शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

दानवीर

               ।। दानवीर कर्ण ।।

महाभारत के प्रमुख पात्रो में से एक थे दानवीर कर्ण, कर्ण महारानी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे, महारानी कुंती को स्वेच्छा से पुत्र प्राप्त करने का वरदान प्राप्त था, जिसका परीक्षण करने के लिए कुंती ने विवाह से पूर्व ही सुर्य देव से पुत्र प्राप्ति का आवाहन किया था और परिणम स्वरूप सूर्यदेव ने उन्हें एक तेजस्वी पुत्र प्रदान किया किन्तु लोकनिंदा के भय के कारण उन्होंने उसे टोकरी में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया जिसे एक सूद्र दम्पति ने पाला पोसा, कर्ण ने भगवान परसुराम जी से विद्या प्राप्त की, उन्हें जन्म के साथ ही सूर्यदेव ने कुण्डल और कवच प्रदान किया था और वरदान दिया था कि जब तक इस बालक के शरीर पर यह कुण्डल और कवच रहेंगे इसे कोई युद्ध में परास्त नही कर सकेगा, इस बात से देवराज इंद्र काफी चिंतित थे चुकि कुंती के पांच पुत्र अपने अधिकार और धर्म की रक्षा के लिए कौरवों से युद्ध लड़ने वाले थे और कर्ण कौरवो की ओर से युद्ध लड़ने बाले थे, अतः कर्ण को हराये विना विजय प्राप्त नही की जा सकती थी। और कर्ण ने अर्जुन का वध करने का प्रण ले रखा था, अर्जुन कुंती को देवराज इंद्र के द्वारा प्रदान किये गए थे। कर्ण की एक विशेषता थी कि सुबह पूजन के उपरांत कोई भी याचक उनके यहाँ से कभी खाली हाथ नही लौटता था। इसलिए उन्हें दानवीर कहां जाता था। उनकी इसी विशेषता का लाभ उठाकर देवराज इंद्र ने उनसे कुण्डल और कवच दान में मांग लिए जिसे उन्होंने यहाँ जानते हुए भी की कुण्डल और कवच के बिना उनकी मृत्यु निश्चित है फिर भी सहर्ष दान कर दिए, जिससे प्रशन्न होकर देवराज ने उनसे वरदान मांगने के लिए कहा लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि आज आप मेरे यहाँ याचक बनकर आये हैं, और दान देकर कुछ माँगना तो व्यापार हुआ। फिर भी देवराज इंद्र ने उन्हें एक दिव्यास्त्र प्रदान किया। यही नही माता कुंती को अर्जुन को छोड़कर शेष चार पुत्रो को न मारने का वचन भी दिया था।
            
                 ।। ऋषि दधीचि ।।

अथर्वा ऋषि के पुत्र महाऋषि दधीचि का स्थान दानियों में कौन भूल सकता है जिन्होंने संसार के हितार्थ अपनी अस्थियो को दान कर दिया था। देवासुर संग्राम में जब देवराज इंद्र का वज्र नष्ट हो गया, और असुर देवताओं पर भारी पढ़ने लगे, तब देवताओं ने ब्रम्हा जी की शरण मे जाकर सहायता मांगी,और असुर किस प्रकार पराजित होंगे यहाँ जानने की इच्छा प्रगट की तब ब्रम्हा जी ने बताया कि महाऋषि दधीचि अगर अपनी अस्तिया दान कर दे तो उनका वज्र बनाकर असुरो को परास्त किया जा सकता है। देवराज इंद्र बिना विलम्ब किये महाऋषि दधीचि के पास पहुँच गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। महाऋषि ने अपने शरीर को भस्म करके सँसार के हितार्थ अपनी अस्थियों का दान कर दिया।

             ।। राजा दिलीप ।।

ब्रम्हरिषि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य
के अनुसार राजा दिलीप के कोई संतान नही थी इससे दुखी होकर वह गुरु वशिष्ठ जी के पास संतान प्राप्ति का उपाय जानने के पहुचे तब वशिष्ठ जी ने कहा राजन आपसे गौ ब्राम्हण का अनजाने में ही अपमान हुआ है इस कारण आप के कोई संतान नही है, अगर आप मेरी गाय जो कि कामधेनु की पुत्री है जिसका नाम है नन्दनी की सेवा करो और ये प्रसन्न हो जाये तो आपको संतान प्राप्त हो सकती है। राजा नंदनी की सेवा में लग गए। एक दिन जंगल मे उसे एक सिंह ने दबोच लिया राजा अस्त्र शस्त्र चलने में असमर्थ हो गए। तब उन्होंने सिंह से प्रार्थना की की आप मेरी नन्दनी को छोड़ दीजिए पर सिंह नही माना तब उन्होंने सिंह से कहा अगर आप चाहे तो मुझे खा ले किन्तु मेरी गौ माता को मुक्त कर दे जिसपर सिंह तैयार हो गया राजा ने अपने आपको सिंह को समर्पित कर दिया और गाय को मुक्त कर दिया, जैसे ही राजा सिंह के पास गए सिंह अंतर्ध्यान हो गया। तब नन्दनी बोली राजन यह सब मेरी माया थी मैं आपकी सेवा और समर्पण से अति प्रसन्न हूँ और आपको एक प्रतापी पुत्र प्राप्ति का वरदान देती हूँ। और यही प्रतापी पुत्र राजा रघु के नाम से प्रसिद्ध हुए जिनके नाम से राजा दिलीप के वंश का नाम रघुवंश हुआ।
राजा हरिश्चंद्र
मोरध्वज
आदि ने भी अपने द्वारा दिये गए दान से प्रसिद्धि प्राप्त की।

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

गुरु भक्त

           ।। गुरु भक्त एकलव्य ।।

महाभारत में एक पत्र थे एकलव्य जिनकी गुरु भक्ति प्रसिद्ध है, जब गुरु द्रोणाचार्य जी ने यह कहकर एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया था, की वह केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षा प्रदान करते हैं।
तब एकलव्य ने मन ही मन गुरु द्रोणाचार्य को गुरु मानकर उनकी प्रतिमा बना कर विद्याअध्यन आरम्भ कर दिया और एक सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गए, लेकिन जब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदीक्षा में दाये हाथ का अंगूठा मांग लिया तो यह जानते हुए भी की अंगूठे के बिना उनकी विद्या का कोई मोल नही रह जायेगा फिर भी उन्होंने अपने दाये हाथ का अंगूठा गुरुदीक्षा में देकर गुरुभक्ति का एक अनूठा उदहारण प्रस्तुत किया था।

   ।। स्वामी विवेकानंद जी की गुरुभक्ति ।।

स्वमी विवेकानंद जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस जी का विवेकानंद जी पर विशेष स्नेह था। वह कैंसर से पीड़ित थे, उनके बाकी के शिष्य उनसे दूरी बनाने लगे, उनके गले से पस आदि निकलते तो कोई भी शिष्य उसे साफ नही करता, नाही कोई उनके पास जाता यह देखकर विवेकानंद जी को काफी पीड़ा हुई और उन्होंने, गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के गले से निकली पस को उठा कर पी लिया था, ऐसी थी स्वमी विवेकानंद जी की गुरु के प्रति श्रद्धा।

।। वीर शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति।।

वीर शिवाजी महाराज के गुरु थे समर्थ रामदास जी, वे शिवजी महाराज की वीरता और प्रतिभा तथा गुरुभक्ति को पहचानते थे तथा उनके इन्ही सद्गुणों के कारण वह बालक शिवा पर विशेष स्नेह रखते थे, उनकी यह बात बाकी शिष्यों को अच्छी नही लगती थी, एक दिन उन्होंने गुरुदेव से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बोला कि समय आने पर बताऊगा, एक दिन गुरु रामदास जी के पेट मे दर्द हुआ, सभी शिष्यों ने उपचार के लिए चलने को कहा तो गुरु बोले इसका एक ही उपचार है अगर कोई मुझे शेरनी का दूध लकार दे तो उसका सेवन करते ही मेरा दर्द ठीक हो जाएगा परंतु कोई भी शिष्य तैयार नही हुआ, परन्तु जैसे ही शिवजी महाराज को पता चला वह दौड़े दौड़े गुरु के पास आये, उनसे सब हाल जाना और तुरंत ही निकल पड़े जंगल की ओर और शेरनी का दूध लाकर गुरुदेव को दिया, सभी आश्चर्य से वीर शिवाजी की ओर देख रहे थे, गुरुदेव समर्थ रामदास जी ने वाकी शिष्यों से कहा शायद तुम्हे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा।

बुधवार, 11 अगस्त 2021

ब्राम्हण की महिमा

सनातन धर्म मे ब्राम्हण को गुरु का स्थान दिया जाता, एक सच्चा ब्राम्हण अपने कर्मों के द्वारा समाज को अच्छे रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है, प्राचीन काल से ही ब्राह्मण का कार्य विद्या प्राप्त करना और विद्या प्रदान करना रहा है, ब्राम्हण संसार की भलाई के लिए जप तप यज्ञ अनुष्ठान आदि करते और करवाते आये हैं, यही कारण है कि भगवान भी ब्राम्हण से शिक्षा लेने के लिए लालायित रहते हैं, फिर चाहे भगवान श्री कृष्ण हो भगवान श्री राम या पांडव हो।
देवता हो या दानव सभी ब्राम्हणों का सम्मान करते थे। मैं अपने विवेक अनुसार कुछ पक्तियो के द्वारा ब्राम्हणों की महिमा के बारे में बताना चाहूंगा-
ब्राम्हण पैर पताल छलो, और
ब्राम्हण ही साठ हजार को जारो
ब्राम्हण सोख समुद्र लियो और
ब्राह्मण ही यदुवंश उजारो,
ब्राम्हण लात हनि हरि के तन
ब्राम्हण ही क्षत्रिय दल मारो
ब्राम्हण से जिन बैर करे कोई
ब्राम्हण से परमेश्वर हारो।।
अर्थात- ब्राम्हण ने अपने पैर से तीनों लोक नाप कर राजा बलि से मुक्त किया था, राजा बलि ने तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था तब बामन भगवान ने बलि से तीन पग धरती दान में मांग ली थी और और दो पग में ही पृथ्वी और आकाश को नाप दिया था तथा तीसरा पग बलि के सिर पर रखकर उसका उद्धार किया था। अगस्त जी ने सारा समुद्र सोख लिया था। कपिल मुनि ने सगर जी के साठ हजार पुत्रो को श्राप देकर भस्म कर दिया था। तो परसुराम जी ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया था, दुर्वासा ऋषि ने यदुवंशीयो को श्राप देकर यदुवंश को नष्ट कर दिया था, तो वही भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के वक्ष स्थल पर अपने पैर से प्रहार कर दिया, इसलिय ब्राह्मणों से कभी विरोध नही करना चाहिए, ब्राम्हण को भूदेव भी कहा जाता है, ब्राम्हणों ने सनातन धर्म को एक सूत्र में बांधने का कार्य हमेशा से ही किया है, इसलिये ब्राह्मणों के हितार्थ भगवान भी पृथ्वी पर अवतार लेते रहे हैं।
वेद पुराणों और शास्त्रों ने भी ब्राह्मण की महिमा गायी है। रामचरित मानस में भी भगवान ने तुलसीदास जी के मुख से कहलवाया है, विप्र धेनु सुर संत हित लीन मनुज अवतार, निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।

सोमवार, 9 अगस्त 2021

श्रीधर स्वमी जी की कथा (Shridhar Svami ji ki katha)

श्रीधर स्वमी जी श्रीमद्भागवत गीता पर टीका लिखा रहे थे। उन्होंने देखा कि गीता में एक श्लोक आया है अनन्याश्चिन्तयन्तो माम ये जना पाउपस्यन्ते तेसं नित्य अभियुक्तनम योगक्षेम वहामहम।। इसका अर्थ होता है जो भी व्यक्ति संसार के सारे आश्रय को छोड़कर एक मेरे ही आश्रित रहता है उसका सारा भार में स्वयं वहन करता हूँ। श्रीधर महाराज ने सोचा भगवान स्वयं तो किसी के पास जाते नही होंगे उसकी व्यवस्था करने वह तो किसी को माध्यम बनाकर उनकी व्यवस्था करते होंगे जो उनके आश्रित रहते हैं, अतः श्रीधर महाराज ने उस श्लोक में अपनी ओर से सुधार करते हुए योगक्षेम वहामहम की जगह योगक्षेम ददामहम कर दिया। एक दिन की बात है श्रीधर महाराज के घर पर भोजन की व्यवस्था नही थी घर पर पत्नी भूखी थी श्रीधर महाराज किसी कार्य से घर से बाहर गए हुए थे। उसी समय भगवान श्री कृष्ण बालक के रूप में सिर पर भोजन सामग्री लिए हुए तथा मुँह से खून गिरता हुआ श्रीधर महाराज के घर पर पहुँच गए। आवाज लगाई तो श्रीधर महाराज की पत्नी बाहर आयी बालक रूपधारी भगवान श्री कृष्ण जी बोले माता यह भोजन महाराज जी ने भेजा है, श्रीधर महाराज की पत्नी ने पूछा बेटा आपके मुँह से यह खून कैसा निकल रहा है इसपर भगवान बोले माता यह श्रीधर महाराज ने मेरे मुँह पर मारा है, इतना कहकर बालक रूपधारी भगवान श्री कृष्ण वहाँ से चले गए। शाम को जब श्रीधर महराज घर लौटे तो पत्नी ने सारी बात बताई और पूछा कि आपने इतने प्यारे बालक के मुँह पर क्यो मारा? श्रीधर महाराज समझ गए कि यह बालक कोई और नही बल्कि स्वंय भगवान श्री कृष्ण थे।उन्होंने तुरंत अपनी गलती सुधारी और भगवान से क्षमा माँगी और पत्नी को समझाया। गीता तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण के मुख से निकली हुई अमृतबाणी है इसपर संसय अर्थात भगवान पर संसय।

रविवार, 8 अगस्त 2021

शुकदेव जी की कथा (shukadev ji ki katha)

शास्त्रों के अनुसार- शुकदेव जी महाऋषि वेदव्यास जी के पुत्र थे उनकी माता का नाम
वाटिका था, शुकदेव जी के जन्म की बड़ी
बिचित्र कथा है। एक समय की बात है कि माता पार्वती ने भगवान शिव जी से अमर कथा सुनने की इच्छा प्रगट की, बहुत विनय करने पर भगवान शिव जी कथा सुनाने को तैयार हो गए पर उन्होने माता पार्वती के सामने एक प्रस्ताव रखा, की जब तक मैं कथा सुनाऊँगा तब तक आपको ध्यान से कथा सुननी होगी और उत्तर में हां बोलना होगा कथा के स्थान पर हम दोनों के अतिरिक्त कोई भी नही होगा, माता पार्वती तैयार हो गयी। भगवान भोलेनाथ ने कथा प्रारम्भ की कुछ देर कथा सुनने के पश्चात भगवान भोलेनाथ कथा में लीन हो गए इसी दौरान माता पार्वती को नींद आ गयी और वहाँ पर कही से एक शुक (तोता) आ कर बैठ गया और उत्तर देता रहा जब कथा पुर्ण हुई तो भोलेनाथ ने देखा माता पार्वती तो सो रही है और उनकी जगह शुक(तोता) उत्तर दे रहा है, क्रोधित होकर भगवान भोलेनाथ उसके पीछे भागे और अपना त्रिशूल उसके पीछे छोड़ दिया, शुक आपने प्राण बचाने के लिए वेदव्यास जी के आश्रम में चला गया उसी समय माता वाटिका को छींक आयी और वह सूक्ष्म रूप से उनके मुख में प्रवेश कर गया और माता वाटिका के गर्भ में 14 वर्ष तक रहा, पिता के बार बार आग्रह करने के बाद तथा भगवान श्री कृष्ण के आश्वासन के बाद शुक ने माता वाटिका के गर्भ से जन्म लिया, भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें संसार की माया व्याप्त नही होगी ऐसा दिया था। शुकदेव जी ने ही वेदव्यास जी से महाभारत सुनकर देवताओं को सुनाई थी। तथा राजा परीक्षित को पिता वेदव्यास से सुनकर भागवत कथा का अमृत पान कराया था। शुकदेव जी की गुरु राधा रानी थी उनका नाम सुनते ही शुकदेव जी ध्यान मुद्रा में चले जाते थे। इसी बात का ध्यान रखते हुए पिता वेदव्यास जी ने भागवत में राधा नाम का उल्लेख नही किया है। क्योंकि अगर राधा जी का नाम कथा में आता तो शुकदेव जी ध्यान मुद्रा में चले जाते और कथा अधूरी रह जाती। शुकदेव जी अल्पायु में ही ब्रम्हलीन हो गए थे। 

बुधवार, 4 अगस्त 2021

जय श्री राम (Jai Shri Ram}

श्री राम स्तुति(Shri Ram Stuti)
श्री रामचंद्र कृपाल भजमन,
हरण भव भय धारणम।
नव कंज लोचन कंज मुख कर,
कंज पद कन्जारुणम।
कंदर्प अगनित अमित छवि नव
नीर नीरज सुंदरम,
पट्पीत मानव तड़ित रुचि शुचि
नोमी जनक सुताबरम।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव
दैत्य वंश निकन्दनम,
रघुनन्द आंनद कंद कौसल
चंद दशरथ नन्दनम।
सिर मुकुट कुंडल
तिलक चारु उदार
अंग बिभूषणम,
आजन भुज सर चापधर
संग्राम जित खरदुशनम।
मन जाहि राचेहु मिलत सो वर
सहज सुंदर सांवरो,
करुनानिधान सुजानशील
स्नेह जानत रावनो।
एहि भाती गौर आशीष
सुन सिये हिय हर्षित चली।
तुलसी भावनी पूज्य पुनि पुनि
मुदित मन मंदिर चली।।
श्री जान गौरी अनुकूल सियहिय हरष न जाये कहि।
श्री मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे।।
            ।।श्री राम जन्म स्तुति।।
सुर समूह विनती करि पँहुचे निज निज धाम
जब निवास प्रभु प्रकटे अखिल लोक विश्राम।।
भये प्रकट कृपाला दीनदयाला
कौसिल्या हितकारी,
हर्षित महतारी मुनिमन हारी।
अद्भुद रूप निहारी,
लोचन अभिरामा तन घनश्मा।
निज आयुद भुज चारी,
भूषण वनमाला नयन विशाला
शोभा सिंधु खरारी।
कह दोई कर जोरी
अस्तुति तोरी केहि विधि करहु अनन्ता,
करुणा सुख सागर सब गुण आगर
जेहि गावहि सुरति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी
भयऊ प्रगट श्रीकंता
ब्रमण्ड निकाया निर्मित माया,
रोम रोम प्रति वेद कहे।
मम उर सो बासी यह उपहासी
सुनत धीर मति थिर न रहे
उपजा जब ग्याना प्रभु मुस्काना
चरित बहुत विधि कीन्ह चाहे
कहि कथा सुहाई मात बुझाई
जेहि प्रकार सुत प्रेम लहे
माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा,
कीजै शिशु लीला अति प्रिय शीला
यह सुख परम् अनूपा,
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना
होई बालक सुर भूपा।
यह चरित जो गावहि हरि पद पावहि,
ते न परे भव कूपा।।
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।।
लखन सीया रामचंद्र की जय





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