रविवार, 12 जून 2022

अरण्यकाण्ड अर्थ सहित Arandkand In Hindi Arth Sahit


नमस्कार साथियों आज के इस अंक में हम आपको लेकर आए हैं, श्रीरामचरितमानस का तृतीय सोपान अर्थात अरण्यकाण्ड, गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित के तृतीय सोपान अरण्यकाण्ड में कुल ४६ दोहे हैं। इसके अंतर्गत निम्न प्रसंग आते हैं-
* मंगलाचरण
*जयंत की कुटिलता और फल प्राप्ति
*अत्रि-मिलन एवं स्तुति
* श्रीसीता-अनसूया-मिलन और श्री सीताजी को अनसूयाजी का पतिव्रतधर्म कहना
* श्रीरामजी का आगे प्रस्थान, विराध-वध  और सरभंग प्रसंग
* राक्षस वध की प्रतिज्ञा करना
सुतीक्षण जी का प्रेम अगस्त्य मिलन अगस्त संवाद राम का दंडक वन प्रवेश और जटायु मिलन
* पंचवटी निवास और श्री राम लक्ष्मण संवाद
*: शूर्पणखा की कथा शूर्पणखा का खर-दूषण  के पास जाना और खर दूषण आदि का वध
* शूर्पणखा का रावण के निकट जाना श्री सीता जी का अग्नि प्रवेश और माया सीता
* मारीच प्रसंग और स्वर्ण मृग रूप में मारीच का मारा जान
* श्री सीता हरण और श्री सीता विलाप
* जटायु रावण युद्ध
* श्री राम जी का विलाप जटायु का प्रसंग
* कबंध उद्धार
* शबरी पर कृपा नवधा भक्ति उपदेश और पंपासर की ओर प्रस्थान
* नारद राम संवाद
* संतो के लक्षण और सत्संग भजन के लिए प्रेरणा
              ।‌।श्री गणेशाय नमः।।
                  तृतीय सोपान
                ।।अरण्यकाण्ड।।
श्लोक- मूलं धर्मतरोविवेकजलधे: पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुभास्करं ह्मघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्व:सम्भवं शकरं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम्।। १ ।।
धर्म रूपी वृक्ष के। मूल विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचंद्र बैराग्य रूपी कमल के सूर्य पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले तीनों तापमान को हरने वाले मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप ब्रह्मा जी के वंशज तथा कलंक नाशक महाराज श्री रामचंद्र जी के प्रिय श्री शंकर जी की मैं वंदना करता हूं।।१।।
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे।।२।।
जिनका शरीर जलयुक्त मेघों के समान सुंदर एवं आनंदघन है जो सुंदर पीत वस्त्र धारण किए हैं जिनके हाथों में बाण और धनुष है कमर उत्तम तरकस के भार से सुशोभित है कमल के समान विशाल नेत्र हैं और मस्तक पर जटा जूट धारण किए हैं उन अत्यंत शोभायमान श्री सीता जी और श्री लक्ष्मण जी सहित मार्ग में चलते हुए आनंद देने वाले श्री रामचंद्र जी को मैं भजता हूं।।२।।
सो०-उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहि बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ जे हरि बिमुख न धर्म रति।।
हे पार्वती श्री राम जी के गुण गूढ हैं पंडित और मुनि उन्हें समझ कर बैराग प्राप्त करते हैं परंतु जो भगवान से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नहीं है बे महामूढ मोह को प्राप्त होते हैं।
                      ।। चौपाई ।।
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई।
मति अनुरूप अनूप सुहाई।।
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन।।
और वासियों के और भरत जी के अनुपम और सुंदर प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया अब देवता मनुष्य और मुनियों के मन को भाने वाले प्रभु श्री रामचंद्र जी के अत्यंत पवित्र चरित्र सुनो जिन्हें वे वन में कर रहे हैं।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए।।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर।।
एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री राम जी ने अपने हाथों से भाती भाती के गहने बनाए और सुंदर स्फाटिकशिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीता जी को पहनाये।
सुरपति सुत धरि बायस बेषा।
सठ चाहत रघुपति बल देखा।।
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।
महा मंदमति पावन चाहा।।
देवराज इंद्र का मूर्ख पुत्र जयंत कौवे का रूप धरकर श्री रघुनाथ जी का बल देखना चाहता है जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो।
सीता चरन चोंच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा।।
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना।।
वह मूढ़ मंदबुद्धि कारण से बना हुआ कौवा सीता जी के चरणों में चोंच मार कर भागा जब रक्त वह चला तब श्री रघुनाथ जी ने जाना और धनुष पर सींक का बाण संधान किया।
दोहा०- अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह।।१।।
श्री रघुनाथ जी जो अत्यंत ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयंत ने आकर छल किया।
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा।
चला भाजि बायस भय पावा।।
धरि निज रुप गयउ पितु पाही।
राम बिमुख राखा तेहि नाही।।
मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मसर दौड़ा। कौवा भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इंद्र के पास गया, पर श्री राम जी का विरोधी जानकर इंद्र ने उसको नहीं रखा।
भा निरास उपजी मन त्रासा।
जथा च्रक भय रिषि दुर्बासा।।
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका।।
तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, सिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ भय शोक से व्याकुल होकर भागता फिर।
काहू बैठन कहा न ओही।
राखि को सकइ राम कर द्रोही।।
मातु मृत्यु पितु समन समाना।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना।।
किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। श्री राम जी के द्रोही को कौन रख सकता है? हे गरुड़! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत बिष के समान हो जाता है।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी।
ता कहॅ बिबुधनदी बैतरनी।।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।
मित्र सैकड़ों शत्रुओं की थी करनी करने लगता है देव नदी गंगा जी उसके लिए वैतरणी हो जाती हैं हे भाई सुनिए जो श्री रघुनाथ जी के विमुख होता है समस्त जगत उसके लिए अग्नि से भी अधिक गर्म हो जाता है।
नारद देखा बिकल जयंता।
लागि दया कोमल चित संता।।
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
नारदजी ने जयंत को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गयी, क्योकि संतों का चित्त बडा कोमल होता हैं। उन्हौने उसे तुरंत श्रीरामजी के पास भेज दिया। उसने पुकारकर कहा- हे शरणागतके हितकारी! मेरी रक्षा किजिये।आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई।।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।
मै मतिमंद जानि नहिं पाई।।
आतुर और भयभीत जयंत ने जाकर श्री राम जी के चरण पकड़ लिए और कहा हे दयालु रघुनाथ जी रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता को मैं मंदबुद्धि जान नहीं पाया था।
निज कृत कर्म जनित फल पायउॅ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउॅ।।
सुनि कृपाल अति आरत बानी।
एक नयन करि तजा भवानी।।
अपने किए हुए कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण तक कर आया हूं। हे पार्वती कृपालु श्री रघुनाथ जी ने उनकी अत्यंत आर्त वाणी सुनकर उसे एक आंख का काना करके छोड़ दिया।
सो०-किन्ह मोह बस द्रोह जद्दपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाडेउ करि छोह को कृपाल रघुवीर सम।।२।।
उसने मोह बस द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध करना ही उचित था पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया श्री राम जी के समान कृपालु और कौन होगा।
रघुपति चित्रकूट बसि नाना।
चरित किए श्रृती सुधा सामान।।
बहुरि राम अस मन अनुमाना।
होइहि भीर सबहिं मोहि जाना।।
चित्रकूट में बस कर श्री रघुनाथ जी ने बहुत से चरित्र किए जो कानों को अमृत के समान हैं श्रीराम जी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं इससे बड़ी भीड़ हो जाएगी।
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई।
सीता सहित चले द्वौ भाई।।
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ।
सुनत महामुनि हरषित भयऊ।।
सब मुनियों से विदा लेकर सीता जी सहित दोनों भाई चले जब प्रभु अत्री जी के आश्रम में गए तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए।
पुलकित गात अत्रि उठि धाए।
देखि रामु आतुर चलि आए।।
करत दंडवत मुनि उर लाए।
प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए।।
शरीर पुलकित हो गया अत्री जी उठकर दौड़े उन्हें दौड़े आते देखकर श्री राम जी और भी शीघ्रता से चले आए दंडवत करते हुए ही श्री राम जी को मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेम असुरों के जल से दोनों जनों को नहला दिया।
देखि राम छबि नयन जुडाने।
सादर निज आश्रम तब आने।।
करि पूजा कहि बचन सुहाए।
दिए मूल फल प्रभु मन भाए।।
श्री राम जी की छवि देख कर मुनि के नेत्र शीतल हो गए तब उनको आदर पूर्वक अपने आश्रम ले गए ले आए पूजन करके सुंदर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए जो प्रभु के मन को बहुत रुचे।
सो०- प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत।।
प्रभु आसन पर विराजमान है नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।
छं०- नमामि भक्त वत्सलं।
कृपालु शील कोमलं।।
भजामि ते पदांबुजं।
अकामिनां स्वधामदं।।
हे भक्तवत्सल ! हे कृपालु ! हे कोमल स्वभाव वाले ! मैं आपको नमस्कार करता हूं। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूं।
निकाम श्याम सुंदरं।
भवांबुनाथ मंदरं।।
प्रफुल्ल कंज लोचनं।
मदादि दोष मोचनं।।
आप नितांत सुंदर श्याम संसार रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषो से छुड़ाने वाले हैं।
प्रलंब बाहु विक्रमं।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं।।
निषंग चापसायकं।
धरं त्रिलोक नायकं।।
हे प्रभो ! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय है आप तरकस और धनुष बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,
दिनेश वंश मंडनं।
महेश चाप खंडनं।।
मुनींद्र संत रंजनं।
सुरारि वृंद भंजनं।।
सूर्यवंश के भूषण महादेव जी के धनुष को तोड़ने वाले मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं।
मनोज वैरि वंदितं।
अजादि देव सेवितं।।
विशुद्ध बोध विग्रहं।
समस्त दूषणापहं।।
आप कामदेव के शत्रु महादेव जी के द्वारा वन्दित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं।
नमामि इंदिरा पतिं।
सुखाकरं सतां गतिं।।
भजे सशक्ति सानुजं।
शची पति प्रियानुजं।।
हे लक्ष्मीपति हे सुखों की खान और सत पुरुषों की एकमात्र गति में आपको नमस्कार करता हूं हे शचीपति के प्रिय छोटे भाई स्वरूपा शक्ति सीता जी और छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित आपको मैं भजता हूं।
त्वदंघ्रि मूल ये नरा:।
भजंति हीन मत्सरा:।।
पतंति नो भवार्णवे।
वितर्क वीचि सौकुले।।
जो मनुष्य मत्सर रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं वे तर्क वितर्क रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते,
विविक्त वासिन: सदा।
भजंति मुक्तये मुदा।।
निरस्य इंद्रियादिकं।
प्रयांति ते गतिं स्वकं।।
जो एकांत बासी पुरुष मुक्ति के लिए इंद्रियादि का  निग्रह करके प्रसन्नता पूर्वक आपको भजते हैं बे स्वकीय गति को प्राप्त होते हैं।
तमेकमद्भुतं प्रभुं।
निरीहमीश्धरं विभुं।।
जगद्गुरुं च शाश्वतं।
तुरीयमेव केवलं।।
उनको जो एक अद्भुत प्रभु इच्छा रहित ईश्वर व्यापक जगतगुरु सनातन तुरीय और केवल है।
भजामि भाव वल्लभं।
कुयोगिनां सुदुर्लभं।।
स्वभक्त कल्प पादपं।
समं सुसेव्यमन्वहं।।
जो भाव प्रिय कुयोगियो के लिए अत्यंत दुर्लभ अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष सम और सदा सुख पूर्वक सेवन करने योग्य है मैं निरंतर भजता हूं।
अनूप रुप भूपतिं।
नतोऽहमुर्विजा पतिं।।
प्रसीद मे नमामि ते।
पदाब्ज भक्ति देहि में।।
हे अनुपम सुंदर ! हे पृथ्वी पति ! हे जानकीनाथ ! में आपको प्रणाम करता हूं मुझ पर प्रसन्न होइए मैं आपको नमस्कार करता हूं मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए।
पठंति ये स्तवं इदं।
नरादरेण ते पदं।।
व्रजंति नात्र संशयं।
त्वदीय भक्ति संयुता:।।
जो मनुष्य इस स्तुति को आदर पूर्वक पढ़ते हैं वह आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं इसमें संदेह नहीं।
दो०- बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुं तजै मति मोरि।।४।।
मुनि ने विनती करके और फिर सिर नवाकर हाथ जोड़कर कहा हे नाथ मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी ना छोड़े।
अनुसुइया के पद गहि सीता।
मिली बहोरि सुसील बिनीता।।
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई।
आसिष देइ निकट बैठाई।।
फिर परम शीलवती विनम्र सीता जी अनसूया जी के चरण पकड़ कर उनसे मिली ऋषि पत्नी के मन में बड़ा सुख हुआ उन्होंने आशीष देकर सीताजी को पास बैठा लिया।
दिब्य बसन भूषन पहिराए।
जे नित नूतन अमल सुहाए।।
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी।
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी।।
और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाये, जो नित नए निर्मल और सुहावने  बने रहते हैं । फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगी।
मातु पिता भ्राता हितकारी।
मतिप्रद सब सुनु राजकुमारी।।
अमित दानि भर्ता बयदेही।
अधम सो नारि जो सेव न तेही।।
हे राजकुमारी ! सुनिए माता-पिता भाई सभी हित करने वाले हैं परंतु यह सब एक सीमा तक ही (सुख ) देने वाले हैं परंतु हे जानकी ! पति तो (मोक्षरूप) असीम (सुख) देने वाला है वह स्त्री अधम है जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी।।
बृध्द रोगबस जड धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।
मित्र और स्त्री इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी, और अत्यंत ही दीन-
ऐसेहु पति कर किऍ अपमाना।
नारि पाव जमपुर दुख नाना।।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।
कायॅ बचन मन पति पद प्रेमा।।
ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भांति भांति के दुख पाती है। शरीर वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए बस यह एक  ही धर्म है, एक ही व्रत है, और एक ही नियम,
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं।
बेद पुरान संत सब कहहीं।।
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुं आन पुरुष जग नाहीं।।
जगत में चार प्रकार की पतिव्रताऐ हैं वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है।
मध्यम परपति देखइ कैसें।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई।
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।।
मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराये  पति को कैसे देखती हैं, जैसे वह अपना सगा भाई पिता या पुत्र हो, जो धर्म को विचार कर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती हैं वह निकृष्ट स्त्री हैं ऐसा भेद कहते हैं।
बिनु अवसर भय तें रह जोई।
जानेहु अधम नारि जग सोई।।
पति बंचक परपति रति करई।
रौरव नरक कल्प सत परई।।
और जो स्त्री मौका न मिलने से या भय बस पतिव्रता बनी रहती हैं जगत में उसे अधम स्त्री जानना पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराये पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प  रौरव नर्क में पड़ी रहती है।
पति प्रतिकूल जनम जहं जाई।
बिधवा होई पाइ तरुनाई।।
किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है वह जहां भी जाकर जन्म लेती हैं वहीं जवानी पाकर विधवा हो जाती है।
सो०- सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुं तुलसिका हरिहि प्रिय।।५(क)।।
स्त्री जन्म से ही अपवित्र है किंतु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है आज भी तुलसी जी भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यस गाते हैं।
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउॅ कथा संसार हित।।५(ख)।।
हे सीता ! सुनो तुम्हारा तो नाम ही ले लेकर स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करेंगे तुम्हें तो श्री राम जी प्राणों के समान प्रिय हैं यह कथा तो मैंने संसार के हित के लिए कही है।
सुनि जानकी परम सुखु पावा।
सादर तासु चरन सिरु नावा।।
तब मुनि सन कह कृपानिधाना।
आयसु होई जाउॅ वन आना।।
जानकी जी ने सुनकर परम सुख पाया और आदर पूर्वक चरणों में शीश नवाया तब कृपा की खान श्रीरामजी ने मुनि से कहा आज्ञा हो तो अब दूसरे बनने जाऊं।
संतत मो पर कृपा करेहू।
सेवक जानि तजेहु जनि नेहु।।
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानि।।
मुझपर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोड़िएगा धर्म धुरंधर प्रभु श्री राम जी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेम पूर्वक बोले
जासु कृपा अज सिव सनकादी।
चहत सकल परमारथ बादी।।
ते तुम्ह राम अकाम पियारे।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे।।
ब्रह्मा, शिव और सनकादि  सभी परमार्थवादी जिनकी कृपा चाहते हैं, हे राम जी ! आप वही निष्काम पुरुषों के प्रिय और दीनों के बंधु भगवान हैं, जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं।
अब जानी मैं श्री चतुराई।
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई।।
जेहि समान अतिसय नहिं कोई।
ता कर सील कस न अस होई।।
अब मैंने लक्ष्मी जी की चतुराई समझी जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आप ही को भजा जिसके समान अत्यंत बड़ा और कोई नहीं है उसका शील भला ऐसा क्यों ना होगा?।।
केहि बिधि कहौ जाहु अब स्वामी।
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी।।
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा।
लोचन जल बह पुलक सरीरा।।
मैं किस प्रकार कहूं कि हे स्वामी ! आप अब जाइए हे नाथ ! आप अंतर्यामी हैं आप ही कहिए ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे मुनि के नेत्रों से जल बह रहा है और शरीर पुलकित है।
छं०- तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए।।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई।।
मुनि अत्यंत प्रेम से पूर्ण है उनका शरीर पुलकित है वह नेत्रों को श्री राम जी के मुख कमल में लगाए हुए हैं मैंने ऐसे कौन से जप तप किए थे जिनके कारण मन ज्ञान गुण और इंद्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाए जप योग और धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता है श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात दिन गाता है।
दो०- कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहि अनुकूल।।६(क)।।
श्री रामचंद्र जी का सुंदर यस कलयुग के पापों का नाश करने वाला मन को दमन करने वाला और सुख का मूल है जो लोग इसे आदर पूर्वक सुनते हैं उन पर श्री राम जी प्रसन्न रहते हैं।
सो०- कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहि ते नर चतुर।।६(क)।।
यह कठिन कलिकाल पापों का खजाना है इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है इसमें तो जो लोग सब भरोसो को छोड़कर श्री राम जी को ही भजते हैं वही चतुर हैं।
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा।
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा।।
आगे राम अनुज पुनि पाछें।
मुनि बर बेष बने अति काछे।।
मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री राम जी वन को चले आगे श्री राम जी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मण जी हैं दोनों ही मुनियों का सुंदर वेष बनाए अत्यंत सुशोभित हैं।
उभय बीच श्री सोहइ कैसी।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी।।
सरिता बन गिरि अवघट घाटा।
पति पहिचानि देहि बर बाटा।।
दोनों के बीच में श्री जानकी जी कैसी सुशोभित हैं जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो, नदी बन पर्वत और दुर्गम घाटिया सभी अपने स्वामी को पहचान कर सुंदर रास्ता दे देते हैं।
जहॅ जहॅ जाहिं देव रघुराया।
करहिं मेघ तहॅ तहॅ नभ छाया।।
मिला असुर बिराध मग जाता।
आवतहीं रघुबीर निपाता।
जहां जहां देव रघुनाथ जी जाते हैं वहां वहां बादल आकाश में छाया करते जाते हैं रास्ते में जाते हुए विराध राक्षस मिला सामने आते ही श्री रघुनाथ जी ने उसे मार डाला।
तुरतहिं रुचिर रुप तेंहिं पावा।
देखि दुखी निज धाम पठावा।।
पुनि आए जहॅ मुनि सरभंगा।
सुंदर अनुज जानकी संगा।।
उसने तुरंत सुंदर रूप प्राप्त कर लिया दुखी देखकर प्रभु ने उसे अपने परमधाम को भेज दिया। फिर वे सुंदर छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीता जी के साथ वहां आए जहां मुनि शरभंग जी थे।
दो०- देखि राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म शरभ़ंग।।७।।
श्री रामचंद्र जी का मुख कमल देखकर मुनिश्रेष्ठ के नेत्र रूपी भौंरे अत्यंत आदर पूर्वक उनका पान कर रहे हैं शरभंग जी का जन्म धन्य है।
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला।
संकर मानस राजमराला।।
जात रहेउॅ बिरंचि के धामा।
सुनेउॅ श्रवन बन ऐहहिं रामा।।
हे कृपालु रघुवीर हे शंकर जी के मन रूपी मानसरोवर के राजहंस सुनिए मैं ब्रह्मलोक को जा ही रहा था इतने में कानों से सुना कि श्री रामजी वन में आवेगे।
चितवत पंथ रहेउॅ दिन राती।
अब प्रभु देख जुडानी छाती।।
नाथ सकल साधन मै हीना।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।
तबसे में दिन रात आपकी राह देखता रहा हूं अब प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई हे नाथ मैं सब साधनों से हीन हूं आपने अपना दीन सेवक जान कर मुझ पर कृपा की है।
सो कछु देव न मोहि निहोरा।
निज पन राखेउ जन मन चोरा।।
तब लगि रहहु दीन हित लागी।
जब लगि मिलौ तूम्हहि तनु त्यागी।।
हे देव यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है हे भक्त मनचोर  ऐसा करके आपने अपने प्रण की ही रक्षा की है अब इस दीन के कल्याण के लिए तब तक यहां ठहरीऐ,  जब तक मैं शरीर छोड़कर आपसे मिलूं।
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा।
प्रभु कहॅ देइ भगति बर लीन्हा।।
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा।
बैठे हृदय छाडि सब संगा।।
योग, यज्ञ, जप, जप  जो कुछ व्रत आदि भी मुनि ने किया था सब प्रभु को समर्पण कर के बदले में भक्ति का वरदान ले लिया इस प्रकार चिता रच कर मुनि सरभंग जी हृदय से सब आसक्ती छोड़ कर उस पर जा बैठे।
दो०- सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियॅ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।।८।।
हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुन रूप श्री राम जी सीता जी और छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित प्रभु निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा।
राम कृपाॅ बैकुंठ सिधारा।।
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ।।
सरभंग जी ने योग अग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री राम जी की कृपा से वे बैकुंठपुर चले गए मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद भक्ति का वर ले लिया था।
रिषि निकाय मुनिबर गति देखी।
सुखी भए निज हृदयॅ बिसेषी ।। ॅॅ
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा।
जयति प्रनत हित करुना कंदा।।
ऋषि समूह मुनि श्रेष्ठ सरबभंग जी की यह गति देखकर अपने हृदय में विशेष रूप से सुखी हुए समस्त मुनि वृंद श्री राम जी की स्तुति कर रहे हैं शरणागत हितकारी करुणा कंद प्रभु की जय हो।
पुनि रघुनाथ चले बन आगे।
मुनिबर बृंद बिपुल सॅग लागे।।
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दया।।
फिर श्री रघुनाथ जी आगे वन में चले श्रेष्ठ मुनियों के बहुत से समूह उनके साथ हो लिए हड्डियों का ढेर देखकर श्री रघुनाथ जी को बड़ी दया आई उन्होंने मुनियों से पूछा।
जानतहूॅ पूछिअ कस स्वामी।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी।।
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए।।
हे स्वामी आप सर्वदर्शी और अंतर्यामी है जानते हुए भी हम से कैसे पूछ रहे हैं राक्षसों के दलोने सब मुनियों को खा डाला है यह सुनते ही श्री रघुवीर के नेत्रों में जल छा गया।
 दो०- निसिचर हीन करउॅ महि भुज उठाई पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन।।९।।
रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूंगा फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा जाकर उनको सुख दिया।
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना।
नाम सुतीछन रति भगवाना।।
मन क्रम वचन राम कर सेवक।
सपनेहुॅ आन भरोस न देवक।।
मुनि अगस्त जी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान शिष्य थे उनकी भगवान में प्रीति थी वे मन वचन और कर्म से श्री राम जी के चरणों के सेवक थे उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था।
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा।
करत मनोरथ आतुर धावा।।
हे बिधि दीनबंधु रघुराया।
मोसे सठ पर करिहहिं दाया।।
उन्होंने ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता से दौड़ चले हे विधाता ! क्या दीनबंधु रघुनाथ जी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेंगे ? ।
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं।
मिलिहहिं निज सेवक की नाई।।
मोरे जियॅ भरोस दृण नाहीं।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं।।
क्या स्वामी श्री राम जी छोटे भाई लक्ष्मण जी शहर मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेंगे ? मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता क्योंकि मेरे मन में भक्ति वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है।
नहि सतसंग जोग जप जागा।
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा।।
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की।।
मैंने ना तो सत्संग योग जप अथवा यज्ञ ही किए हैं और ना प्रभु के चरण कमलों में मेरा दृढ़ अनुराग ही है हां दया के भंडार प्रभु की एक बान है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है वह उन्हें प्रिय होता है।
होइहैं सुफल आजु मम लोचन।
देखि बदन पंकज भव मोचन।।
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
अहा ! भवबंधन से छुड़ाने वाली प्रभु के मुखारविंद को देखकर आज मेरे नेत्र सफल होंगे हे भवानी ज्ञानी मुनि प्रेम से पूर्ण रूप से निमग्न है उनकी वह दशा कही नहीं जाती।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा।
को मैं चलेउॅ कहाॅ नहिं बूझा।।
कबहुॅक फिरि पाछें पुनि जाई।
कबहुॅक नृत्य करइ गुन गाई।।
उन्हें दिशा विदिशा और रास्ता कुछ भी नहीं सूझ रह है मैं कौन हूं और कहां जा रहा हूं यह भी नहीं जानते
 वे कभी पीछे घूम कर फिर आगे चलने लगते हैं और कभी गुण गा गा कर नाचने लगते हैं।
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई।
प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई।।
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा।
प्रगटे हृदय हरन भव भीरा।।
मुनि ने  प्रेमा भक्ति प्राप्त कर ली प्रभु श्री राम जी वृक्ष की आड़ में छुपकर देख रहे हैं मुनि का अत्यंत प्रेम देखकर भवभय को हरने वाले श्री रघुनाथ जी मुनि के ह्रदय में प्रगट हो गए।
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा।
पुलक सरीर पनस फल जैसा।।
तब रघुनाथ निकट चलि आए।
देखि दसा निज जन मन भाए।।
मुनि बीच रास्ते में अचल होकर बैठ गए उनका शरीर रोमांच से कटहल के फल के समान हो गया तब श्री रघुनाथ जी उनके पास चले आए और अपने भक्तों की प्रेम दशा देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए।
मुनिहि राम बहु भाॅति जगावा।
जाग न ध्यान जनित सुख पावा।।
भूप रुप तब राम दुरावा।
हृदयॅ चतुर्भुज रुप देखावा।। ॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅ। 
श्री राम जी ने मुनि को बहुत प्रकार से जगाया पर मुनि नहीं जागे क्योंकि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख प्राप्त हो रहा था तब श्री राम जी ने अपने राजरुप को छुपा लिया और उनके हृदय में अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया।
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसे।
बिकल हीन मनि फनिबर जैसे।।
आगें देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा।।
तब मुनि कैसे व्याकुल होकर उठे जैसे श्रेष्ठ सर्प मणि के बिना व्याकुल हो जाता है मुनि ने अपने सामने सीता जी और लक्ष्मण जी सहित श्यामसुंदर विग्रह सुखधाम श्री राम जी को देखा।
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी।
प्रेम मगन मुनिबर बडभागी।।
भुज बिसाल गहि लिए उठाई।
परम प्रीति राखे उर लाई।।
प्रेम में मग्न हुए बे बड़भागी श्रेष्ठ मुनि लाठी की तरह गिरकर श्री राम जी के चरणों में लग गए श्री राम जी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उन्हें उठा लिया और बड़े प्रेम से हृदय से लगा रखा।
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला।
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला।।
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा।
मानहुॅ चित्र माझ लिखि काढा।।
कृपालु श्री रामचंद्र जी मुनि से मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो सोने के वृक्ष से तमाल का वृक्ष गले लग कर मिल रहा हो मुनि खड़े हुए श्री राम जी का मुख देख रहे हैं मानो चित्र में लिखकर बनाए गए हो।
दो०- तब मुनि हृदयॅ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार।।१०।।
तब मुनि ने हृदय में धीरज धर कर बार-बार चरणों को स्पर्श किया फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की।
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी।
अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी।।
महिमा अमित मोरि मति थोरी।
रबि सन्मुख खद्योत अंजोरी।।
मुनि कहने लगे हे प्रभो ! मेरी विनती सुनिए में किस प्रकार से आप की स्तुति करूं? आप की महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला।
श्याम तामरस दाम शरीरं।
जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं।।
पाणि चाप शर कटि तूणीरं।
नौमि निरंतर श्री रघुवीरं।।
हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले हैं जटाओं का मुकुट और मुनियों के वस्त्र पहने हुए हाथों में धनुष बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री राम जी मैं आपको निरंतर नमस्कार करता हूं।
मोह विपिन घन दहन कृशानु:।
संत सरोरुह कानन भानु:।।
निसिचर करि वरूथ मृगराज:।
त्रातु सदा नो भव खग बाज:।।
जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि है, संत रूपी कमलो के बनके प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैं राक्षस रूपी हाथियों के समूह के पछाड़ने के लिए सिंह हैं और भव रूपी पक्षी के मारने के लिए बाज रूप है वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें।
अरुण नयन राजीव सुवेशं।
सीता नयन चकोर निशेशं।।
हर हृदि मानस बाल मरालं।
नौमि राम उर बाहु विशालं।।
हे लाल कमल के समान नेत्र और सुंदर वेश वाले सीता जी के नेत्र रूपी चकोर के चंद्रमा शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचंद्र जी मैं आपको नमस्कार करता हूं।
संशय सर्प ग्रसन उरगाद:।
शमन सुकर्कश तर्क़ विषाद:।।
भव भंजन रंजन सुर यूथ:।
त्रातु सदा नो कृपा वरुथ:।।
संशय रुपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड़ है, अत्यंत कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनंद देने वाले हैं वे कृपा के समूह श्री राम जी सदा हमारी रक्षा करें।
निर्गुण सगुण विषम सम रुपं।
ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं।।
अमलमखिलमनवद्यमपारं।
नौमि राम भंजन महि भारं।।
हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप ! हे ज्ञान वाणी और इन्द्रियों से अतीत ! हे अनुपम, निर्मल, संपूर्ण दोष रहित, अनंत एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचंद्र जी ! मैं आपको नमस्कार करता हूं।
भक्त कल्पपादप आराम:।
तर्जन क्रोध लोभ मद काम:।।
अति नागर भव सागर सेतु:।
त्रातु सदा दिनकर कुल केतु:।।
जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यंत ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्य कुल की ध्वजा श्री राम जी सदा मेरी रक्षा करें।
अतुलित भुज प्रताप बल धाम:।
कलि मल विपुल विभंजन नाम:।।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्राम:।
संतत़ं शं तनोतु मम राम:।।
जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है जो बल के धाम है जिनका नाम कलयुग के बड़े भारी पापों का नाश करने वाला है जो धर्म के कवच हैं और जिनके गुण समूह आनंद देने वाले हैं वे श्री राम जी निरंतर मेरे कल्याण का विस्तार करें।
जदपि बिरज ब्यापक कबिनासी।
सब के हृदयॅ निरंतर बासी।।
तदपि अनुज श्री सहित खरारी।
बसतु मनसि मम काननचारी।।
यद्यपि आप निर्मल व्यापक अविनाशी और सब के हृदय में निरंतर निवास करने वाले हैं तथापि है खरारि श्री राम जी ! लक्ष्मण जी और सीता जी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए।
जे जनहि ते जानहुॅ स्वामी।
सगुन अगुन उर अंतरजामी।।
जो कोसलपति राजिव नंयना।
करउ सो राम हृदय मम अयना।।
हे स्वामी ! आपको जो सगुण, निर्गुण और अंतर्यामी जानते हो, वे जाना करें, मेरे हृदय को तो कौशल पति कमलनयन श्री राम जी ही अपना घर बनावें।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे।।
सुनि मुनि बचन राम मन भाए।
बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए।।
ऐसा अभिमान भूलकर भी ना छूटे कि मैं सेवक हूं और श्री रघुनाथ जी मेरे स्वामी हैं मुनि के वचन सुनकर श्री राम जी मन में बहुत प्रसन्न हुए तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया।
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही।
जो बर मागहु देउॅ सो तोही।।
मुनि कह मैं बर कबहॅ न जाचा।
समुझि न परइ झूठ का साचा।।
हे मुनि मुझे परम प्रसन्न जानो जो वर मांगो, वही मैं तुम्हें दूं ! मुनि सुतीक्ष्ण जी ने कहा मैंने तो बर कभी मांगा ही नहीं मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है।
तुमहहि नीक लागै रघुराई।
सो मोहि देहु दास सुखदाई।।
अबिरल भगति बिरति बिग्याना।
होहु सकल गुन ग्यान निथाना।।
हे रघुनाथ जी हे दासों को सुख देने वाले आपको जो अच्छा लगे मुझे वही दीजिए तुम प्रगाढ़ भक्ति वैराग्य विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ।
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा।
अब सो देहु मोहि जो भावा।।
प्रभु ने जो वरदान दिया वह तो मैंने पा लिया अब मुझे जो अच्छा लगता है वह दीजिए।
दो०- अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम।। ११।।
हे प्रभु हे राम जी छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीता जी सहित धनुष बाण धारी आप निष्काम होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भांति सदा निवास कीजिए।
एवमस्तु करि रमानिवासा।
हरषि चले कुभंज रिषि पासा।।
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएं।
भए मोहि एहिं आश्रम आएं।।
एवमस्तु ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचंद्र जी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले गुरु अगस्त जी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए।
अब प्रभु संग जाउं गुर पाही।
तुम कह नाथ निहोरा नाहीं।।
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई।
लिए संग बिहसे द्वौ भाई।।
अब मैं भी प्रभु के साथ गुरुजी के पास चलता हूं इसमें हे नाथ ! आप पर मेरा कोई एहसान नहीं है मुनि की चतुराता को देखकर कृपा के भंडार श्री राम जी ने उनको साथ ले लिया और दोनों भाई हंसने लगे।
पंथ कहत निज भगति अनूपा।
मुनि आश्रम पहुंचे सुरभूपा।।
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ।
करि दंडवत कहत अस भयऊ।।
रास्ते में अपनी अनुपम भक्ति का वर्णन करते हुए देवताओं के राजराजेश्वर श्री राम जी अगस्त्य मुनि के आश्रम पहुंचे सुतीक्ष्ण तुरंत ही गुरु अगस्त जी के पास गए और दंडवत करके ऐसा कहने लगे।
नाथ कोसलाधीस कुमारा।
आए मिलन जगत आधारा।।
राम अनुज समेत बैदेही।
निसि दिनु देव जपत हहु जेही।।
हे नाथ ! अयोध्या के राजा दशरथ जी के कुमार जगदाधार श्री रामचंद्र जी छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीता जी सहित आपसे मिलने आए हैं जिनका हे देव ! आप रात दिन जप करते रहते हैं।
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए।
हरि बिलोकि लोचन जल छाए।।
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई।
रिषि अति प्रीति लिए उर लाई।।
यह सुनते ही अगस्त जी तुरंत ही उठ दौड़े भगवान को देखते ही उनके नेत्रों में जल भर आया दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पड़े ऋषि ने बड़े प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया।
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानि।
आसन बर बैठारे आनी।।
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा।
मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा।।
ज्ञानी मुनि ने आदर पूर्वक कुशल पुछकर उनको लाकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया फिर बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा मेरे समान भाग्यवान आज दूसरा कोई नहीं है।
जहॅ लगि रहे अपर मुनि बृंदा।
हरषे सब बिलोकि सुखकंदा।।
वहां जहां तक अन्य मुनिगण थे सभी आनंदकंद श्री राम जी के दर्शन करके हर्षित हो गए।
दो०- मनि समूह महॅ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इंदु तन चितवत मानहुॅ निकर चकोर।।१२।।
मुनियों के समूह में श्री रामचंद्र जी सब की ओर सन्मुख होकर बैठे हैं ऐसा जान पड़ता है मानो चकोरो का समुदाय शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की ओर देख रहा हो।
तब रघुवीर कहा मुनि पाहीं।
तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं।।
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउॅ।
ताते तात न कहि समुझायउॅ।।
तब श्री राम जी ने मुनि से कहा हे प्रभो ! आप से तो कुछ छिपाव  है नहीं मैं जिस कारण से आया हूं वह आप जानते ही हैं इसी से हे तात ! मैंने आपसे समझा कर कुछ नहीं कहा।
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोहि।
जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।।
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी।
पूछेहु नाथ मोहि का जानी।।
हे प्रभु अब आप मुझे वही मंत्र दीजिए जिस प्रकार में मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूं प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्काए और बोले हे नाथ ! आपने क्या समझ कर मुझसे यह प्रश्न किया है?।
तुम्हरेइॅ भजन प्रभाव अघारी।
जानउॅ महिमा कछुक तुम्हारी।।
ऊमरि तरु बिसाल तब माया।
फल ब्रह्मांण अनेक निकाया।।
हे पापों का नाश करने वाले मैं तो आप ही के भजन के प्रभाव से आपकी कुछ थोड़ी सी महिमा जानता हूं आपकी माया गूलर के विशाल वृक्ष के समान है अनेकों ब्रह्मांण्डों के समूह ही जिसके फल हैं।
जीव चराचर जंतु समाना।
भीतर बसहिं न जानहिं आना।।
ते फल भच्छक कठिन कराला।
तव भयॅ डरत सदा सोउ काला।।
चर और अचर जीव जंतुओं के समान उनके भीतर बसते हैं और वे दूसरा कुछ नहीं जानते उन फलों का भक्षण करने वाला कठिन और कराल काल है वह काल भी सदा आप से भयभीत रहता है।
ते तुम्ह सकल लोकपति साई।
पूॅछेहु मोहि मनुज की नाई।।
यह बर मागउॅ कृपानिकेता।
बसहु हृदयॅ श्री अनुज समेता।।
उन्हीं आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझ से मनुष्य की तरह प्रश्न किया है हे कृपा के धाम मैं तो यह वर मांगता हूं कि आप श्री सीता जी और छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।
अबिरल भगति बिरति सतसंगा।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा।।
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।।
मुझे प्रगाढ़ भक्ति वैराग्य सत्संग और आपके चरण कमलों में अटूट प्रेम प्राप्त हो यद्यपि आप अखंड और अनंत ब्रह्म है जो अनुभव से ही जानने में आते हैं और जिनका संत जन भजन करते हैं।
अस तव रुप बखानउॅ जानउॅ।
फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउॅ।।
संतत दासन्ह देहु बड़ाई।
तातें मोहि पुॅछेहु रघुराई।।
यद्यपि मैं आपके ऐसे रूप को जानता हूं और उसका वर्णन भी करता हूं तो भी लौट लौटकर मैं सगुण ब्रह्म में ही प्रेम मानता हूं आप सेवकों को सदा ही  बड़ाई दिया करते हैं इसी से हे रघुनाथ ! जी आपने मुझसे पूछा है।
है प्रभु परम मनोहर ठाऊॅ।
पावन पंचवटी तेहि नाऊॅ।।
दंडक वन पुनीत प्रभु करहू।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू।।
हे प्रभो ! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है उसका नाम पंचवटी है हे प्रभु ! आप दंडक बन को पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतम जी के कठोर शाप को हर लीजिए।
बास करहु तहॅ रघुकुल राया।
कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया।।
चले राम मुनि आयसु पाई।
तुरतहिं पंचबटी निअराई।।
हे रघुकुल के स्वामी आप सब मुनियों पर दया करके वही निवास कीजिए मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्र जी वहां से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुंच गए।
दो०- गीधराज सें भेंट भइ बहु बिधि प्रीति बढाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ।।१३।।
वहां गृध्रराज जटायु से भेंट हुई उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्र जी गोदावरी जी के समीप पर्णकुटी जाकर रहने लगे।
जब ते राम किन्ह तह बासा।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा।।
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए।
दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए।।
जब से श्री राम जी ने वहां निवास किया तब से मुनि सुखी हो गए उनका डर जाता रहा पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए वे दिनोंदिन अधिक सुहावने होने लगे।
खग मृग बृंद आनंदित रहहीं।
मधुप मधुर गुंजत छबि लहही।।
सो बन बरनि न सक अहिराजा।
जहाॅ प्रगट रघुबीर बिराजा।।
पक्षी और पशुओं के समूह आनंदित रहते हैं और भंवरे मधुर गुंजार करते हुए शोभा पा रहे हैं जहां प्रत्यक्ष श्री राम जी विराजमान हैं उस वन का वर्णन सर्पराज शेष जी भी नहीं कर सकते।
एक बार प्रभु सुख आसीना।
लछिमन बचन कहे छलहीना।।
सुर नर मुनि सचराचर साई।
मैं पूछउॅ निज प्रभु की नाई।।
एक बार प्रभु श्री राम जी सुख से बैठे हुए थे उस समय लक्ष्मण जी ने उनसे छलरहित वचन कहे हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी ! मैं अपने प्रभु की तरह आपसे पूछता हूं।
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।
सब तज करौं चरन रज सेवा।।
कहहु ग्यान बिराग अरु माया।
कहहु सो भगति करहु जेहिं दया।।
हे देव ! मुझे समझा कर वही कहिए जिससे सब छोड़ कर मैं आपके चरण रज की ही सेवा करु ज्ञान, बैराग और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए जिसके कारण आप दया करते हैं।
दो०- ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।१४।।
हे प्रभु ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझा कर कहिए जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक तथा भ्रम नष्ट हो जाए।
थोरहि महॅ सब कहउॅ बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित लाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
हे तात मैं थोड़े ही मैं सब समझा कर कहे देता हूं तुम चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो मैं और मेरा तू और तेरा यही माया है जिसने समस्त जीवो को बस में कर रखा है।
गो गोचर जहॅ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ।।
इंद्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, हे भाई ! उस सब को माया जानना उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या इन दोनों भेदों को तुम सुनो।
एक दुष्ट अतिसय दुखरुपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल जाके।।
एक दुष्ट है और अत्यंत दुख रूप है जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएं में पड़ा हुआ है और एक जिसके वश में गुण हैं और जो जगत की रचना करती है वह प्रभु से प्रेरित होती है उसके अपना बल कुछ भी नहीं है।
ग्यान मान जहॅ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माही।।
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।
ज्ञान वह है जहां मान आदि एक भी नहीं है और जो सब में समान रूप से ब्रह्म को देखता है ।हे तात उसी को परम वैराग्य वान कहना चाहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो।
दो०- माया ईस न आपु कहुॅ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।१५।।
जो माया को, ईश्वरको, और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए जो बंधन और मोक्ष देने वाला सबसे परे और माया का प्रेरक है वह ईश्वर है।
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।।
जातें बेगि द्रवउॅ मैं भाई।
सो मम भगति भगत सुखदाई।।
धर्म से बैराग और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है ऐसा वेदों ने वर्णन किया है और हे भाई ! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूं वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है।
सो सुतंत्र अवलंब न आना।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना।।
भगति तात अनुपम सुखमूला।
मिलइ जो संत होइॅ अनुकूला।।
वह भक्ति स्वतंत्र है उसको दूसरे साधन का सहारा नहीं है ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन है हे तात भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है जब संत अनुकूल होते हैं।
भगति कि साधन कहउॅ बखानी।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूं यह सुगम मार्ग है जिससे जीव मुझको सहज ही पाए जाते हैं पहले तो ब्राह्मणों के चरणो में अत्यंत प्रीति हो और वेदों की रीति के अनुसार अपने अपने कर्मों में लगा रहे।
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा।
तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं।
मम लीला रति अति मन माहीं।।
इसका फल फिर विषयों से वैराग्य होगा  तब मेरे धर्म में प्रेम उत्पन्न होगा तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्ति दृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यंत प्रेम होगा।
संत चरन पंकज अति प्रेमा।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा।।
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा।
सब मोहि कहॅ जानै दृढ़ सेवा।।
जिनका संतो के चरण कमलों में अत्यंत प्रेम हो मन वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो,।
मम गुन गावत पुलक सरीरा।
गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें।
तात निरंतर बस मैं ताकें।।
मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो, जाए वाणी गदगद हो जाए, और नेत्रों से जल बहने लगे और काम, मद और दंभ आदि जिसमें ना हो, हे भाई ! मैं सदा उनके वश में रहता हूं।
दो०- बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुॅ करहुॅ ॅॅसदा बिश्राम।।१६।। 
जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति, है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं उनके ह्रदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूं।
भगति जोग सुनि अति सुख पावा।
लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा।।
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती।।
इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मण जी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्र जी के चरणों में से निभाया इस प्रकार वराग्य ज्ञान गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए।
सूपनखा रावन कै बहिनी।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।
पंचबटी सो गई एक बारा।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।।
शूर्पणखा नामक रावण की एक बहन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल हो गई।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी।
पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ बिकल सक मनहि न रोकी।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।।
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं -) हे गरुड़ जी (शूर्पणखा- जैसी राक्षसी, धर्मज्ञानशून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई पिता-पुत्र ही हो विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती जैसे सूर्य कांत मणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है।
रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई।
बोली बचन बहुत मुसुकाई।।
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी।
यह सॅजोग बिधि रचा बिचारी।।
वह बहुत सुंदर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर और बहुत मुस्कुरा कर वचन बोली- ना तो तुम्हारे सामान कोई पुरुष है ना मेरे समान स्त्री विधाता ने यह संयोग बहुत विचार कर रचा है।
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं।
देखेउॅ खोजि लोक तिहु नाही।।
तातें अब लगि रहिउॅ कुमारी।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी।।
मेरे योग्य पुरुष जगत भर में नहीं है मैंने तीनों लोकों को खोज देखा। इसी से मैं अब तक कुंवारी रही अब तुमको देखकर कुछ मन माना है।
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता।।
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी।।
सीताजी की ओर देखकर प्रभु श्री रामचंद्र जी ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है तब वह लक्ष्मण जी के पास गयी। लक्ष्मण जी उसे शत्रु की बहन समझकर और प्रभु की ओर देखकर कोमल वाणी से बोले-
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा।
पराधीन नहिं तोर सुपासा।।
प्रभु सर्मथ कोसलपुर राजा।
जो कछु करहिं उनहिं सब छाजा।।
हे सुंदरी ! सुन, मैं तो उनका दास हूं । मैं पराधीन हूं अतः तुम्हें सुभीता ना होगा। प्रभु सर्मथ है, कौशलपुर के राजा हैं, वे जो कुछ करें उन्हें सब फबता है।
सेवक सुख चह मान भिखारी।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी।।
लोभी जसु चह चार गुमानी।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी।।
सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी धन और व्यभिचारी शुभगति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, चाहे, तो यह सब प्राणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते हैं।
पुनि फिरि राम निकट सो आई।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई।।
लछिमन कहा तोहि सो बरई।
जो तृन तोरि लाज परिहरई।।
वह लौटकर श्री राम जी के पास आई प्रभु ने फिर उसे लक्ष्मण जी के पास भेज दिया। लक्ष्मण जी ने कहा तुम्हें वही बरेगा जो लज्जा को तृण तोड़कर त्याग देगा।
तब खिसियानी राम पहिं गई।
रूप भयंकर प्रगटत भई।।
सीतहि सभय देखि रघुराई।
कहा अनुज सन सयन बुझाई।।
तब वह खिसियायी हुई श्री राम जी के पास गई और उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया सीता जी को भयभीत देखकर श्री रघुनाथ जी ने लक्ष्मण जी को इशारा देकर कहा।
दो०- लछिमन अति लाघवॅ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहॅ मनौ चुनौती दीन्हि।।१७।।
लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से उसको बिना नाक कान की कर दिया मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो।
नाक कान बिनु भइ बिकरारा।
जनु स्त्रव सैल गेरु कै धारा।।
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता।।
बिना नाक कान के वह विकराल हो गई।(उसके शरीर से रक्त किस प्रकार बहने लगा) मानो (काले)पर्वत से गेरु की धारा बह रही हो । वह विलाप करती हुई खर दूषण के पास गयी।(और बोली) हे भाई ! तुम्हारे पौरुष को धिक्कार है, तुम्हारे बल को धिक्कार है।
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई।
जातुधान सुनि सेन बनाई।।
धाए निसिचर निकर बरूथा।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।।
उन्होंने पूछा, तब शूर्पणखा ने सब समझा कर कहा । सब सुनकर राक्षसों ने सेना तैयार की । राक्षस समूह झुंड के झुंड दौड़े। मानो पंख धारी काजल के पर्वतों का झुंड हो।
नाना बाहन नानाकारा।
नानायुध धर घोर अपारा।।
सूपनखा आगे करि लीनी।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी।।
अनेकों प्रकार की सवारियों पर चढ़े हुए तथा अनेकों आकार के हैं। वे अपार हैं और अनेकों प्रकार के असंख्य भयानक हथियार धारण किए हुए हैं। उन्होंने नाक कान कटी हुई अमंगल रुपड़ी शूर्पणखा को आगे कर लिया।
असगुन अमित होहिं भयकारी।
गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी।।
गर्जहिं तर्जहिं गगन उडाहीं।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं।।
अनगिनत भयंकर अशकुन हो रहे हैं परंतु मृत्यु के बस होने के कारण वे सब के सब उनको कुछ गिनते ही नहीं। बरसते हैं ललकार ते हैं और आकाश में उड़ते हैं सेना देखकर योद्धा लोग बहुत ही हर्षित होते हैं।
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई।
धरि मारहु तिय लेहु छडाई।।
धूरि पूरि नभ मंडल रहा।
राम बोलाइ अनुज सन कहा।।
कोई कहता है दोनों भाइयों को जीता ही पकड़ लो पकड़कर मार डालो और स्त्री को छीन लो आकाश मंडल धूल से भर गया तब श्री रामजी ने लक्ष्मण जी को बुलाकर उनसे कहा।
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर।
आवा निसिचर कटकु भयंकर।।
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी।
चले सहित श्री सर धनु पानी।।
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है जानकी को लेकर तुम पर्वत की कंदरा में चले जाओ सावधान रहना प्रभु श्री रामचंद्र जी के वचन सुनकर लक्ष्मण जी हाथ में धनुष बाण लेकर श्री सीता जी सहित चले।
देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदंड चढावा।।
शत्रुओं की सेना चली आई है यह देखकर श्री राम जी ने हंसकर कठिन धनुष को चढ़ाया।
छं०- कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाॅधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों।।
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुॅ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै।।
कठिन धनुष चढ़ाकर सिर पर जटा का जूड़ा बांधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं जैसे मरकत मणि के पर्वत पर करोड़ों बिजलियो से दो सांप लड़ रहे हो कमर में तरकस कस कर विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधार कर प्रभु श्री रामचंद्र जी राक्षसों की ओर देख रहे हैं मानो मतवाले हाथियों के समूह को देखकर सिंह ताक रहा हो।
सो०- आइ गए बगमेल धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज।।१८।।
पकड़ो पकड़ो पुकारते हुए राक्षस योद्धा बाग छोड़कर दौड़े हुए आए जैसे बाल सूर्य को अकेला देखकर मन्देह नामक दैत्य घेर लेते हैं।
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी।
थकित भई रजनीचर धारी।।
सचिव बोलि बोले खर दूषन।
यह कोउ नृप बालक नर भूषन।।
प्रभु श्री राम जी को देखकर राक्षसों की सेना थकित गई । वे उन पर बाण नहीं छोड़ सके। मंत्री को बुलाकर खर दूषण ने कहा यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण है।
नाग असुर सुर नर मुनि जेते।
देखे जिते हते हम केते।।
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई।
देखी नहिं असि सुंदरताई।।
जितने भी नाग, असुर, देवता, मनुष्य और मुनि हैं, उनमें से हमने ना जाने कितने ही देखे जीते और मार डाले हैं। पर हे सब भाइयों ! सुनो हमने जन्म भर में ऐसी सुंदरता कहीं नहीं देखी।
जदपि भगिनी किन्हि कुरूपा।
बध लायक नहिं पुरुष अनूपा।।
देहु तुरत निज नारि दुराई।
जीयत भवन जाहु द्वौ भाई।।
यद्यपि उन्होंने हमारी बहन को कुरूप कर दिया तथापि यह अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं । छुपाई हुई अपनी स्त्री हमें तुरंत दे दो और दोनों भाई जीते जी घर लौट जाओ।
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु।
तासु बचन सुनि आतुर आवहु।।
दूतन्ह कहा राम सन जाई।
सुनत राम बोले मुसुकाई।।
मेरा यह कथन तुम लोग उसे सुनाओ और उसका वचन सुनकर शीघ्र आओ दूतों ने जा कर यह संदेश श्री रामचंद्र जी से कहा उसे सुनते ही श्री रामचंद्र जी मुस्कुरा कर बोले।
हम छत्री मृगया बन करहीं।
तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं।।
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं।
एक बार कालहु सन लरहीं।। 
हम छत्रिय हैं, वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे सरीखे दुष्ट पशुओं को तो ढूंढते ही फिरते हैं। हम बलवान शत्रु को देखकर नहीं डरते एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते हैं।
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक।
मुनि पालक खल सालक बालक।।
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू।
समर बिमुख मैं हतउॅ न काहू।।
यद्यपि हम मनुष्य हैं, परंतु दैत्य कुल का नाश करने वाले और मुनियों की रक्षा करने वाले हैं, हम बालक हैं, परंतु हैं दुष्टों को
 दंड देने वाले । यदि बल न हो तो घर लौट जाओ संग्राम में पीठ दिखाने वाले किसी को मैं नहीं मारता।
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई।
रिपु पर कृपा परम कदराई।।
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ।
सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ।।
रण में चढ़ाकर कपट चतुराई करना और शत्रु पर कृपा करना तो बड़ी भारी कायरता है दूतों ने लौट कर तुरंत सब बातें कहीं जिन्हें सुनकर खर दूषण का ह्रदय अत्यंत जल उठा।
छं०- उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा।।
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा।।
(खर दूषण का) हृदय जल उठा तब उन्होंने कहा पकड़ लो भयानक राक्षस योद्धा बाण, धनुष, तोमर, शक्ति, शूल, कृपाण, परिघ और फरसा धारण किए हुए दौड़  पड़े। प्रभु श्री रामचंद्र जी ने पहले धनुष का बड़ा कठोर घोर और भयानक टंकार किया जिसे सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गए उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा।
दो०- सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाॅति।।१९(क)।।
फिर वे शत्रु को बलवान जानकर सावधान होकर दौड़े और श्री रामचंद्र जी के ऊपर बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे।
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाॅडे
 निज तीर।।१९(ख)।।
श्री रघुवीर जी ने उनके हथियारों को तिल के समान टुकड़े टुकड़े करके काट डाला, फिर धनुष को कान तक तानकर अपने तीर छोड़े।
छं०- तब चले बान कराल।
   फुंकरत जनु बहु ब्याल।।
    कोपेउ समर श्रीराम।
  चले बिसिख निसित निकाम।।
तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं।
श्री रामचंद्र जी संग्राम में क्रोध हुए और अत्यंत तीक्ष्ण बाण चले।
अबलोकि खरतर तीर।
मुरि चले निसिचर बीर।।
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ।
जो भागि रन ते जाइ।।
अत्यंत तीक्ष्ण बाणों को देखकर राक्षस वीर पीठ दिखा कर भाग चले। तब खर, दूषण और तिसरा तीनो भाई क्रुद्ध होकर बोले जो रण से भागकर जाएगा।
तेहि बधब हम निज पानि।
फिरे मरन मन मन महुॅ ठानि।।
आयुध अनेक प्रकार।
सनमुख ते करहिं प्रहार।।
उसका हम अपने हाथों वध करेंगे। तब मन में मरना ठान कर भागते हुए राक्षस लौट पड़े और सामने होकर वे अनेकों प्रकार के हथियारों से श्रीरामजी पर प्रहार करने लगे।
रिपु परम कोपे जानि।
प्रभु धनुष सर संधानि।।
छाॅडे बिपुल नाराच।
लगे कटन बिकट पिसाच।।
शत्रु को अत्यंत को पिक जानकर प्रभु ने धनुष पर बाण चढ़ाकर बहुत से बाण छोड़े, जिससे  भयानक राक्षस कटने लगे।
उर सीस भुज कर चरन।
जहॅ तहॅ लगे महि परन।।
चिक्करत लागत बान ।
धर परत कुधर समान।।
उनकी छाती, सिर, भुजा, हाथ और पैर जहां-तहां पृथ्वी पर गिरने लगे बाण लगते ही वह हाथी की तरह चिग्घाडते हैं। उनके पहाड़ के समान धड़ कट कट कर गिर रहे हैं।
भट कटत तन सत खंड।
पुनि उठत करि पाषंड।।
नभ उडत बहु भुज मुंड।
बिनु मौलि धावत रुंड।।
योद्धाओं के शरीर कट कर सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। बे फिर माया करके उठ खड़े होते हैं आकाश में बहुत सी भुजाएं और सिर उड़ रहे हैं तथा बिना सिर के धड़ दौड़ रहे हैं।
खग कंक काक सृगाल।
कटकटहिं कठिन कराल।।
चील कौवे आदि पक्षी और सियार कठोर और भयंकर कटकट शब्द कर रहे हैं।
छं०- कटकटहिं जंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं।।
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहॅ तहॅ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयंकर गिरा।।
सियार कटकटाते  हैं भूत प्रेत और पिसाच खोपड़ियां बटोर रहे हैं। वीर वैताल खोपड़ियो के ऊपर ताल दे रहे हैं। और योगिनीया नाच रही हैं । श्री रघुवीर
के प्रचंड बाण योद्धाओं के वक्षस्थल भुजा और सिरो के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। उनके धड़ जहां-तहां गिर पड़ते हैं। फिर उठते और लड़ते हैं और पकड़ो पकड़ो का भयंकर शब्द करते हैं।
अंतावरीं गहि उडत गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
संग्राम पुर बासी मनहुॅ बहु बाल गुडी उडावहीं।।
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहॅरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे।।
अंतड़ियों के एक छोर को पकड़कर गीध उड़ते हैं और उन्हीं का दूसरा छोर हाथ से पकड़ कर पिशाच दौड़ते हैं ऐसा मालूम होता है मानो संग्राम रूपी नगर के निवासी बहुत से बालक पतंग उड़ा रहे हो। अनेकों योद्धा मारे और पछाड़े गये। बहुत से जिनके हृदय विदीर्ण हो गये है, पड़े कराह रहे हैं। अपनी सेना को व्याकुल देखकर त्रिसरा और खर दूषण आदि योद्धा श्री राम जी की ओर मुड़े।
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं।।
प्रभु निमिष महुॅ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका।।
अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बार में श्री रघुवीर पर छोड़ने लगे प्रभु ने पल भर में शत्रुओं के बाणो को काटकर ललकार कर उन पर अपने बाण छोड़े सब राक्षस सेनापतियों के ह्रदय में दस दस  बाण मारे।
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी।।
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक करयो।
देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मरयो।।
योद्धा पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, फिर उठकर भिडते हैं मरते नहीं बहुत प्रकार की अतिशय माया रचते हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत चौदह हजार हैं और अयोध्या नाथ श्री राम जी अकेले हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बड़ा कौतुक  किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी।
दो०- राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुॅ कृपानिधान।।२०(क)।।
सब राम राम कहकर शरीर छोड़ते हैं और निर्वाण पद पाते हैं कृपा निधान श्री राम जी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला।
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि सब चले सोभित बिबिध बिमान।।२०(ख)।।
देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं आकाश में नगाड़े बज रहे हैं फिर वे सब स्तुति कर कर के अनेकों विमानों पर सुशोभित हुए चले गए।
जब रघुनाथ समर रिपु जीते।
सुर नर मुनि सबके भय बीते।।
तब लछिमन सीतहिं लै आए।
प्रभु पद परत हरषि उर लाए।।
जब श्री रघुनाथ जी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए तब लक्ष्मण जी सीता जी को ले आए चरणों में पडते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नता पूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया।
सीता चितव स्याम मृदु गाता।
परम प्रेम लोचन न अघाता।।
पंचबटीं बसि श्रीरघुनायक।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक।।
सीता जी श्री राम जी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, इस प्रकार पंचवटी में बस कर श्री रघुनाथ जी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे।
धुआं देख खरदूषन केरा।
जाइ सुपनखा रावन प्रेरा।।
बोली बचन क्रोध कर भारी।
देस कोस कै सुरति बिसारी।।
खर दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया वह बड़ा क्रोध करके बचन बोली तुमने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी।
करसि पान सोवसि दिनु राती।
सुधि नहिं तव सिर पर आराती।।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएं।
श्रम फल पढें किएं अरु पाएं।।
संग तें जती कुमंत्र ते राजा।
मान ते ग्यान पान तें लाजा।।
शराब पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है। नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से, और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से सन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान मदिरापान से लज्जा ।
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी।
नासहिं बेगि नीति अस सुनी।।
नम्रता के बिना प्रीति, और मद से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है।
सो०- रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन।।२१(क)।।
शत्रु, रोग, अग्नि,पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप कर के रोने लगी।
दो०- सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जियत दसकंधर मोरि कि अस गति होइ।।२१(ख)।।
सभा के बीच वह व्याकुल होकर पड़ी हुई बहुत प्रकार से रो रो कर कह रही है कि अरे दशग्रीव ! तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिये?
सुनत सभासद उठे अकुलाई।
समुझाई गहि बाहॅ उठाई।।
कह लंकेस कहसि निज बाता।
केइॅ तव नासा कान निपाता।।
शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद अकुला उठे । उन्होंने शूर्पणखा की बांह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। लंकापति रावण ने कहा अपनी बात तो बता किसने तेरे नाक कान काट लिये?
अवध नृपति दसरथ के जाए।
पुरुष सिंघ बन खेलन आए।।
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी।
रहित निसाचर करिहहिं धरनी।।
अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान है, वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पड़ी है कि वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देंगे।
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन।
अभय भए बिचरत मुनि कानन।।
देखत बालक काल समाना।
परम धीर धन्वी गुन नाना।।
जिनकी भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख ! मुनि लोग वन में निर्भय होकर विचरने लगे हैं वे देखने में तो बालक है पर है काल के समान वे परमवीर श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणों से युक्त हैं।
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता।
खल बध रत सुर मुनि सुखदाता।।
सोभा धाम राम अस नामा।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा।।
दोनों भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है वे दुष्टों के वध करने में लगे हैं।और देवता तथा मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं 'राम' ऐसा उनका नाम है उनके साथ एक तरुणी सुंदरी स्त्री है।
रूप रासि बिधि नारि सॅवारी।
रति सत कोटि तासु बलिहारी।।
तासु अनुज काटे श्रुति नासा।
सुनि तब भगिनि करहिं परिहासा।।
विधाता ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड़ रति उस पर निछावर हैं उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक कान काट डाले मैं तेरी बहन हूं यह सुनकर भी मेरी हंसी करने लगे।
खर दूषन सुनि लगे पुकारा।
छन महुॅ सकल कटक उन्ह मारा।।
खर दूषन तिसरा कर घाता।
सुनि दससीस जरे सब गाता।।
मेरी पुकार सुनकर खर दूषण सहायता करने आए पर उन्होंने क्षण भर में सारी सेना को मार डाला खर, दूषण और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण के सारे अंग जल उठे।
दो०- सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाॅति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद 
परइ नहिं राति।।२२।।
उसने शूर्पणखा को समझा कर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया किंतु वह अत्यंत चिंता बस होकर अपने महल में गया उसे रात भर नींद नहीं पड़ी।
सुर नर असुर नाग खग माहीॅ ।
मोरे अनुचर कहॅ कोउ नाहीं।।
खर दूषन मोहि सम बलवंता।
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।।
देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं है जो मेरे सेवक को भी पा सके। खर दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे । उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है?
सुर रंजन भंजन महि भारा।
जौं भगवंत लीन्ह अवतारा।।
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊॅ।
प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊॅ।।
देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हट पूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊंगा।
होइहि भजनु न तामस देहा।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा।।
जौ नररूप भूपसुत कोऊ।
हरिहउॅ नारि जीति रन दोऊ।।
इस तामस शरीर से भजन तो होगा नहीं।अतएव मन, वचन और कर्म से यही दृढ़ निश्चय है। और यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूंगा।
चला अकेल जान चढि तहवाॅ।
बस मारीच सिंधु तट जहवाॅ।।
इहाॅ राम जसि जुगुति बनाई।
सुनहु उमा सो कथा सुहाई।।
अकेलाही वहां चला जहां समुद्र के तट पर मारीच रहता था हे पार्वती यहां श्री रामचंद्र जी ने जैसी युक्ति रची वह सुंदर कथा सुनो।
दो०- लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद।।२३।।
लक्ष्मण जी जब कंदमूल फल लेने के लिए वन में गए तब कृपा और सुख के समूह श्री रामचंद्र जी हंसकर जानकी जी से बोले।
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।
मैं कछु करबि ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महुॅ करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा।।
हे प्रिया ! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले ! सुनो मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूंगा। इसलिए जब तक में राक्षसों का नाश करूं तब तक तुम अग्नि में निवास करो।
जबहिं राम सब कहा बखानी।
प्रभु पद धरि हियॅ अनल समानी।।
निज प्रतिबिंब राखि तहॅ सीता।
तैसइ सील रूप सुबिनीता।।
श्री राम जी ने ज्यो ही सब समझा कर कहा त्यो श्री सीता जी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गई सीता जी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहां रख दी जो उनके जैसे की शील स्वभाव और रुप वाली तथा वैसे ही विनम्र थी।
लछिमनहूॅ यह मरमु न जाना।
जो कछु चरित रचा भगवाना।।
दसमुख गयउ जहाॅ मारीचा।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
भगवान ने जो कुछ लीला रची इस रहस्य को लक्ष्मण जी ने भी नहीं जाना स्वार्थ परायण वह नीच रावण वहां गया जहां मारीच था और उसको सिर नवाया।
नवनि नीच कै अति दुखदाई।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी।।
नीच का झुकना भी अत्यंत दुखदाई होता है। जैसे अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना हे भवानी ! दुष्ट की मीठी वाणी भी भय देने वाली होती है जैसे बिना ऋतु के फूल ! ।।
दो०- करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात।।२४।।
तब मारीच ने उसकी पूजा करके आदर पूर्वक बात पूछी हे तात ! आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आए है?््
दसमुख सकल कथा तेहि आगें।
कही सहित अभिमान अभागें।।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी।
जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी।।
भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कहीं, तुम छल करने वाले कपट मृग बनो, जिस उपाय से मैं उस राजवधू को हर लाऊं।
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा।
ते नररूप चराचर ईसा।।
तासों तात बयरु नहिं कीजै।
मारें मरिअ जिआएं जीजै।।
तब उसने कहा हे दशशीश ! सुनिए। वे मनुष्य रूप में चराचर के ईश्वर हैं। हे तात ! उनसे वैर ना कीजिए उन्हीं के मारने से मरना और उनके जिलाने से जीना होता है।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।।
सत जोजन आयउॅ छन माहीं।
तिन्ह सन बयरु किएं भल नाहीं।।
यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथ जी ने बिना फलका बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षण भर में सौ योजन पर आ गिरा उनसे वैर करने में भलाई नहीं है।
भइ मम कीट भृंग की नाई।
जहॅ तहॅ मैं देखउॅ दोउ भाई।।
जौं नर तात तदपि अति सूरा।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा।।
मेरी दशा तो भृंगी के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहां तहां श्री राम लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूं। और हे तात ! यदि वे मनुष्य हैं तो भी बड़े शूरवीर हैं उनसे विरोध करने में पूरा ना पड़ेगा। 
दो०- जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खर दूषन तिसरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड।।२५।।
जिसने ताड़का और सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला, ऐसा प्रचंड बलि भी कहीं मनुष्य हो सकता है?
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी।
सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी।।
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा।
कहु जग मोहि समान को जोधा।।
अतःअपने कुल की कुशल विचार कर आप घर लौट जाइए । यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियां दी अरे मूर्ख ! गुरु की तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो संसार में मेरे समान योद्धा कौन है?
तब मारीच हृदय ॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅॅअनुमाना।
नवहि बिरोधें नहिं कल्याना।।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।
बैध बंदि कबि भानस गुनी।।
तब मारीच ने ह्रदय में अनुमान किया कि शस्त्री, मरमी, समर्थ, स्वामी, मूर्ख, धनवान, वैध, भाट, कवि और रसोईया इन नौ व्यक्तियों से विरोध करने में कल्याण नहीं होता।
उभय भाॅति निज मरना।
तब ताकिसि रघुनायक सरना।।
उतरु देत मोहि बधब अभागें।
कस न मरौं रघुपति सर लागें।।
मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा, तब उसने श्री रघुनाथ जी की शरण तकी (सोचा कि) उत्तर देते ही यह अभागा मुझे मार डालेगा फिर रघुनाथ जी के बाण लगने से ही क्यों ना मरूॅ?।
अस जियॅ जानि दसानन संगा।
चला राम पद प्रेम अभंगा।।
मन अति हरष जनाव न तेही।
आजु देखिहउॅ परम सनेही।।
हृदय में ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। श्री राम जी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है उसके मन में इस बात का अत्यंत हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्री राम जी को देखूंगा  किंतु उसने यह हर्ष रावण को नहीं जनाया।
छं०- निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं।।
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी।।
अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊंगा। जानकी जी सहित और छोटे भाई लक्ष्मण जी समेत कृपा निधान श्री राम जी के चरणों में मन लगाऊगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश को भी बस में करने वाली है, अहा ! वे ही आनंद के समुद्र श्री हरी अपने हाथों से बाण संधान कर मेरा वध करेंगे !।
दो०- मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउॅ धन्य न मो सम आन।।२६।।
धनुष बाण धारण किए मेरे पीछे-पीछे पृथ्वी पर दौड़ते हुए प्रभु को मैं फिर फिर कर देखूंगा  मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है।
तेहि बन निकट दसानन गयऊ।
तब मारीच कपटमृग भयऊ।।
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई।
कनक देह मनि रचित बनाई।।
जब रावण उस बन के निकट पहुंचा तब मारीच कपटमृग बन गया वह अत्यंत ही विचित्र था कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता सोने का शरीर मणियों से जडकर बनाया था।
सीता परम रुचिर मृग देखा।
अंग अंग सुमनोहर बेषा।।
सुनहु देव रघुबीर कृपाला।
एहि मृग कर अति सुंदर छाला।।
सीता जी ने उस परम सुंदर हिरण को देखा जिसके अंग अंग की छटा अत्यंत मनोहर थी हे देव ! हे कृपालु रघुवीर ! सुनिए इस मृग की छाल बहुत ही सुंदर है।
सत्यसंध प्रभु बधि कर एही।
आनहु चर्म कहति बैदेही।।
तब रघुपति सब कारन।
उठे हरषि सुर काज सॅवारन।।
जानकी जी ने कहा हे सत्य प्रतिज्ञा प्रभु इसको मार कर इसका चमड़ा ला दीजिये। तब श्री रघुनाथ जी सब कारण जानते हुए भी देवताओं का कार्य बनाने के लिए हर्षित हो कर उठे।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाॅधा।
करतल चाप रुचिर सर साॅधा।।
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई।
फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
हिरण को देखकर श्री राम जी ने कमर में फेंटा बांधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर सुंदर बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मण जी को समझा कर कहा हे भाई वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं।
सीता केरि करेहु रखवारी।
बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी।
धाए रामु सरासन साजी।।
तुम बुद्धि और विवेक द्वारा बल और समय का विचार करके सीता की रखवाली करना प्रभु को देखकर मृग भाग चला श्री रामचंद्र जी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा।
मायामृग पाछें सो धावा।।
कबहुॅ निकट पुनि दूरि पराई।
कबहुॅक प्रगटइ कबहुॅ छिपाई।।
वेद जिन के विषय में नेति नेति कह कर रह जाते हैं। और शिवजी भी जिन्हें ध्यान में नहीं पाते वहीं श्री राम जी माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। वह कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है कभी तो प्रगट हो जाता है और कभी छिप जाता है।
प्रगटत दुरत करत छल भूरी।
एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी।।
तब तकि राम कठिन सर मारा।
धरनि परेउ करि घोर पुकारा।।
इस प्रकार प्रकट होता है और छिपता हुआ तथा बहुतेरे छल करता हुआ वह प्रभु को दूर ले गया तब श्री रामचंद्र जी ने तककर कठोर बाण मारा वह घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पड़ा।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा।
पाछें सुमिरेसि मन महुॅ रामा।।
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा।
सुमिरेसि रामु समेत सनेहा।।
पहले लक्ष्मण जी का नाम लेकर उसने पीछे मन में श्री राम जी का स्मरण किया प्राण त्याग करते समय उसने अपना शरीर प्रकट किया और प्रेम सहित श्री राम जी का स्मरण किया।
अंतर प्रेम तासु पहिचाना।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।।
सुजान श्री राम जी ने उसके हिदायत के प्रेम को पहचान कर उसे वह गति दी जो मुनियों को भी दुर्लभ है।
दो०- बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुॅ दीनबंधु रघुनाथ।।२७।।
देवता बहुत से फूल बरसा रहे हैं और प्रभु के गुणों की गाथाएं गा रहे हैं श्री रघुनाथ जी ऐसे दीनबंधु हैं कि उन्होंने अशोक को भी अपना परम पद दे दिया।
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा।
सोह चाप कर कटि तूनीरा।।
आरत गिरा सुनी सीता।
कह लछिमन सन परम सभीता।।
दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरंत लौट पड़े हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीता जी ने दुख भरी वाणी  सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मण जी से कहने लगी।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता।
लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।।
भृकुटी बिलास सृष्टि लय होई।
सपनेहुॅ संकट परइ कि सोई।।
तुम शीघ्र जाओ तुम्हारे भाई बड़े संकट में है। लक्ष्मण जी ने हंसकर कहा हे माता सुनो जिनके भ्रुकुटी बिलास मात्र से सारी सृष्टि का लय हो जाता है वे श्री राम जी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं?।
मरम बचन जब सीता बोला।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू।
चले जहाॅ रावन ससि राहू।।
इस पर जब सीता जी कुछ मर्म वचन कहने लगी, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मण जी का मन भी चंचल हो उठा। वे सीता जी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंपकर वहां चले जहां रावण रूपी चंद्रमा के लिए राहु रूप श्री राम जी थे।
सून बीच दसकंधर देखा।
आवा निकट जती कें बेषा।।
जाकें बल सुर असुर डेराहीं।
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।।
रावण सूना मौका देखकर यति के वेश में सीता जी के समीप आया। जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में अन्न नहीं खाते।
सो दससीस स्वान की नाई।
इत उत चितइ चला भडिहाई।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
रह न तेज तन बुधि बल लेसा।।
वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ चोरी के लिए चला। हे गरुड़ जी ! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेस भी नहीं रह जाता।
नाना बिधि करि कथा सुहाई।
राजनीति भय प्रीति देखाई।।
कह सीता सुनु जती गोसाई।
बोलेहु बचन दुष्ट की नाई।।
रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएं रचकर सीता जी को राजनीति,भय और प्रेम दिखलाया। सीता जी ने कहा हे यति गुस्साई ! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे।
तब रावन निज रूप दिखावा।
भई सभय जब नाम सुनावा।।
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा।
आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढा।।
तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीता जी भयभीत हो गई । उन्होंने गहरा धीरज धरकर कहा 'अरे दुष्ट ! खड़ा तो रह प्रभु आ गए'।
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा।
भएसि कालबस निसिचर नाहा।।
सुनत बचन दससीस रिसाना।
मन महुॅ चरन बंदि सुख माना।।
जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज ! तू काल के बस हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परंतु मन में उसने सीता जी के चरणों की वंदना करके सुख माना।
दो०- क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयॅ रथ हाॅकि न जाइ।।२८।।
फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीता जी को रथपर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाशमार्ग से चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हांका नही जाता था।
हा जग एक बीर रघुराया।
केहि अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक।
हा रघुकुल सरोज दिननायक।।
हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथ जी आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा रघुकुलरूपी कमल के सूर्य !।
हा लछिमन तुम्हार नही दोसा।
सो फलु पायउॅ कीन्हेउॅ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही।
भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।।
हां लक्ष्मण तुम्हारा दोष नहीं है मैंने क्रोध किया, उसका फल पाया। श्री जानकी जी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं प्रभु की कृपा तो बहुत है, परंतु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गये हैं।
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा।
पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी।
भए चराचर जीव दुखारी।।
प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनावे ? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीता जी का भारी विलाप सुनकर जड़ चेतन सभी जीव दुखी हो गए।
गीधराज सुनि आरत बानी।
रघुकुलतिलक नारी पहचानी।।
अधम निसाचर लीन्हें जाई।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
गृध्रराज जटायु ने सीता जी की दुख भरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि यह रघुकुल तिलक श्री रामचंद्र जी की पत्नी है नीच राक्षस इनको लिए जा रहा है जैसे कपिला गाय मलेच्छ के पाले पड़ गई हो।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा।
करिहउॅ जातुधान कर नासा।।
धावा क्रोधवंत खग कैसें।
छूटइ पबि परबत कहुॅ जैसे।।
हे सीते पुत्री भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूंगा। वह पक्षी क्रोध में भरकर कैसे दौड़ा जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो।
रे रे दुष्ट ठाढ किन होही।
निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।।
आवत देखि कृतांत समाना।
फिरि दसकंधर कर अनुमाना।।
रे रे दुष्ट ! खड़ा क्यों नहीं होता ? निडर होकर चल दिया। मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान आता हुआ देखकर रावण घूम कर मन में अनुमान करने लगा।
की मैनाक कि खगपति होई।
मम बल जान सहित पति सोई।।
जाना जरठ जटायू एहा।
मम कर तीरथ छाॅडिहि देहा।।
यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड़ पर वह तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल को जानता है रावण ने उसे पहचान लिया यह तो बूढ़ा जटायु है यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोड़ेगा।
सुनत गीध क्रोधातुर धावा।
कह सुनु रावन मोर सिखावा।।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू।
नाहिं त अस होइहि बहुबाहू।।
यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला रावण मेरी सिखावन सुन जानकी जी को छोड़कर कुशल पूर्वक अपने घर जा नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले ! ऐसा होगा कि।
राम रोष पावक अति घोरा।
होइहि सकल सलभ कुल तोरा।।
उतरु न देत दसानन जोधा।
तबहिं गीध धावा करि क्रोधा।।
श्री राम जी के क्रोध रूपी अत्यंत भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगा हो जाएगा योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता तब गीध क्रोध करके दौड़ा।
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा।
सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।।
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही।
दंड एक भइ मुरछा तेही।।
उसने बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार लिया रावण पृथ्वी पर गिरा  पड़ा गीध सीता जी को एक और बिठाकर फिर लौटा और चोंचों से मार-मार कर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला इससे उसे एक घड़ी के लिए मूर्छा हो गई।
तब सक्रोध निसिचर खिसियाना।
काढेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी।
सुमिर राम करि अदभुत करनी।।
तब खिसियाये हुए रावण ने क्रोध युक्त होकर अत्यंत भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पंख काट डाले पक्षी श्री राम जी की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पड़ा।
सीतहि जान चढाइ बहोरी।
चला उताइल त्रास न थोरी।।
करति बिलाप जाति नभ सीता।
ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता।।
सीता जी को फिर रथ पर चढ़ाकर रावण बड़ी उतावली के साथ चला, उसे भय कम ना था । सीता जी आकाश में विलाप करती हुई जा रही हैं मानो व्याध के बस में पड़ी हुई कोई भयभीत हिरनी हो !।
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी।
कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी।।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ।
बन असोक महॅ राखत भयऊ।।
पर्वत पर बैठे हुए बंदरों को देखकर सीता जी ने हरी नाम लेकर वस्त्र डाल दिया। इस प्रकार वह सीता जी को ले गया और उन्हें अशोक वन में जा रखा।
दो०- हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ।।२९(क)।।
सीता जी को बहुत प्रकार से भय और प्रीति दिखाकर जब वह दुष्ट हार गया तब उन्हें यत्न कराके अशोक वृक्ष के नीचे रख दिया।
      नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरंग सॅग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम।।२९(ख)।।
जिस प्रकार कपट मृग के साथ श्री राम जी दौड़ चले थे उसी छवि को ह्रदय में रखकर वे हरि नाम रटती रहती हैं।
रघुपति अनुजहि आवत देखी।
बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी।।
जनकसुता परिहरिहु अकेली।
आयहु तात बचन मम पेली।।
श्री रघुनाथ जी ने छोटे भाई लक्ष्मण जी को आते देख कर वाह रूप में बहुत चिंता की  भाई तुमने जानकी को अकेली छोड़ दिया और मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर यहां चले आए।
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं।
मम मन सीता आश्रम नाही।।
गहि पद कमल अनुज कर जोरी।
कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी।।
राक्षसों के झुंड वन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है। छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राम जी के चरण कमलों को पकड़ कर हाथ जोड़कर कहा हे नाथ ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है।
अनुज समेत गए तहवाॅ।
गोदावरि तट आश्रम जहवाॅ।।
आश्रम देखि जानकी हीना।
भए बिकल जस प्राकृत दीना।।
लक्ष्मण जी सहित प्रभु श्री राम जी वहां गए जहां गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकी जी से रह देखकर श्री राम जी साधारण मनुष्य की भांति व्याकुल और दीन हो गये।
हा गुन खानि जानकी सीता।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता।।
लछिमन समुझाए बहु भाॅती।
पूछत चले लता तरु पाॅती।।
हा गुणों की खान जानकी ! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते ! लक्ष्मण जी ने बहुत प्रकार से समझाया । तब श्री राम जी लताओं और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चले।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।
खंजन सुक कपोत मृग मीना।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना।।
हे पक्षियों ! हे पशुओं ! हे भौरों की पंक्तियों तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है। खंजन, तोता, कबूतर, हिरण, मछली, भौरों का समूह, प्रवीण कोयल,
कुंद कली दाडिम दामिनी।
कमल सरद ससि अहिभामिनी।।
बरुन पास मनोज धनु हंसा।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।।
कुंदकली, अनार, बिजली, कमल, शरद का चंद्रमा और नागिनी, वरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह यह सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं।
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं।
नेकु न संक सकुच मन माहीं।।
सुनु जानकी तोहि बिनु आजु।
हरषे सकल पाइ जनु राजू।।
बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है। हे जानकी ! सुनो तुम्हारे बिना यह सब आज ऐसे हर्षित हैं मानो राज पा गये हों।
किमी सहि जात अनख तोहि पाहीं।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं।।
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी।
मनहु महा बिरही अति कामी।।
तुमसे यह अलख कैसे सही जाती है ? हे प्रिय ! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती ? इस प्रकार स्वामी श्री राम जी सीता जी को खोजते हुए विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष हो।
पूरनकाम राम सुख रासी।
मनुजचरित कर अज अबिनासी।।
आगें परा गीधपति देखा।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।।
पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री राम जी मनुष्यों के से चरित्र कर रहे हैं । आगे उन्होंने  गृध्रपति जटायु को पड़ा देखा वह श्री राम जी के चरणों का स्मरण कर रहा था जिनमें रेखाएं हैं।
दो०- कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर।।३०।।
कृपासागर श्री रघुवीर ने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया
 शोभाधाम श्री राम जी का मुख देखकर उनकी सब पीड़ा जाती रही।
तब कहि गीध बचन धरि धीरा।
सुनहु राम भंजन भव भीरा।।
नाथ दसानन यह गति कीन्ही।
तेंहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही।।
तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा हे भव भय का नाश करने वाले श्री राम जी ! सुनिए हे नाथ ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकी जी को हर लिया है।
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई।
बिलपति अति कुररी की नाई।।
दरस लागि प्रभु राखेउॅ प्राना।
चलन चहत अब कृपानिधाना।।
हे गोसाई ! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है। सीता जी कुररी की तरह अत्यंत विलाप कर रही थी। हे प्रभु ! मैंने आपके दर्शनों के लिए ही प्राण रोक रखे थे हे कृपा निधान ! अब यह चलना ही चाहते हैं।
राम कहा तनु राखहु ताता।
मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता।।
जा कर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा।।
श्री रामचंद्र जी ने कहा हे तात शरीर को बनाए रखिए तब उसने मुस्कुराते हुए मुंह से यह बात कही - मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम भी मुक्त हो जाता है ऐसा भेद गाते हैं।
सो मम लोचन गोचर आगें।
राखौ देह नाथ केहि खाॅगें।।
जल भरि नयन कहहि रघुराई।
तात कर्म निज तें गति पाई।।
वही मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं हे नाथ ! अब मैं किस कमी के लिए देह को रखूं नेत्रों में जल भरकर श्री रघुनाथ जी कहने लगे - हे तात आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से गति पाई है।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुॅ जग दुर्लभ कछु नाही।।
तनु तजि तात जाहु मम धामा।
देउॅ काह तुम्ह पूरनकामा।।
जिनके मन में दूसरे का हित बसता है उनके लिए जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। हे तात ! शरीर छोड़कर आप मेरे परमधाम में जाइए। मैं आपको क्या दूं ? आप तो पूर्ण काम है।
दो०- सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।।३१।।
हे तात ! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से ना कहिएगा यदि मैं राम हूं तो दशमुख रावण कुटुंब सहित वहां आकर स्वयं ही कहेगा।
गीध देह तजि धरि हरि रूपा।
भूषन बहु पट पीत अनूपा।।
स्याम गात बिसाल भुज चारी।
अस्तुति करत नयन भरि बारी।।
जटायु ने गीध की देह त्याग कर हरिका रूप धारण किया और बहुत से अनुपम आभूषण और पीतांबर पहन लिए श्याम शरीर है विशाल चार भुजाएं हैं और नेत्रों में जल भरकर वह स्तुति कर रहा है।
छं०- जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही।।
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं।।
हे रामजी ! आपकी जय हो। आप का रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण है, और सत्य ही गुणों के प्रेरक हैं। दस सिरवाले रावण की प्रचंड भुजाओं को खंड खंड करने के लिए प्रचंड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव भय से छुड़ाने वाले, कृपालु श्री राम जी मैं नित्य नमस्कार करता हूं।
बलप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपार द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं।।
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं।।
अपरिमित बल वाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त, एक, अगोचर, गोविंद, इंद्रियों से अतीत, द्वन्द्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम मंत्र को जपते हैं उन अत्यंत सेवकों के मन को आनंद देने वाले हैं । उन निष्काम प्रिय तथा काम आदि दुष्टों के दल का दलन करने वाले श्री राम जी को मैं नित्य नमस्कार करता हूं।
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं।।
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई।।
जिनको श्रुतियाॅ निरंजर, ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्म रहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वही करूणाकंद, शोभा के समूह प्रगट होकर जड़ चेतन समस्त जगत को मोहित कर रहे हैं मेरे हृदय कमल के भ्रमण रूप उनके अंग अंग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है।
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा।।
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी।।
जो अगम और सुगम है, निर्मलस्वभाव है, विषय और सम है और सदा शीतल है । मन और इंद्रियों को सदा बस में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्रीरामजी निरंतर अपने दासों के वश में रहते हैं, वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है।
दो०- अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम।।३२।।
अखंड भक्ति का वर मांग कर गृध्रराज जटायु श्री हरि के परम धाम को चला गया। श्री रामचंद्र जी ने उसकी क्रियाएं यथा योग्य अपने हाथों से की।
कोमल चित अति दीनदयाला।
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला।।
गीध अधम खग आमिष भोगी।
गति दीन्ही जो जाचत जोगी।।
श्री रघुनाथ जी अत्यंत कोमल चित्र वाले दीन दयालु और बिना ही कारण कृपालु हैं। गीध अधम पक्षी और मांसाहारी था उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगी जन मांगते रहते हैं।
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
भरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई।
चले बिलोकत बन बहुताई।।
हे पार्वती ! सुनो वे लोग अभागे हैं जो भगवान को छोड़कर विषयों से अनुराग करते हैं। फिर दोनों भाई सीताजी को खोजते हुए आगे चले वे वन की सघनता देखते जाते हैं।
संकुल लता बिटप घन कानन।
बहु खग मृग तहॅ गज पंचानन।।
आवत पंथ अबंध निपाता।
तेहिं सब कही साप की बाता।।
वह सघन वन लताओं और वृक्षों से भरा है। उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्रीरामजी ने रास्ते में आते हुए कबंध राक्षस को मार डाला। उसने अपने शाप की सारी बात कही।
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा।
प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा।।
सुनु गंधर्ब कहउॅ मैं तोही।
मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही।।
दुर्वासा जी ने मुझे शाप दिया था। अब प्रभु के चरणों को देखने से वह पाप मिट गया । गंधर्व सुनो मैं तुम्हें कहता हूं ब्राह्मण कुल से द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता।
दो०- मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताके सब देव।।३३।।
मन,वचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझे समेत ब्रह्मा शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं।
सापत ताडत पुरुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।
पूजिआ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। सील और गुण से हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुण गणों से युक्त और ज्ञान में निपुण भी सूद्र पूज्यनीय नहीं है।
कहि निज धर्म ताहि समुझावा।
निज पद प्रीति देखि मन भावा।।
रघुपति चरन कमल सिरु नाई।
गयउ गगन आपनि गति पाई।।
श्री राम जी ने अपना धर्म कह कर उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया। तदनंतर श्री रघुनाथ जी के चरण कमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति पाकर आकाश में चला गया।
ताहि देइ गति राम उदारा।
सबरी कें आश्रम पगु धारा।।
सबरी देखि राम गृहॅ  ॅॅ आए।
मुनि के बचन समुझि जियॅ भाए।।
उदार श्री राम जी उसे गति देकर शबरी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्र जी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंग जी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया ।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई।।
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर साॅवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी जी लिपट पड़ी।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
वे प्रेम में मग्न हो गयीं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदर पूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनो पर बैठाया।
दो०- कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुॅ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।३४।।
उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद मूल और फल लाकर श्री राम जी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया।
पानि जोरि आगे भइ ठाढी।
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी।।
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गई प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। मैं किस प्रकार आप की स्तुति करूं में नीच जाति की और अत्यंत मूढबुद्धि हूं।
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महॅ मैं मतिमंद अघारी।।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउॅ एक भगति कर नाता।।
जो अधम से भी अधम है, स्त्रियां उनमें भी अत्यंत अधम है, और उनमें भी हे पापनाशन ! में मंदबुद्धि हूं । रघुनाथ जी ने कहा हे भामिनी ! मेरी बात सुन। मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूं।
जाति पाॅति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बरिद देखिअ जैसा।।
जाती, पाती, कुल, धर्म, बढ़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता--  इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल दिखायी पड़ता है।
नवधा भगति कहउॅ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
मैं तुमसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूं। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।३५।।
तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
मेरे मंत्र का जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास यह पांचवी भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील, बहुत कार्यों से वैराग्य  और निरंतर संत पुरुषों के धर्म में लगे रहना।
सातवॅ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवॅ तथालाभ संतोषा।
सपनेहुॅ नहिं देखइ परदोषा।।
सातवीं भक्ति है जगत भर को सम भाव से मुझ में ओतप्रोत देखना और संतों को मुझ से भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को ना देखना।
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियॅ हरष न दीना।।
नव महुॅ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई।।
नवी भक्ति है सरलता और सब के साथ कपट रहित बर्ताव करना, ह्रदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य का न होना। इन नवोंमें से जिसके एक भी होती है वह स्त्री पुरुष जड़ चेतन कोई भी हो।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोंरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोंरें।।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुॅ आजु सुलभ भइ सोई।।
हे भामिनी ! मुझे वही अत्यंत प्रिय है तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ हैं। अब जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वहीं आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा।।
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी।।
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनी ! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता।
पंपा सरहि जाहु रघुराई।
तहॅ होइहि सुग्रीव मिताई।।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा।
जानतहूॅ पूछहु मतिधीरा।।
हे रघुनाथजी !आप पंपा नामक सरोवर को जाइये, वहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी हे देव ! हे रघुवीर ! वह सब हाल बता देगा हे धीरबुद्धि ! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं !।
बार बार प्रभु पद सिरु नाई।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई।।
बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर प्रेम सहित उसने सब कथा सुनायी।
छं०- कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयॅ ॅॅॅॅॅॅॅॅपद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहॅ नहिं फिरे।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू।।
सब कथा कहकर भगवान के मुख के दर्शन कर, हृदय में उनके चरण कमलों को धारण कर लिया और योगअग्नि से देह को त्याग कर वह उस दुर्लभ हरि पर में लीन हो गयी, जहां से लौटना नहीं होता। तुलसीदास जी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत यह सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यो ! इसका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री राम जी के चरणों में प्रेम करो।
दो०- जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि अस नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।३६।।
जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया अरे महादुर्बुद्धि मन ! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?।
चले राम त्यागा बन सोऊ।
अतुलित बल नर केहरि दोऊ।।
बिरही इव प्रभु करत बिषादा।
कहत कथा अनेक संबादा।।
श्री रामचंद्र जी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चले ! दोनों भाई अतुलनीय बलवान और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प्रभु विरही की तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएं और संवाद कहते हैं।
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा।
देखत केहि कर मन नहिं छोभा।।
नारि सहित सब खग मृग बृंदा।
मानहुॅ मोरि करत हहिं निंदा।।
हे लक्ष्मण जरा वन की शोभा तो देखो इसे देखकर किसका मन छुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओं के समूह सभी स्त्री सहित हैं। मानो वे मेरी निंदा कर रहे हैं।
हमहि देखि मृग निकर पराहीं।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहॅ भय नाहीं।।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए।
कंचन मृग खोजत ए आए।।
हमें देखकर हिरणों के झुंड भागने लगते हैं तब हिरनिया उनसे कहती हैं तुमको भय नहीं है तुम तो साधारण हिरणों से पैदा हुए हो अतः तुम आनंद करो यह तो सोने का हिरण खोजने आए हैं।
संग लाइ करिनीं करि लेहीं।
मानहुॅ मोहि सिखावनु देहीं।।
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।।
हाथी हथनीयों को साथ लगा लेते हैं। वे मानों मुझे शिक्षा देते हैं भली-भांति चिंतन किए हुए शास्त्र को भी बार-बार देखते रहना चाहिये। अच्छी तरह सेवा किए हुए भी राजा को बस में नहीं समझना चाहिए।
राखिअ नारि जदपि उर माहीं।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं।।
देखहु तात बसंत सुहावा।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा।।
और स्त्री को चाहे ह्रदय में ही क्यों ना रखा जाय, परंतु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे तात ! इस सुंदर बसंत को देखो प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है।
दो०- बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल।।३७(क)।।
मुझे विरह से व्याकुल, बलहीन और बिल्कुल अकेला जानकर कामदेव ने वन, भौरों और पक्षियों को साथ लेकर मुझ पर धावा बोल दिया।
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुॅ तब कटकु हटकि मनजात।।३७(ख)।।
परंतु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाई के साथ हूं, तब उसकी बात सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डेरा डाल दिया है।
बिटप बिसाल लता अरुझानी।
बिबिध बितान दिए जनु तानी।।
कदलि ताल बर धुजा पताका।
देखि न मोह धीर मन जाका।।
विशाल वृक्षों में लताएं उलझी हुई  ऐसी मालूम होती है मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिए गए हैं । केला और ताड़ सुंदर ध्वजा पताका के समान है। इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता जिस का मन धीर है।
बिबिध भाॅति फूले तरु नाना।
जनु बानैत बने बहु बाना।।
कहुॅ कहुॅ सुंदर बिटप सुहाए।
जनु भट बिलग बिलग होइ छाए।।
अनेकों वृक्ष नाना प्रकार से फूले हुए हैं। मानो अलग-अलग बाना धारण किए हुए बहुत से तीरंदाज हों। कहीं कहीं सुंदर वृक्ष शोभा दे रहे हैं । मानो योद्धा लोग अलग अलग होकर छावनी डाले हों।
कूजत पिक मानहुॅ गज माते।
ढेक महोख ऊंट बिसराते।।
मोर चकोर कीर बथ बाजी।
पारावत मराल सब ताजी।।
कोयले कूज रही हैं, वहीं मानो मतवाले हाथी है। ढेक और महोख पक्षी मानो ऊंट और खच्चर है। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुंदर ताजी घोड़े हैं।
तीतिर लावक पदचर जूथा।
बरनि न जाइ मनोज बरूथा।।
रथ गिरि सिला दुंदुभीं झरना।
चातक बंदी गुन गन बरना।।
तीतर और बटेर पैदल सिपाहियों के झुंड है। कामदेव की सेना का वर्णन नहीं हो सकता। पर्वतों की शिलाएं रथ और जल के झरने नगाड़े हैं । पपीहे भाट है, जो गुणसमूह का वर्णन करते हैं।
मधुकर मुखर भेरि सहनाई।
त्रिबिध बयारि बसीठीं आई।।
चतुरंगिनी सेन सॅग लीन्हें।
बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें।।
भौरों की गुंजाथ भेरी और शहनाई है ।शीतल मंद और सुगंधित हवा मानो दूत का काम लेकर आई है। इस प्रकार चतुरंगिणी  सेना साथ लिए कामदेव मानो सब को चुनौती देता हुआ विचर  रहा हैं।
लछिमन देखत काम अनीका।
रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका।।
एहि कें एक परम बल नारी।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी।।
हे लक्ष्मण ! कामदेव की सेना को देखकर जो धीर बने रहते हैं जगत में उन्हीं की प्रतिष्ठा होती है। इस कामदेव के एक स्त्री का बड़ा भारी बल है। उससे जो बच जाए, वही श्रेष्ठ योद्धा होता है।
दो०- तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुॅ छोभ।।३८(क)।।
हे तात ! काम, क्रोध और लोभ ये तीन अत्यंत प्रबल दुष्ट हैं । यह विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पल भर में छुब्ध कर देते हैं।
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि।।३८(ख)।।
लोभ को इच्छा और दंभ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है, और क्रोध को कठोर वचनों का बल है श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं।
गुनातीत सचराचर स्वामी।
राम उमा सब अंतरजामी।।
कामिन्ह कै दीनता देखाई।
धीरन्ह कें मन बिरति दृढाई।।
हे पार्वती ! श्री रामचंद्र जी गुणातीत चराचर जगत के स्वामी और सब के अंतर को जानने वाले हैं। उन्होंने कामी लोगों की दीनता दिखाई है। और धीर पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ़ किया है।
क्रोध मनोज लोभ मद माया।
छूटहिं सकल राम कीं दाया।।
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला।
जा पर होइ सो नट अनुकूला।।
क्रोध, काम, लोभ, मद और माया यह सभी श्री राम जी की दया से छूट जाते हैं वह नट  जिस पर प्रसन्न होता है वह मनुष्य इंद्रजाल में नहीं भूलता।
उमा कहउॅ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा।।
हेमा उमा मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूं हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत तो स्वप्न है। फिर प्रभु श्री राम जी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए।
संत हृदय जस निर्मल बारी।
बाॅधे घाट मनोहर चारी।।
जहॅ तहॅ पिअहिं बिबिध मृग नीरा।
जनु उदार गृह जाचक भीरा।।
उसका जल संतो के  ह्रदय जैसा निर्मल है। मन को हरने वाले सुंदर चारघाट बंधे हुए हैं। भांति भांति के पशु जहां-तहां जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड़ लगी हो।
दो०- पुरइन सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैंसे निर्गुन ब्रह्म।।३९(क)।।
घनी पुरइनों की आड़ में जल का जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे माया से ढके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता।
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं।।३९(ख)।।
उस सरोवर के अत्यंत अथाह जल में सब मछलियां सदा एकरस सुखी रहती हैं जैसे धर्मशील पुरुष के सब दिन सुख पूर्वक बीतते हैं।
बिकसे सरसिज नाना रंगा।
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।।
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा।
प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा।।
उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं, बहुत से भंवरे मधुर स्वर से गुंजार कर रहे हैं। जल के मुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं। मानो प्रभु को देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हो।
चक्रबाक बक खग समुदाई।
देखत बनइ बरनि नहिं जाई।।
सुंदर खग गन गिरा सुहाई।
जात पथिक जनु लेत बुलाई।।
चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियों का समुदाय देखते ही बनता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। आती सुंदर पक्षियों की बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो जाते हुए पथिक को बुलाए लेती हो।
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए।
चहु दिसि कानन बिटप सुहाए।।
चंपक बकुल कदंब तमाला।
पाटल पनस परास रसाला।।
उस झील के समीप मुनियों ने आश्रम बना रखे  हैं। उनके चारों ओर वन के सुंदर वृक्ष है। चंपा, मौलसिरी, कदम, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि।
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना।
चंचरीक पटली कर गाना।।
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ।
संतत बहइ मनोहर बाऊ।।
बहुत प्रकार के वृक्ष नए-नए पत्तों और पुष्पों से युक्त हैं, भौरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। स्वभाव से ही शीतल मंद सुगंध एवं मन को हरने वाली हवा सदा बहती रहती है।
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं।
सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।।
कोयल कुहू कुहू का शब्द कर रही है उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियों का भी ध्यान टूट जाता है।
दो०- फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।।४०।।
फलों के बोझ से झुक कर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ गए हैं जैसे परोपकारी पुरुष बड़ी संपत्ति पाकर झुक जाते हैं।
देखि राम अति रुचिर तलावा।
मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा।।
देखी सुंदर तरुबर छाया।
बैठे अनुज सहित रघुराया।।
श्री राम जी ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघुनाथ जी छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित बैठ गए।
तहॅ पुनि सकल देव मुनि आए।
अस्तुति करि निज धाम सिधाए।।
बैठे परम प्रसन्न कृपाला।
कहत अनुज सन कथा रसाला।।
फिर वहां सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने अपने धाम को चले गए कृपालु श्री राम जी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मण जी से रसीली कथाएं कह रहे हैं।
बिरहवंत भगवंतहि देखी।
नारद मन भा सोच बिसेषी।।
मोर साप करि अंगीकारा।
सहत राम नाना दुख भारा।।
भगवान को विरह युक्त देख कर नारद जी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्री राम जी नाना प्रकार के दुखों का भार सह रहे हैं।
ऐसे प्रभुहि बिलोकऊॅ जाई।
पुनि न बनिहि अस अबसरु आई।।
यह बिचारि नारद कर बीना।
गए जहाॅ प्रभु सुख आसीना।।
ऐसे प्रभु को जाकर देखूॅ । फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारद जी हाथ में वीणा लिए हुए वहां गए जहां प्रभु सुख पूर्वक बैठे हुए थे।
गावत राम चरित मृदु बानी।
प्रेम सहित बहु भाॅति बखानी।।
करत दंडवत लिए उठाई।
राखे बहुत बार उर लाई।।
वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान बखान कर रामचरित का गान कर रहे थे। दंडवत करते देखकर श्री रामचंद्र जी ने नारद ज को उठा लिया और बहुत देर तक ह्रदय से लगाए रखा।
स्वागत पूॅछि निकट बैठारे।
लछिमन सादर चरन पखारे।। ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
फिर स्वागत  पूछकर पास बैठा लिया लक्ष्मण जी ने आदर के साथ उनके चरण धोये।
दो०- नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियॅ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि।।४१।।
बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन जानकर तब नारदजी कमल के समान हाथों को जोड़कर वचन बोले।
सूनहु उदार सहज रघुनायक।
सुंदर अगम सुगम बर दायक।।
देहु एक बर मागउॅ स्वामी।
जद्यपि जानत अंतरजामी।।
 हे स्वभाव से ही उदार रघुनाथ जी ! सुनिए आप सुंदर अगम और शुगम वर देने वाले हैं। हे स्वामी ! में एक वर मांगता हूं वह मुझे दीजिए यद्यपि आप अंतर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं।
जानहु मुनि तुम मोर सुभाऊ।
जन सन कबहुॅ कि करहु दुराऊ।।
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी।
जो मुनिबर न सकहु तुम मागी।।
हे मुनि ! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ भी छिपाव करता हूं ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है जिससे हे मुनि श्रेष्ठ ! तुम नहीं मांग सकते।
जन कहुॅ कछु अदेय नहिं मोरें।
अस बिस्वास तजहु जनि भोरें।।
तब नारद बोले हरषाई।
अस बर मागउॅ करउॅ ढिठाई।।
मुझे भक्तों के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूल कर भी मत छोड़ो। तब नारद जी हर्षित होकर बोले मैं ऐसा वर मांगता हूं यह धृष्टता करता हूं।
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका।
श्रुति कह अधिक एक ते एका।।
राम सकल नामन्ह ते अधिका।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ ! राम नाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो।
दो०- राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुॅ भगत उर ब्योम।।४२(क)।।
आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है उसमें राम नाम यही पूर्ण चंद्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागणा होकर भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में निवास करें।
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ।।४२(ख)।।
कृपा सागर श्री रघुनाथ जी ने मुनि से एवमस्तु कहां। तब नारद जी ने मन में अत्यंत हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया।
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी।
पुनि नारद बोले मृदु बानी।।
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया।
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया।।
श्री रघुनाथ जी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारद जी फिर कोमल वाणी बोले हे रामजी ! हे रघुनाथ जी ! सुनिए जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था।
तब बिबाह मैं चाहउॅ कीन्हा।
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा।।
सुनु मुनि तोहि कहउॅ सहरोसा।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु ! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया ? हे मुनि ! सुनो मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूं कि जो समस्त आशा भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं।
करउॅ सदा तिन्ह कै रखवारी।
जिमि बालक राखइ महतारी।।
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
तहॅ राखइ जननी अरगाई।।
मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूं जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और सांप को पकड़ने जाता है, तो वहां माता उसे अलग करके बचा लेती है।
प्रौढ़ भए ेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेतेहि सुत पर माता।
प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता।।
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानि।
बालक सुत सम दास अमानी।।
सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है परंतु पिछली बात नहीं रहती मातृ परायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिंता नहीं करती क्योंकि वह माता पर निर्भर ना कर अपनी रक्षा आप करने लगता है ज्ञानी मेरे प्रौढ़ पुत्र के समान हैं और अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है।
जनहि मोर बल निज बल ताही।
दुहु कहॅ काम क्रोध रिपु आही।।
यह बिचार पंडित मोहि भजहीं।
पाएहुॅ ग्यान भगति नहिं तजहीं।।
मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी) अपना बल होता है पर काम क्रोध रूपी शत्रु तो दोनों के लिए है ऐसा विचार कर पंडित जन मुझको ही भजते हैं वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते।
दो०- काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महॅ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि।।४३।।
काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह की प्रबल सेना है इनमें मायारूपी स्त्री तो अत्यंत दारुण दुख देने वाली है।
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता।
मोह बिपिन कहुॅ नारि बसंता।।
जप तप नेम जलाश्रय झारी।
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारि।।
हे मुनि ! सुनो पुराण वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी बन के लिए स्त्री बसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप होकर सर्वथा सोख लेती है।
काम क्रोध मद मत्सर भेका।
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका।।
दुर्बासना कुमुद समुदाई।
तिन्ह कहॅ सरद सदा सुखदाई।।
काम क्रोध मद और मत्सर आदि मेंढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र यही है। बुरी वासनाएं  कुमुदोंके के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद ऋतु है।
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा।
होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा।।
पुनि ममता जवास बहुताई।
पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई।।
समस्त धर्म कमलों के झुंड हैं। यह नीच सुख देने वाली स्त्री हिम रितु होकर उन्हें जला डालती है। फिर ममता रूपी जवास का समूह स्त्री रूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा भरा हो जाता है।
पाप उलूक निकर सुखकारी।
नारि निबिड़ रजनी अंधिआरी।।
बुधि बल सील सत्य सब मीना।
बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना।।
पाप रूपी उल्लूओं  के समूह के लिए यह स्त्री सुख देने वाली घोर अंधकारमयी रात्रि है। बुद्धि, बल, शील और सत्य यह सब मछलियां हैं और उन के लिए स्त्री बंसी के समान हैं चतुर पुरुष ने ऐसा कहते हैं।
दो०- अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियॅ जानि।।४४।।
युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देने वाली और सब दुखों की खान है। इसलिए हे मुनि ! मैंने जी में ऐसा जानकर तुम को विवाह करने से रोका था।
सुनि रघुपति के बचन सुहाए।
मुनि तन पुलक नयन भरि आए।।
कहहु कवन प्रभु कै अस रीती।
सेवक पर ममता अरु प्रीति।।
श्री रघुनाथ जी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र भर आए कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीति है जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो।
जे न भजहिं अस प्रभु भय त्यागी।
ग्यान रंक नर मंद अभागी।।
पुनि सादर बोले मुनि नारद।
सुनहु राम बिग्यान बिसारद।।
जो मनुष्य भ्रम को त्याग कर ऐसे प्रभु को नहीं भजते, वे ज्ञान के कंगाल दुर्बुद्धि और अभागे हैं। फिर नारद मुनि आदर सहित बोले हे विज्ञान विशारद श्री राम जी सुनिये।
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा।
कहहु नाथ भव भंजन भीरा।।
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊॅ।
जिन्ह ते मैं उन कें बस रहऊॅ।।
हे रघुवीर ! हे भव-भय का नाश करने वाले मेरे नाथ ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए यह हे मुनि ! सुनो मैं संतो के गुणों को कहता हूं जिनके कारण में उनके वश मैं रहता हूं।
षट बिकार जित अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा।।
अमित बोध अनीह मितभोगी।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी।।
वे संत छह विकारों को जीते हुए, पाप रहित, कामना रहित, निश्चल, अकिंचन, बाहर भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छा रहित,  मिताहारी, सत्य निष्ठा, कवि, विद्वान, योगी,
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्म गति परम प्रबीना।।
सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण।
दो०- गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुॅ देह न गेह।।४५।।
गुणों के घर, संसार के दुखों से रहित और संदेहो से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।।
कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते, सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।
बोध जथारत बेद पुराना।।
दंभ मन मद करहिं न काऊ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ।।
तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान और वेद पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दंभ अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूल कर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते।
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला।
हेतु रहित परहित रत सीला।।
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।।
सदा मेरी लीलाओं को गाते सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि ! सुनो संतो के जितने गुण हैं उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते।
छं०- कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे।।
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रॅग रॅए।।
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारद जी ने श्री राम जी के चरण कमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्री मुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारद जी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रंग गए हैं।
दो०- रावनारि जस पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग।।४६(क)।।
जो लोग रावण के शत्रु श्री राम जी का पवित्र यस गावेगे और सुनेंगे वे वैराग्य जप और योग के बिना ही श्री राम जी की दृढ़ भक्ति पावेंगे।
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग।।५६(ख)।।
युवती स्त्रियोंका शरीर दीपक की लौ के समान है हे मन ! तू उसका पतिंगा मत बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्र जी का भजन कर और सदा सत्संग कर।
     मासपारायण,बाईसबाॅ विश्राम
।। इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीत:सोपान: समाप्त:।।
कलयुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्रीरामचरितमानस का यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।।
            (अरण्यकाण्ड समाप्त)



































































सोमवार, 2 मई 2022

शिव चालीसा (Shiv Chalisa)

दोस्तों आज के इस अंक में हम भगवान भोलेनाथ की आरती एवं चालीसा प्रस्तुत कर रहे हैं।
                  शिव चालीसा

दोहा- जय गणेश गिरिजा सुवन मंगल मूल सुजान।
 कहत अयोध्या दास तुम देउ अभय वरदान।।
चौपाई- जय गिरिजापति दीन दयाला।
सदा करत संतन प्रतिपाला।।
 भाल चंद्रमा सोहत नीके।
 कानन कुंडल नागफनी के।।
 अंग गौर सिर गंग बहाये।
 मुंडमाल तन क्षार लगाए ।।
वस्त्र खाल बाघाम्बर सोहे।
 छवि को देख नाग मन मोहे।।
 मैंना मात की हवे दुलारी।
 बाम अंग सोहत छवि न्यारी।।
 कर त्रिशूल सोहत छवी भारी।
 करत सदा शत्रु क्षयकारी ।।
 नंदी गणेश सोहे तहं कैसे। 
सागर मध्य कमल है जैसे ।।
कार्तिक श्याम और गणराऊ।
या छवि को जात न काऊ।।
देवन जबही जाए पुकारा।
 तब ही दुख प्रभु आप निवारा।।
 किया उपद्रव तारक भारी ।
देवन सब मिली तुमहि जुहरी।।
तुरत षडानन आप पठायो।
 लव निमेष महं मारि गिरायऊ।।
 आप जालंधर असुर संहारा ।
सुयश तुम्हार विदित संसारा ।।
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। 
सबहि कृपा करि लीन बचाई ।।
किया तपहि भागीरथ भारी।
 पूरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी।।
दानिन में तुम सम कोऊ नाही ।
सेवक स्तुति करत सदा ही ।।
वेद नाम महिमा तक गाई ।
अकथ अनादि भेद नहीं पाई ।।
प्रकटी उदधि मंथन में ज्वाला।
 जरत सुरासुर भए बिहाला।।
 किन्ह दया तब करी सहाई।
 नीलकंठ तब नाम कहाई ।।
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा।
 जीत के लंक विभीषण दीना।।
 सहस कमल में हो रहे धारी।
 कीन्ह परीक्षा तबहि त्रिपुरारी।।
 एक कमल प्रभु राखियों जोई।
 कमलनयन पूजन चहुं सोई ।।
कठिन भक्ति देखी जब शंकर।
भये प्रसन्न दिए  इच्छित वर।।
 जय जय जय अनंत अविनाशी।
 करत कृपा सब के घट वासी।।
 दुष्ट सकल नित मोहि सतावै।
भ्रमत रहौ मोहि चैन न आवै।।
त्राहि त्राहि में नाथ पुकारो।
यहि अवसर मोहि आन उवारो।। 
 मात पिता भ्राता सब  कोई ।
संकट में पूछते नहीं कोई।।
 स्वामी एक आस तुम्हारी।
 आय हरहु अब संकट भारी।।
 धन निरधन को देत सदा ही।
 जो कोई जांचे वो फल पाहि।।
स्तुति केहि बिधि करो तुम्हारी।
क्षमहु नाथ अब चूक हमारी।।
शंकर हो संकट के नासन।
विघ्न विनाशक मंगल कारण।।
योगी यति मुनि ध्यान लगा वे।
 नारद शारद शीश नवावै।।
 नमो नमो जय  नमः शिवाय।
सुर ब्रह्मादिक पार न पाए।।
जो यह पाठ करें मन लाई ।
ता पर होते हैं शम्भु सहायी।।
ऋनियां जो कोई हो अधिकारी।
पाठ करै सो पावन कारी।।
पुत्र हीन कर इच्छा जोई।
 निश्चय शिवप्रसाद तेहि होई ।।
पंडित त्रयोदशी को लावै।
 ध्यान पूर्वक होम करावे ।।
त्रयोदशी व्रत करे हमेशा।
तन नहीं ताके रहे कलेशा।।
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे ।
शंकर सन्मुख पाठ सुनावे ।।
जन्म-जन्म के पाप नसावे ।
अंत धाम शिवपुर में पाबे।।
 कहे अयोध्या दास तुम्हारी।
जान सकल दुख हरहु हमारी।।
दोहा- नित्य नेम कर प्रातः ही पाठ करो चालीस।
 तुम मेरी मनोकामना पूर्ण करो जगदीश।। मगसर छठि हेमंत ऋतु संवत चौसठ जान। अस्तुति चालीसा शिवहि पूर्ण कीन कल्याण।।
              शिव जी की आरती
ओम जय शिव ओंकारा स्वामी जय शिव ओंकारा।
 ब्रम्हा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा।। ओम जय शिव ओंकारा।। 
एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसासन गरुड़ासन वृषवाहन साजे।।ओम जय शिव ओंकारा।।
दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे। तीनों रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे।। ओम जय शिव ओंकारा।।
 अक्षमाला वनमाला मुंडमाला धारी। त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी।।ओम जय शिव ओंकारा।।
 श्वेतांबर पीतांबर वाघाम्वर अंगे।
 सनकादिक गरूडादिक भूतादिक संगे।।ओम जय शिव ओंकारा।।
करके मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धारी।
सुख कारी दुखहारी जगपालनकारी।।
ओम जय शिव ओंकारा।।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।प्रणवाक्षर के मध्ये यह तीनों एका।।
ओम जय शिव ओंकारा।।
त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई जन गावे।
कहत शिवानंद स्वामी मन वांछित फल पावे।। ओम जय शिव ओंकारा।।

विश्व मैं सर्वाधिक बड़ा, छोटा, लंबा एवं ऊंचा

सबसे बड़ा स्टेडियम - मोटेरा स्टेडियम (नरेंद्र मोदी स्टेडियम अहमदाबाद 2021),  सबसे ऊंची मीनार- कुतुब मीनार- दिल्ली,  सबसे बड़ी दीवार- चीन की ...