महाभारत के प्रमुख पात्रो में से एक थे दानवीर कर्ण, कर्ण महारानी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे, महारानी कुंती को स्वेच्छा से पुत्र प्राप्त करने का वरदान प्राप्त था, जिसका परीक्षण करने के लिए कुंती ने विवाह से पूर्व ही सुर्य देव से पुत्र प्राप्ति का आवाहन किया था और परिणम स्वरूप सूर्यदेव ने उन्हें एक तेजस्वी पुत्र प्रदान किया किन्तु लोकनिंदा के भय के कारण उन्होंने उसे टोकरी में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया जिसे एक सूद्र दम्पति ने पाला पोसा, कर्ण ने भगवान परसुराम जी से विद्या प्राप्त की, उन्हें जन्म के साथ ही सूर्यदेव ने कुण्डल और कवच प्रदान किया था और वरदान दिया था कि जब तक इस बालक के शरीर पर यह कुण्डल और कवच रहेंगे इसे कोई युद्ध में परास्त नही कर सकेगा, इस बात से देवराज इंद्र काफी चिंतित थे चुकि कुंती के पांच पुत्र अपने अधिकार और धर्म की रक्षा के लिए कौरवों से युद्ध लड़ने वाले थे और कर्ण कौरवो की ओर से युद्ध लड़ने बाले थे, अतः कर्ण को हराये विना विजय प्राप्त नही की जा सकती थी। और कर्ण ने अर्जुन का वध करने का प्रण ले रखा था, अर्जुन कुंती को देवराज इंद्र के द्वारा प्रदान किये गए थे। कर्ण की एक विशेषता थी कि सुबह पूजन के उपरांत कोई भी याचक उनके यहाँ से कभी खाली हाथ नही लौटता था। इसलिए उन्हें दानवीर कहां जाता था। उनकी इसी विशेषता का लाभ उठाकर देवराज इंद्र ने उनसे कुण्डल और कवच दान में मांग लिए जिसे उन्होंने यहाँ जानते हुए भी की कुण्डल और कवच के बिना उनकी मृत्यु निश्चित है फिर भी सहर्ष दान कर दिए, जिससे प्रशन्न होकर देवराज ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि आज आप मेरे यहाँ याचक बनकर आये हैं, और दान देकर कुछ माँगना तो व्यापार हुआ। फिर भी देवराज इंद्र ने उन्हें एक दिव्यास्त्र प्रदान किया। यही नही माता कुंती को अर्जुन को छोड़कर शेष चार पुत्रो को न मारने का वचन भी दिया था।
।। ऋषि दधीचि ।।
अथर्वा ऋषि के पुत्र महाऋषि दधीचि का स्थान दानियों में कौन भूल सकता है जिन्होंने संसार के हितार्थ अपनी अस्थियो को दान कर दिया था। देवासुर संग्राम में जब देवराज इंद्र का वज्र नष्ट हो गया, और असुर देवताओं पर भारी पढ़ने लगे, तब देवताओं ने ब्रम्हा जी की शरण मे जाकर सहायता मांगी,और असुर किस प्रकार पराजित होंगे यहाँ जानने की इच्छा प्रगट की तब ब्रम्हा जी ने बताया कि महाऋषि दधीचि अगर अपनी अस्तिया दान कर दे तो उनका वज्र बनाकर असुरो को परास्त किया जा सकता है। देवराज इंद्र बिना विलम्ब किये महाऋषि दधीचि के पास पहुँच गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। महाऋषि ने अपने शरीर को भस्म करके सँसार के हितार्थ अपनी अस्थियों का दान कर दिया।
।। राजा दिलीप ।।
ब्रम्हरिषि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य
के अनुसार राजा दिलीप के कोई संतान नही थी इससे दुखी होकर वह गुरु वशिष्ठ जी के पास संतान प्राप्ति का उपाय जानने के पहुचे तब वशिष्ठ जी ने कहा राजन आपसे गौ ब्राम्हण का अनजाने में ही अपमान हुआ है इस कारण आप के कोई संतान नही है, अगर आप मेरी गाय जो कि कामधेनु की पुत्री है जिसका नाम है नन्दनी की सेवा करो और ये प्रसन्न हो जाये तो आपको संतान प्राप्त हो सकती है। राजा नंदनी की सेवा में लग गए। एक दिन जंगल मे उसे एक सिंह ने दबोच लिया राजा अस्त्र शस्त्र चलने में असमर्थ हो गए। तब उन्होंने सिंह से प्रार्थना की की आप मेरी नन्दनी को छोड़ दीजिए पर सिंह नही माना तब उन्होंने सिंह से कहा अगर आप चाहे तो मुझे खा ले किन्तु मेरी गौ माता को मुक्त कर दे जिसपर सिंह तैयार हो गया राजा ने अपने आपको सिंह को समर्पित कर दिया और गाय को मुक्त कर दिया, जैसे ही राजा सिंह के पास गए सिंह अंतर्ध्यान हो गया। तब नन्दनी बोली राजन यह सब मेरी माया थी मैं आपकी सेवा और समर्पण से अति प्रसन्न हूँ और आपको एक प्रतापी पुत्र प्राप्ति का वरदान देती हूँ। और यही प्रतापी पुत्र राजा रघु के नाम से प्रसिद्ध हुए जिनके नाम से राजा दिलीप के वंश का नाम रघुवंश हुआ।
राजा हरिश्चंद्र
मोरध्वज
आदि ने भी अपने द्वारा दिये गए दान से प्रसिद्धि प्राप्त की।