दो०- श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुर सुधारि।
बरनउॅ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
श्री गुरु जी के चरण कमलों की रज से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथ जी के निर्मल यस क वर्णन करता हूं जो चारों फलो को देनेवाला है।
जब तें रामु ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए।।
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी।।
जब से श्री रामचंद्र जी विवाह करके घर आए तब से नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के डधावे बज रहे हैं। चौंदहों लोकरूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं।
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुॅ आई।।
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाॅती।।
रिद्धि सिद्धि और संपत्ति रूपी सुहावनी नदियां उमड़ उमड़ कर अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिली। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं जो सब प्रकार से पवित्र अमूल्य और सुंदर हैं।
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।
जनु एतनिअ बिरंच करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद्र मुख चंदु निहारी।।
नगर का ऐश्वर्या कुछ कहा नहीं जाता ऐसा जान पड़ता है मानो ब्रह्मा जी की कारीगरी बस इतनी ही है सब नगर निवासी श्री रामचंद्र जी के मुख चंद्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं।
मुदित मातु सब सखीं सहेली।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।
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