा।।
उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर पुकारा। बालि शत्रु के वल को सह नहीं सका। वह दौड़ा उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग लगा चला गया।
गिरिबर गुहाॅ पैठ सो जाई।
तब बालीं मोहि कहा बुझाई।।
परिखेसु मोहि एक पखवारा।
नहिं आवौ तब जानेसु मारा।।
वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझा कर कहा तुम एक पखवाड़े तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनों में ना आऊं तो जान लेना कि मैं मारा गया।
मास दिवस तहॅ रहउॅ खरारी।
निसरी  रुधिर धार तहॅ भारी।
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई।
सिला देइ तहॅ चलेउॅ पराई।।
हे खरारी ! मैं वहां महीने भर तक रहा। वहां रक्त की बड़ी भारी धारा निकली। तब उसने बालि को मार डाला, अब आ कर मुझे मारेगा। इसलिए मैं वहां एक शिला लगाकर भाग आया।
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साई।
दीन्हेउ मोहि राज बरिआई।।
बाली ताहि मारि गृह आवा।
देखि मोहि जियॅ भेद बढ़ावा।।
मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी का देखा तो मुझको जबरजस्ती राज्य दे दिया बालि उसे मार कर घर आ गया मुझे देखकर उसने जी में भेद बढ़ाया।
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी।
हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी।।
ताकें भय रघुबीर कृपाला।
सकल भुवन मैं फिरेउॅ बिहाला।।
उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया। हे कृपालु ! रघुवीर मैं उसके भाय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा।
इहाॅ साप बस आवत नाहीं।
तदपि सभीत रहउॅ मन माहीं।।
सुनि सेवक दुख दीनदयाला।
फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला।।
वह शाप के कारण यहां नहीं आता तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूं। सेवक का दुख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथ जी की दोनों विशाल भुजाएं फड़क उठी।
दो०- सुनु सुग्रीव मारिहउॅ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएं न उबरिहिं प्रान।।६।।
हे सुग्रीव ! सुनो मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूंगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण ना बचेंगे।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुखों को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को  सुमेरू के समान जाने।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।।
जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हट करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करें और अवगुणों को छिपावे।
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
देने लेने में मन में शंका ना रखें अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे विपत्ति के समय में तो सदा सौ गुना स्नेह करें। वेद कहते हैं कि संत मित्र के गुण यह हैं।
आगें कह मृदु बचन बनाई।
पाछे अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।
जो सामने तो बना बना कर कोमल वचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है हे भाई ! जिसका मन सांप की चल के समान टेढ़ा है, ऐसे को मित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी।।
सखा सोच त्यागहु बल मोंरे।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री, और कपटी मित्र यह चारों शूल के समान है हे सखा ! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊंगा।
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
बालि महाबल अति रनधीरा।।
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए।
बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।
सुग्रीव ने कहा हे रघुवीर ! सुनिए बालि महान बलवान और अत्यंत रणधीर है फिर सुग्रीव ने श्री राम जी को दुंदुभी राक्षस की हड्डियां और ताल के वृक्ष दिखलाए श्री रघुनाथ जी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के ढहा दिया। 
देखि अमित बल बाढी प्रीती।
बालि बधब इन्ह भइ परतीती।।
बार बार नावइ पद सीसा।
प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा।।
श्री राम जी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि यह बालि का वध अवश्य करेंगे वे बार-बार चरणों में सिर नवाने  लगे।
 प्रभु को पहचान कर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे।
उपाजा ग्यान बचन तब बोला।
नाथ कृपाॅ मन भयउ अलोला।।
सुख संपति परिवार बड़ाई।
सब परिहरि करिहउॅ सेवकाई।।
जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे यह वचन बोले की हे नाथ ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बढ़ाई सब को त्याग कर मैं आपकी सेवा ही करूंगा।
ए सब रामभगति के बाधक।
कहहि संत तव पद अवराधक।।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।
मायाकृत परमारथ नाहीं।।
क्योंकि आपके चरणों की आराधना करने वाले संत कहते हैं कि यह सब राम भक्ति के विरोधी हैं। जगत में जितने भी शत्रु मित्र और सुख दुख हैं सब के सब माया रचित हैं परमार्थत: नहीं है।
बालि परम हित जासु प्रसादा।
मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।।
सपनें जेहि सन होइ लराई।
जागे समुझत मन सकुचाई।।
हे श्री राम जी ! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले, और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझ कर मन में संकोच होगा।
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाॅती।
सब तजि भजनु करौं दिन राती।।
सुनि बिराग संजुत कपि बानी।
बोले बिहॅसि रामु धनुपानी।।
हे प्रभु ! आप तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन रात में आप का भजन ही करूं सुग्रीव की वैराग्य युक्त वाणी सुनकर हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री राम जी मुस्कुरा कर बोले।
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई।
सखा बचन मम मृषा न होई।।
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस वेद अस गावत।।
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है, परंतु हे सखा ! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता हे पक्षियों के राजा गरुड़ ! नट के बंदर की तरह श्री राम जी सब को नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं।
लै सुग्रीव संग रघुनाथा।
चले चाप सायक गहि हाथा।।
तब रघुपति सुग्रीव पठावा।
गर्जेसि जाइ निकट बल पावा।।
तदनंतर सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष बाण धारण करके श्री रघुनाथ जी चले। तब श्री रघुनाथ जी ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह श्री राम जी का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा।
सुनत बालि क्रोधातुर धावा।
गहि कर चरन नारि समुझावा।।
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा।
ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।
बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़ कर उसे समझाया कि हे नाथ ! सुनिए सुग्रीव जिन से मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा है।
कोसलेस सुत लछिमन रामा।
कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।
वे कोसलाधीश दशरथ जी के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं।
दो०- कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउॅ सनाथ।।७।।
बालि ने कहा हे भीरू प्रिय ! सुनो श्री रघुनाथ जी समदर्शी हैं। जो कदाचित वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊंगा।
अस कहि चला महा अभिमानी।
तृन समान सुग्रीवहि जानी।।
भिरे उभौ बाली अति तर्जा।
मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।।
कहकर वह महान अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घुसा मार कर बड़े जोर से गर्जा।
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।।
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला।
बंधु न होइ मोर यह काला।।
तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा घुसे की चोट उसे वज्र के समान लगी। हे कृपालु रघुवीर ! मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है काल है।
एक रूप तुम भ्राता दोऊ।
तेहि भ्रम तें मारा नहिं सोऊ।।
कर परसा सुग्रीव सरीरा।
तनु भा कुलिस गई सब पीरा।।
तुम दोनों भाइयों का एक सा ही रूप है इसी भ्रम से मैंने उसको नहीं मारा। श्री राम जी ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही।
मेली कंठ सुमन कै माला।
पठवा पुनि बल देइ बिसाला।।
पुनि नाना बिधि भई लराई।
बिटप ओट देखहिं रघुराई।।
तब श्री राम जी ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी और उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनों में पुनः अनेक प्रकार से युद्ध हुआ श्री रघुनाथ जी वृक्ष की आड़ से देख रहे थे।
दो०- बहु छल बल सुग्रीव कर हियॅ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि।।८।।
सुग्रीव ने बहुत से छल बल किए किंतु वह भय मानकर ह्रदय से हार गया। तब श्री राम जी ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा।
परा बिकल महि सर के लागें।
पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे।।
स्यामल गात सिर जटा बनाएं।
अरुन नयन सर चाप चढ़ाएं।।
बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। किंतु प्रभु श्री रामचंद्र जी को आगे देख कर वह फिर उठ बैठा।   भगवान का श्याम शरीर, है सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिए हैं और धनुष चढ़ाए हैं।
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा।
सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा।।
हृदय प्रीति मुख बचन कठोरा।
बोला चिताइ राम की ओरा।।
बालि ने बार-बार भगवान की ओर देखकर चित्त को उनके चरणों में लगा दिया। प्रभु को पहचान कर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदय में प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे। वह श्री राम जी की ओर देखकर बोला।
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई।
मारेहु मोहि ब्याध की नाई।।
मैं बेरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
हे गोसाई ! आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह मारा ? मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा ?
अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई।।
हे मूर्ख सुन छोटे भाई की स्त्री, बहन, पुत्र की स्त्री और कन्या यह चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना।
नारि सिखावन करसि न काना।।
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी।
मारा चहसि अधम अभिमानी।।
हे मूढ़ ! तुझे अत्यंत अभिमान है। तूने अपनी स्त्री की सीख पर भी कान नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम ! अभिमानी तूने उसको मारना चाहा।
दो०- सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूॅ मैं पापी अंतकाल गति तोरि।।९।।
हे राम जी ! सुनिए स्वामी से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभु ! अंतकाल में आप की गति पाकर मैं अब भी पापी ही रहा।
सुनत राम अति कोमल बानी।
बालि सीस परसेउ निज पानी।।
अचल करौ तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपा निधाना।।
बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री राम जी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूं, तुम प्राणों को रखो। बाली ने कहा हे कृपानिधान ! सुनिए
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं।।
जासु नाम बल संकर कासी।
देत सबहि सम गति अबिनासी।।
मुनिगण जन्म जन्म में साधन करते रहते हैं फिर भी अंतकाल में उन्हें 'राम' नहीं कह आता जिनके नाम के बल से शंकर जी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति देते हैं।
मम लोचन गोचर सोइ आवा।
बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।।
वह श्री राम जी स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभु ! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा ?
छं०- सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुॅक पावहीं।।
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही।।
श्रुतियाॅ नेति-नेति कहकर निरंतर जिन का गुणगान करती रहती है, तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इंद्रियों को नीरस बनाकर मुनि गण ध्यान में जिनकी कभी क्वचित् ही झलक पाते हैं, वही प्रभु साक्षात मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यंत अभिमान बस जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो परंतु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हट पूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूल के बाड लगावेगा।
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊॅ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहॅ राम पद अनुरागऊॅ।।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाॅह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ।।
हे नाथ ! अब मुझ पर दया दृष्टि कीजिए और मैं जो वर मांगता हूं उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूं, वही श्री राम जी के चरणों में प्रेम करू हे कल्याण प्रद प्रभु ! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और मनुष्यों के नाथ ! बांह पकड़ कर इसे अपना दास बनाइए।
दो०- राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।।१०।।
श्री राम जी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना ना जाने।
राम बालि निज धाम पठावा।
नगर लोग सब ब्याकुल धावा।।
नाना बिधि बिलाप कर तारा।
छूटे केस न देह सॅभारा।।
श्री रामचंद्र जी ने बालि को अपने परमधाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्रकार से विलाप करने लगी। उसके बाल बिखरे हुए हैं और देह की संभाल नहीं है।
तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन ग्यान हरि लीन्ही माया।।
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा।।
तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथ जी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया हर ली पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है।
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर मागी।।
वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो ? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया तब वह भगवान के चरणों में लगी और उसने परम भक्ति का वर मांग लिया।
उमा दारु जोषित की नाई।
सबहि नचावत राम रामु गोसाई।।
तब सुग्रीवहि आयुस दीन्हा।
मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा।।
हे उमा ! स्वामी श्री राम जी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। तदनंतर श्री राम जी ने सुग्रीव को आज्ञा दी और सुग्रीव ने विधिपूर्वक बालिका सब मृतक कर्म किया।
राम कहा अनुजहि समुझाई।
राज देहु सुग्रीवहि जाई।।
रघुपति चरन नाइ करि माथा।
चले सकल प्रेरित रघुनाथा।।
तब श्री रामचंद्र जी ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझा कर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। श्री रघुनाथ जी की प्रेरणा से सब लोग श्री रघुनाथ जी के चरणों में मस्तक नवाकर चले।
दो०- लछिमन तुरत बोलाए पुरजन ब्रिप समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहॅ अंगद कहॅ जुबराज।।११।।
लक्ष्मण जी ने तुरंत ही सब नगर वासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया।
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाही।।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।।
हे पार्वती ! जगत में श्री राम जी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं।
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती।
तन बहु ब्रन चिंताॅ जर छाती।।
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ।
अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ।।
जो सुग्रीव दिन रात बालि के भय से व्याकुल रहता था, जिसके शरीर में बहुत से घाव हो गए थे और जिसकी छाती चिंता के मारे जला करती थी, उसी सुग्रीव को उन्होंने वानरों का राजा बना दिया। श्री रामचंद्र जी का स्वभाव अत्यंत ही कृपालु है।
जानतहूॅ अस प्रभु परिहरहीं।
काहे न बिपति जाल नर परहीं।।
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई।
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई।।
जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों ना विपत्ति के जाल में फंसे फिर श्री राम जी ने सुग्रीव को बुला लिया और बहुत प्रकार से उन्हें राजनीति की शिक्षा दी।
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा।
पुर न जाउॅ दस चारि बरीसा।।
गत ग्रीषम बरषा रितु आई।
रहिहउॅ निकट सैल पर छाई।।
फिर प्रभु ने कहा हे वानरपति सुग्रीव ! सुनो में चौदह वर्ष तक गांव में नहीं जाऊंगा। ग्रीष्म ऋतु बीतकर  वर्षा ऋतु आ गई। अतः मैं यहां पास ही पर्वत पर टिक रहूंगा।
अंगद सहित करहु तुम राजू।
संतत हृदयॅ धरेहु मम काजू।।
जब सुग्रीव भवन फिरि आए।
रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।।
तुम अंगद सहित राज्य करो। मेरे काम का ह्रदय में सदा ध्यान रखना।  तदन्तर जब सुग्रीव जी घर लौट आए तब श्री राम जी प्रवर्षणपर्वत पर जा टिके।
दो०- प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करिहिंगे आइ।।१२।।
देवताओं ने पहले से ही उस पर्वत की एक गुफा को सुंदर बना रखा था। उन्होंने सोच रखा था कि कृपा की खान श्री राम जी कुछ दिन यहां आ कर निवास करेंगे।
सुंदर बन कुसमित अति सोभा।
गुंजत मधुप निकर मधु लोभा।।
कंद मूल फल पत्र सुहाए।
भए बहुत जब ते प्रभु आए।।
सुंदर वन फुला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए हैं तब से वन में सुंदर कंद, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई।
देखि मनोहर सैल अनूपा।
रहे तहॅ अनुज सहित सुरभूपा।।
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा।
करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा।।
मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट श्री राम जी छोटे भाई सहित वहां रह गए। देवता, सिद्ध, और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे।
मंगलरूप भयउ बन तब ते।
कीन्ह निवास रमापति जब ते।।
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई।
सुख आसीन तहाॅ द्वौ भाई।।
जब से रमापति श्री राम जी ने वहां निवास किया तब से वन मंगलस्वरूप हो गया। सुंदर  स्फटिक मणि की एक अत्यंत उज्जवल सिला है उस पर दोनों भाई सुख पूर्वक विराजमान है।
कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरति नृपनीति बिबेका।।
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए।।
श्री राम जी छोटे भाई लक्ष्मण जी से भक्ति, वैराग्य ,राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएं कहते हैं वर्षा काल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं।
दो०- लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरतिरत हरष जस बिष्नुभगत कहुॅ देखि।।१३।।
हे लक्ष्मण! देखो मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णु भक्त को देखकर हर्षित होते हैं।
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन मन डरपत मोरा।।
दामिनि दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
आकाश में बादल घुमड़-घुमड़ कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।
बरषहिं जलद भूमि निअराएं।
जथा नवहिं ंं बुध बिद्या पाएं।।
बूॅद अघात सहहिं गिरि कैसें।
खल के बचन संत सह जैसें।।
बादल पृथ्वी के समीप आकर बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान नंम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्ट के वचन संत सहते हैं।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई।
जस थोरेहुॅ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहि माया लपटानी।।
छोटी नदियां भरकर किनारो को  तोडते हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। पृथ्वी पर पढ़ते ही पानी गदला हो गया है जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो।
समिट समिट जल भरहिं तलावा।
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।
सरिता जल जलनिधि महुॅ जाई।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।।
जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्रीहरि को पाकर अचल हो जाता है।
दो०- हरित भूमि तृन संकुल समुझ परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।।१४।।
पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरि हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से सद ग्रंथ गुप्त हो जाते हैं।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढहिं जनु बटु समुदाई।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका।।
चारों दिशाओं में मेढकों की ध्वनी ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हो। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक प्राप्त होने पर हो जाता है।
अर्क जवास पात बिनु भयऊ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुॅ मिलइ नहिं धूरी।
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।
मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है।
ससि संपन्न सोह महि कैसी।
उपकारी कै संपति जैसी।।
निसि तम घन खद्योत बिराजा।
जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।
अन्न से युक्त पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, 
मानो दंभीयों का समाज आ जुटा हो।
महाबृष्टि चलि फूटि किआरी।
जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारी।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।
भारी वर्षा से खेतों की क्यारियां फूट चली है, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियां बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियॅ उपज न कामा।।
चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं, जैसे कलयुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। उसर में वर्षा होती है, पर वहां घास तक नहीं उगती। जैसे हरि भक्तों के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।
जहॅ तहॅ रहे पथिक थकि नाना।
जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।
पृथ्वी अनेक तरह के जीवो से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहां तहां अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियां।
दो०- कबहुॅ प्रबल बह मारुत जहॅ तहॅ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।१५(क)।।
कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म नष्ट हो जाते हैं।
कबहुॅ दिवस महॅ निबिड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।१५(क)।।
कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।
बरसा बिगत सरद रितु आई।
लछिमन देखहु परम सुहाई।।
फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।।
देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई मानो वर्षा ऋतु ने अपना बुढ़ापा प्रगट किया है।
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।।
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा।।
अगस्त्य की तारे ने उदय होकर मार्ग में जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का ह्रदय।
रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी।।
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।
नदी और तालाब का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं।
पंक न रेनु सोह असि धरनी।
नीति निपुन नृप कै जस करनी।।
जल संकोच बिकल भइॅ मीना।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना।।
इससे धरती ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीति निपुण राजा की करनी ! जल के कम हो जाने से मछलियां व्याकुल हो रही है, जैसे मूर्ख कुटुंबी धन के बिना व्याकुल होता है।
बिनु घन निर्मल सोह अकासा।
हरिजन इव परिहरि सब आसा।।
कहुॅ कहुॅ बृष्टि सारदी थोरी।
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी।।
बिना बादलों का निर्मला आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवत भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं शरद ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं।
दो०- चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि।।१६।।
राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारो आश्रम वाले श्रमों को त्याग देते हैं।
सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा।।
फूलें कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भए जैसा।।
जो मछलियां अथाह जल में है, वे सुखी है, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहे हैं जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है।
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा।
सुंदर खग रव नाना रूपा।।
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी।
जिमि दुर्जन पर संपति देखी।।
भौंरें अनुपम शब्द करते हुए गूंज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर  चकवे के मन में वैसे ही दुख हो रहा है जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है।
चातक रटत तृषा अति ओही।
जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही।।
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई।।
पपीहा रट लगाए हैं, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकर जी का द्रोही सुख नहीं पाता। शरद ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं।
देखि इंदु चकोर समुदाई।
चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई।।
मसक दंस बीते हिम त्रासा।
जिमि द्विज द्रोह किएं कुल नासा।।
चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए है, जैसे भगवत भक्त भगवान को पाकर उनके दर्शन करते हैं। मच्छर और डांस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए हैं, जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है।
दो०- भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ।।१७।।
पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे वे शरद ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं।
बरसा गत निर्मल रितु आई।
सुधि न तात सीता कै पाई।।
एक बार कैसेहुॅ सुधि जानौं।
कालहु जीति निमिष महुॅ आनौं।।
वर्षा बीत गई निर्मल शरद ऋतु आ गई। परंतु हे तात ! सीता की कोई खबर नहीं मिली एक बार कैसे भी पता पाऊं तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊं।
कतहुॅ रहउ जौं जीवति होई।
तात जतन करि आनउॅ सोई।।
सुग्रीवहुॅ सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोस पुर नारी।।
कहीं भी रहे यदि जीती होंगी तो हे तात !  यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊंगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुधि भुला दी।
जेहिं सायक मैं मारा बालि।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहॅ काली।।
जासु कृपाॅ छूटहिं मद मोहा।
ता कहुॅ उमा कि सपनेहुॅ कोहा।।
जिस बाण से मैंने  बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूॅ ! हे उमा ! जिसकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं, उसको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है।
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी।
जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी।।
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना।
धनुष चढाइ गहे कर बाना।।
ज्ञानी मुनि जिन्होंने श्री रघुनाथ जी के चरणों में प्रीति मान ली है।
वही इस चरित्र को जानते हैं लक्ष्मण जी ने जब प्रभु को क्रोध युक्त जाना तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए।
दो०- तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।।१८।।
तब दया की सीमा श्री रघुनाथ जी ने छोटे भाई लक्ष्मण जी को समझाया कि हे तात ! सुग्रीव को केवल भय दिखला कर ले आओ।
इहाॅ पवनसुत हृदयॅ बिचारा।
राम काजु सुग्रीव बिसारा।।
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा।
चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।।
यहां पवन कुमार श्री हनुमान जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री राम जी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में शीश नवाया चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।
सुनि सुग्रीव परम भय माना।
बिषयॅ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना।।
अब मरुतसुत दूत समूहा।
पठवहु जहॅ तहॅ बानर जूहा।।
हनुमान जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवनसुत ! जहां-तहां वानरों के यूथ रहते हैं वहां दूतों के समूह को भेजो।
कहहु पाख महुॅ आव न जोई।
मोंरे कर ता कर बध होई।।
तब हनुमंत बोलाए दूता।
सब कर करि सनमान बहूता।।
और कहला दो कि एक पखवाड़े में जो ना आ जाएगा, उसका मेरे हाथों वध होगा तब हनुमानजी ने दूतों को बुलाया और सब का बहुत सम्मान करके-।
भय अरु प्रीति नीति देखराई।
चले सकल चरनन्हि सिरु नाई।।
एहि अवसर लछिमन पुर आए।
क्रोध देखि जहॅ तहॅ कपि धाए।।
सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवा कर चले। इसी समय लक्ष्मण जी नगर में आए। उनका क्रोध देखकर बंदर जहां-तहां भागे।
दो०- धनुष चढाइ कहा तब जारि करउॅ पुर छार।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार।।१९।।
तदनंतर लक्ष्मण जी ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूंगा। तब नगर भर को व्याकुल देखकर बाली पुत्र अंगद जी उनके पास आए।
चरन नाइ सिरु बिनती किन्हीं।
लछिमन अभय बाहॅ तेहि दीन्ही।।
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना।
कह कपीस अति भय अकुलाना।।
अंगद ने उनके चरणों में शीश नवा कर विनती की तब लक्ष्मण जी ने उनको अभय वाह दी।
 सुग्रीव ने अपने कानों से लक्ष्मण जी को क्रोध युक्त सुनकर भय से अत्यंत व्याकुल होकर कहा।
सुनु हनुमंत संग लैं तारा।
करि बिनती समुझाउ कुमारा।।
तारा सहित जाइ हनुमाना।
चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना।।
हे हनुमान ! सुनो तुम तारा को साथ ले जाकर बिनती करके राजकुमार को समझाओ। हनुमान जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मण जी के चरणों की वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया।
करि बिनती मंदिर लैं आए।
चरन पखारि पलॅग बैठाए।।
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा।
गहि भुज लछिमन कंठ लगावा।।
वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलंग पर बैठाया। तब वानरराज सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मण जी ने हाथ पकड़ कर उनको गले से लगा लिया।
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं।
मुनि मन मोह करइ छन माहीं।।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा।
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा।।
हे नाथ ! विषय के समान और कोई मद नहीं है। यह मुनियों के मन में भी क्षण मात्र में मोह उत्पन्न कर देता है। सुग्रीव के विनयुक्त वचन सुनकर लक्ष्मण जी ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से समझाया।
पवन तनय सब कथा सुनाई।
जेहि बिधि गए दूत समुदाई।।
तब पवनसुत हनुमान जी ने जिस प्रकार सब दिशाओं में दूतों के समूह गए थे वह सब हाल सुनाया।
दो०- हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ।
रामानुज आगें करि आए जहॅ रघुनाथ।।२०।।
तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्री राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को आगे करके सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहां रघुनाथ जी थे वहां आए।
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी।
नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।।
अतिसय प्रबल देव तव माया।
छूटइ राम करहु जौं दाया।।
श्री रघुनाथ जी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा हे नाथ ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव ! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम तभी यह छूटती है।
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी।
मैं पावॅर पसु कपि अति कामी।।
नारि नयन सर जाहि न लागा।
घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।
हे स्वामी ! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के बस में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कमी बंदर हूं। स्त्री का नयन बाण जिसको नहीं लगा, जो भयंकर क्रोध रूपी अंधेरी रात में भी जागता रहता है।
लोभ पाॅस जेहिं गर न बॅधाया।
सो नर तुम समान रघुराया।।
यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपाॅ पाव कोइ कोई।।
और लोभ की फांसी से जिसने अपना गला नहीं बॅधाया हे रघुनाथ जी ! वह मनुष्य आप ही के समान है। यह गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई कोई इन्हें पाते हैं।
तब रघुपति बोले मुसुकाई।
तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।।
अब सोइ जतन करहु मन लाई।
जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।
तब श्री रघुनाथ जी मुस्कुरा कर बोले हे भाई ! तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो जिस उपाय से सीता की खबर मिले।
दो०- एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरूथ।।२१।।
इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि वानरों के यूथ आ गए अनेक रंगों के वानरों के दल सब दिशाओं में दिखाई देने लगे।
बानर कटक उमा मैं देखा।
सो मूरख जो करन चह लेखा।।
आइ राम पद नावहिं माथा।
निरखि बदनु सब होहिं सनाथा।।
हे उमा ! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान मूर्ख है। सब वानर आकर श्री राम जी के चरणों में मस्तक नवाते है और श्रीमुख के दर्शन करके कृतार्थ होते।
अस कपि एक न सेना माहीं।
राम कुसल जेहि पूछी नाहीं।
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई।। ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था जिससे श्री राम जी ने कुशल ना पूछी हो प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि श्री रघुनाथ जी विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं।
ठाढे जहॅ तहॅ आयसु पाई।
कह सुग्रीव सबहि समुझाई।।
राम काज अरु मोर निहोरा।
बानर जूथ जाहु चहुॅ ओरा।।
आज्ञा पाकर सब जहां-तहां खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने सबको समझा कर कहा कि हे वानरों के समूहो यह श्री रामचंद्र जी का कार्य है, और मेरा अनुरोध है तुम चारों ओर जाओ।
जनकसुता कहुॅ खोजन जाई।
मास दिवस महॅ आएहु भाई।।
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएं।
आवइ बनिहि सो मोहि मराएं।।
और जाकर जानकी जी को खोजो हे भाई ! महीने भर में वापस आ जाना जो अवधी बिताकर बिना पता लगाए ही लौटा देगा उसे मेरे द्वारा मरवाते ही बनेगा।
दो०- बचन सुनत सब बानर जहॅ तहॅ चले तुरंत।
तब सुग्रीवॅ बोलाए अंगद नल हनुमंत।।२२।।
सुग्रीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरंत जहां-तहां चल दिए। तब सुग्रीव ने अंगद नल हनुमान आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया।
सुनहु नील अंगद हनुमाना।
जामवंत मतिधीर सुजाना।।
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू।
सीता सुधि पूॅछेहु सब काहू।।
हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान् और हनुमान ! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीता जी का पता पूछना।
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु।
रामचंद्र कर काज सॅवारेहु।।
भानु पीठि सेइअ उर आगी।
स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।
मन वचन तथा कर्म से उसी का उपाय सोचना। श्री रामचंद्र जी का कार्य संपन्न करना। सूर्य को पीट से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़ कर सर्व भाव से करनी चाहिए।
तजि माया सेइअ परलोका।
मिटहिं सकल भवसंभव सोका।।
देह धरे कर यह फल भाई।
भजिअ राम सब काम बिहाई।।
माया को छोड़कर परलोक का सेवन करना चाहिए, जिससे भव से उत्पन्न ने सारे शोक मिट जाएं। हे भाई ! देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों को छोड़कर श्री राम जी का भजन ही किया जाए।
सोइ गुनग्य सोई बडभागी।
जो रघुबीर चरन अनुरागी।।
आयसु मागि चरन सिरु नाई।
चले हरषि सुमिरत रघुराई।।
सद्गुणों को पहचानने वाला तथा बड़भागी वही है जो श्री रघुनाथ जी के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा मांगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथ जी का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले।
पाछे पवन तनय सिरु नावा।
जानि काज प्रभु निकट बोलावा।।
परसा सीस सरोरुह पानी।
करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।।
सब के पीछे पवनसुत हनुमान जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने कर कमल से उनके सिर पर स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अंगूठी उतार कर दी।
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।।
हनुमत जन्म सुफल करि माना।
चलेउ हृदयॅ धरि कृपानिधाना।।
बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपा निधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले।
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता।
राजनीति राखत सुरत्राता।।
यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं।
दो०- चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।२३।।
सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की कंदरा में खोजते हुए चले जा रहे हैं। मन श्री राम जी के कार्य में लवलीन है। शरीर तक का प्रेम भूल गया है।
कतहुॅ होइ निसिचर सैं भेंटा।
प्रान लेहिं एक एक चपेटा।।
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं।
कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं।।
कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है तो एक एक चपत में ही उनके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोज रहे हैं। कोई मुनि मिल जाता है तो पता पूछने के लिए उसे सब घेर लेते हैं।
लागि तृषा अतिसय अकुलाने।
मिलइ न जल घन गहन भुलाने।।
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना।
मरन चहत सब बिनु जल पाना।।
इतने में ही सब को अत्यंत प्यास लगी जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए किंतु जल कहीं नहीं मिला घने जंगल में सब भूल गए हनुमान जी ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं।
चढि गिरि सिखर चहूॅ दिसि देखा।
भूमि बिबर एक कौतुक पेखा।।
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं।
बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक कौतुक दिखाई दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं।
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा।
सब कहुॅ लै सोइ बिबर देखावा।।
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा।
पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा।।
पवन कुमार हनुमान जी पर्वत से उतर आए और सब को ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलायी। सब ने हनुमान जी को आगे कर लिया और वे गुफा में घुस गए, देर नहीं की।
दो०- दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहॅ बैठि नारि तप पुंज।।२४।।
अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपो मूर्ति स्त्री बैंठी है।
दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा।
पूछें निज बृत्तांत सुनावा।।
तेहिं सब कहा करहु जल पाना।
खाहु सुरस सुंदर फल नाना।।
दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृतांत कह सुनाया। तब उसने कहा जलपान करो और भांति भांति के रसीले सुंदर फल खाओ।
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए।
तासु निकट पुनि सब चलि आए।।
तेंहिं सब आपनि कथा सुनाई।
मैं अब जाब जहाॅ रघुराई।।
सब ने स्नान किया मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई मैं अब वहां जाऊंगी जहां श्री रघुनाथ जी हैं।
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू।
पैहहु सीतहि जनि पछिताहू।।
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा।
ठाढे सकल सिंधु कें तीरा।।
तुम लोग आंखें मूंद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीता जी को पा जाओगे, पछताओ नही। आंखें मूंद कर फिर जब आंखें खोली तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खड़े हैं।
सो पुनि गई जहाॅ रघुनाथा।
जाइ कमल पद नाएसि माथा।।
नाना भाॅति बिनय तेहिं कीन्ही।
अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही।।
और वह स्वयं वहां गई जहां श्री रघुनाथ जी थे। उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की प्रभु ने उसे अपनी अनपायनी भक्ति दी।
दो०- बदरीबन कहुॅ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस।।२५।।
प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और श्री राम जी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह बदरिकाश्रम को चली गई।
इहाॅ बिचारहिं कपि मन माहीं।
बीती अवधि काज कछु नाहीं।।
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता।
बिनु सुधि लएं करब का भ्राता।।
यहां वानर गण मन में विचार कर रहे है कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ ना हुआ। सब मिलकर आपस में बात करने लगे की हे भाई ! अब तो सीता जी की खबर लिए बिना लौट कर भी क्या करेंगे?
कह अंगद लोचन भरि बारी।
दुहुॅ प्रकार भइ मृत्यु हमारी।।
इहाॅ न सुधि सीता कै पाई।
उहाॅ गएं मारिहि कपिराई।।
अंगद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई। यहां तो सीता जी की सुध नहीं मिली और वहां जाने पर वह वानर राज सुग्रीव मार डालेंगे।
पिता बधे पर मारत मोही।
राखा राम निहोर न ओही।।
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं।
मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।
वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते। श्री राम जी ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।
अंगद बचन सुनत कपि बीरा।
बोलि न सकहिं नयन बह नीरा।।
छन एक सोच मगन होइ रहे।
पुनि अस बचन कहत सब भए।।
वानर वीर अंगद के वचन सुनते हैं, किंतु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रों से जल वह रहा है। एक क्षण के लिए सब सोच में मग्न हो रहे हैं। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे।
हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना।
नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना।।
अस कहि लवन सिंधु तट जाई।
बैठे कपि सब दर्भ डसाई।।
हे सुयोग युवराज ! हम लोग सीता जी की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवण सागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए।
जामवंत अंगद दुख देखी।
कहीं कथा उपदेस बिसेषी।।
तात राम कहुॅ नर जनि मानहु।
निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु।।
जाम्बवान् ने अंगद का दुख देखकर विशेष उपदेश की कथाएं कहीं। हे तात ! श्री राम जी को मनुष्य ना मानो उन्हें निर्गुण ब्रह्म अजेय और अजन्मा समझो।
हम सब सेवक अति बडभागी।
संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी।।
हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म मैं प्रीति रखते हैं।
दो०- निज इच्छाॅ प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहॅ रहहि मोच्छ सब त्यागि।।२६।।
देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों के लिए प्रभु अपनी इच्छा से अवतार लेते हैं। वहां सगुण उपासक सब प्रकार के मोक्षो को त्याग कर उनकी सेवा में साथ रहते हैं।
एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाॅती।
गिरि कंदराॅ सुनि संपाती।।
बाहेर होइ देखि बहु कीसा।
मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।।
इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकार से कथाएं कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वत की कंदरा में संपाती ने सुनीं। बाहर निकल कर उसने बहुत से वानर देखें। जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत सा आहार भेज दिया।
आजु सबहि कहॅ भच्छन करऊॅ।
दिन बहु चले अहार बिनु मरऊॅ।।
कबहुॅ न मिल भरि उदर अहारा।
आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा।।
आज इन सब को खा जाऊंगा। बहुत दिन बीत गए भोजन के बिना मर रहा था। पेट भर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाता ने एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया।
डरपे गीध बचन सुनि काना।
अब भा मरन सत्य हम जाना।।
कपि सब उठे गीध कहॅ देखी।
जामवंत मन सोच बिसेषी।।
गीध के बचन कानों से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना हो गया, यह हमने जान लिया। फिर उस गीध को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए जाम्बवान् के मन में विशेष सोच हुआ।
कह अंगद बिचारि मन माहीं।
धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।।
राम काज कारन तनु त्यागी।
हरि पुर गयउ परम बडभागी।।
अंगद ने मन में विचार कर कहा अहा ! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। श्री राम जी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान के परमधाम को चला गया।
सुनि खग हरस सोक जुत बानी।
आवा निकट कपिन्ह भय मानी।।
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई।
कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई।।
हर्ष और शोक से युक्त वाणी सुनकर वह पक्षी वानरों के पास आया। वानर डर गए। उनको अभय करके उसने पास जाकर जटायु का वृतांत पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई।
सुनि संपाति बंधु कै करनी।
रघुपति महिमा बहुविधि बरनी।।
भाई जटायु की करनी सुनकर संपाती ने बहुत प्रकार से श्री रघुनाथ जी की महिमा वर्णन की।
दो०- मोहि लै जाहु सिंधुतट देउॅ तिलांजलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि।।२७।।
मुझे समुद्र के किनारे ले चलो मैं जटायु को तिलांजलि दे दूं। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूंगा 
 जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे।
अनुज क्रिया करि सागर तीरा।
कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा।।
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई।
गगन गए रबि निकट उडाई।।
समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया करके संपाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों ! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़ कर सूर्य के निकट चले गए।
तेज न सहि सक सो फिरि आवा।
मैं अभिमानी रबि निअरावा।।
जरे पंख अति तेज अपारा।
परेउॅ भूमि करि घोर चिकारा।।
वह तेज नहीं सह सका इससे लौट आया। मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया। अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए। मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा।
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।
लागी दया देखि करि मोही।।
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा।
देह जनित अभिमान छडावा।।
वहां चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देख कर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित अभिमान को छुड़ा दिया।
त्रेताॅ ब्रह्म मनुज तन धरही।
तासु नारि निसिचर पति हरही।।
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता।
तिन्हहि मिलेँ तैं होब पुनीता।।
त्रेता युग में साक्षात परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा।
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता।
तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता।।
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू।
सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू।।
और तेरे पंख उग आयेगे, चिंता ना कर। उन्हें तू सीता जी को दिखा देना। मुनि कि वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो।
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका।
तहॅ रह रावन सहज असंका।।
तहॅ असोक उपबन जहॅ रहई।
सीता बैठि सोच रत अहई।।
त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहां स्वभावही से निडर रावण रहता है। वहां अशोक नाम का उपवन है। जहां सीता जी रहती हैं। वे सोच में मग्न बैठी हैं।
दो०- मैं देखउॅ तुम नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।
बूढ भयउॅ  न त करतेउॅ कछुक सहाय तुम्हार।।२८।।
मैं उन्हें देख रहा हूं तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की दृष्टि अपार होती है। क्या करूं? मैं बूढ़ा हो गया नहीं तो तुम्हारी कुछ तो सहायता अवश्य करता।
जो नघाइ सत जोजन सागर।
करइ सो राम काज मति आगर।।
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा।
राम कृपाॅ कस भयउ सरीरा।।
जो सौ योजन समुद्र लांघ सकेगा और बुद्धि निधान होगा वही श्री राम जी का कार्य कर सकेगा। मुझे देखकर मन में धीरज धरो। देखो श्री राम जी की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया।
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भव सागर तरहीं।।
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई।
राम हृदयॅ धरि करहु उपाई।।
पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यंत अपार भवसागर से तर जाते हैं, तुम उनके दूत हो अतः कायरता छोड़कर श्री राम जी को हृदय में धारण करके उपाय करो।
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ।
तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ।।
निज निज बल सब काहूॅ भाषा।
पार जाइ कर संसय राखा।।
हे गरुड़ जी ! इस प्रकार कह कर जब गीध चला गया, तब उन के मन में अत्यंत विस्मय  हुआ। सब किसी ने अपना अपना बल कहा पर समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया।
जरठ भयउॅ अब कहइ रिछेसा।
नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा।।
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी।
तब मैं तरुन रहेउॅ बल भारी।।
ऋछराज जाम्बवान् कहने लगे मैं अब बुढा हो गया। शरीर में पहलेवाले बल का लेस भी नहीं रहा। जब खरारी बामन बने थे, तब मैं जवान था और मुझ में बड़ा बल था।
दो०- बलि बाॅधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महॅ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ।।२९।।
बलि के बांधते समय प्रभु इतने बड़े कि उस शरीर का वर्णन  नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर सात प्रदक्षिणाए कर ली।
अंगद कहइ जाउॅ मैं पारा।
जियॅ संसय कछु फिरति बारा।।
जामवंत कह तुम सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक।।
अंगद ने कहा मैं पार तो चला जाऊंगा परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान् ने कहा तुम सब प्रकार से योग्य हो। परंतु तुम सब के नेता हो तुम्हें कैसे भेजा जाए?
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
ऋछराज जाम्बवान् ने कहा- हे हनुमान ! हे बलवान ! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो तुम बुद्धि विवेक और विज्ञान की खान हो।
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।।
कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात ! तुमसे ना हो सके। श्री राम जी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के हो गए।
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुॅ अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउॅ जलनिधि खारा।।
उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरू हो। हनुमान जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लांग सकता हूं।
सहित सहाय रावनहि मारी।
आनउॅ इहाॅ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूॅछउॅ तोही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।।
और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़ कर यहां ला सकता हूं। हे जाम्बवान् ! मैं तुमसे पूछता हूं तुम मुझे उचित सीख देना।
एतना करहु तात तुम्ह जाई।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।
तब निज भुज बल राजिवनैना।
कौतुक लागि संग कपि सेना।।
हे तात ! तुम जाकर इतना ही करो कि सीता जी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री राम जी अपने बाहुबल से खेल के लिए ही बे वानरों की सेना साथ लेंगे।
छ०- कपि सेन संग सॅघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं।।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई।।
वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके श्री राम जी सीता जी को ले आएंगे। तब देवता और नारद आदि मुनि भगवान के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुंदर यस का बखान करेंगे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझने से मनुष्य परम पद पाते हैं और जिसे श्री रघुवीर के चरण कमल का मधुकर तुलसीदास गाता है।
दो०- भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।३०(क)।।
श्री रघुवीर का यश भव रूपी रोग की दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे त्रिशिरा के शत्रु श्री राम जी उसके सब मनोरथ को सिद्ध करेंगे।
सो०- नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक।।३०(ख)।।
जिनका नीले कमल के समान श्याम शरीर है, जिनकी शोभा करोड़ों काम देवों से भी अधिक है और जिनका नाम पाप रूपी पक्षियों को मारने के लिए बधिक के समान है, उन श्री राम जी के गुणों के समूह को अवश्य सुनना चाहिए।
      मासपारायण, तेइसवां विश्राम
         इति श्रीमद्रामचरितमानसे       सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ: सोपान समाप्त:।
कलयुग के समस्त पापों के नाश करने वाले श्री रामचरितमानस का यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।
          ।।किष्किंधाकांड समाप्त।। https://newssaransha.blogspot.com



















सोमवार, 13 जून 2022

श्रीरामचरितमानस की सिद्ध चौपाईयां

अयोध्या कांड की इन चौपाइयों का प्रतिदिन पाठ करने से घर में होगी लक्ष्मी की वर्षा एवं घर में होगी सुख शांति एवं समृद्धि। अयोध्या काण्ड में कुल ३२६ दोहे है। रामचरितमानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने अयोध्या में संवत् १६३१ चैत्र मास रामनवमी के पावन पर्व से प्रारंभ की, दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन में ग्रथ की समाप्ति हुई। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन सातो काण्ड पूर्ण हो गये।
दो०- श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनउॅ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
श्री गुरु जी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथ जी के निर्मल यस क वर्णन करता हूं जो चारों फलो को देनेवाला है।
जब तें रामु ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए।।
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी।।
जब से श्री रामचंद्र जी विवाह करके घर आए तब से नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के डधावे बज रहे हैं। चौंदहों लोकरूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं।
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुॅ आई।।
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाॅती।।
रिद्धि सिद्धि और संपत्ति रूपी सुहावनी नदियां उमड़ उमड़ कर अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिली। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं जो सब प्रकार से पवित्र अमूल्य और सुंदर हैं।
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।
जनु एतनिअ बिरंच करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद्र मुख चंदु निहारी।।
नगर का ऐश्वर्या कुछ कहा नहीं जाता ऐसा जान पड़ता है मानो ब्रह्मा जी की कारीगरी बस इतनी ही है सब नगर निवासी श्री रामचंद्र जी के मुख चंद्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं।
मुदित मातु सब सखीं सहेली।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।
सब माताएं और सखी सहेलियां अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देख कर आनंदित हैं श्री रामचंद्र जी के रूप गुण व स्वभाव को देख सुनकर राजा दशरथ जी बहुत ही आनंदित होते हैं।

विश्व मैं सर्वाधिक बड़ा, छोटा, लंबा एवं ऊंचा

सबसे बड़ा स्टेडियम - मोटेरा स्टेडियम (नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद 2021),  सबसे ऊंची मीनार- कुतुब मीनार- दिल्ली,  सबसे बड़ी दीवार- चीन की ...